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ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्।।

ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातमम्।।
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विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद का प्रथम मंत्र है यह, जिसमें अग्नि की उपासना की गई है।

तनिक सोचिये, अग्नि ही क्यों?

एक बात बताऊं, विश्व की सभी सभ्यताओं के धर्म में एक महत्वपूर्ण समानता है, सबमें अग्नि की पूजा की गई है। भारत की प्राचीन वैदिक सभ्यता, बेबिलोन की सभ्यता, फारस की सभ्यता, मिस्र की सभ्यता, यूनान की सभ्यता, मेसोपोटामिया की सभ्यता, सबमें अग्नि की पूजा की गई है। पारसी तो अब एकमात्र अग्नि की ही आराधना करते हैं। कारण स्पस्ट है, बुद्धि होने के बाद मनुष्य को सबसे पहले जिस प्राकृतिक शक्ति ने प्रभावित किया वह अग्नि ही था/थी/थे। अग्नि ने मनुष्य को पका हुआ भोजन दिया, अग्नि ने मनुष्य को शीत से बचाया, अग्नि ने मनुष्य को जीवन दिया। इसके अतिरिक्त मनुष्य ने आग लगने की स्थिति में अग्नि का भयावह प्रकोप भी देखा। अग्नि मनुष्य के बाहर भी थी, अग्नि मनुष्य के अंदर भी थी। अग्नि सबसे अच्छी मित्र थी, अग्नि सबसे बड़ी शत्रु भी थी। सो मनुष्य ने अग्नि को ही अपना पहला देव माना। पृथ्वी पर सर्वप्रथम ईश्वर को समझने वाले आर्यों ने सिन्धु-सरस्वती तट पर जब आराधना की प्रथम पद्धति विकसित की तो अग्नि ने ही उनके यज्ञों को सम्पन्न कराया। यह अग्नि की शक्ति थी, और मनुष्य शक्ति को पूजता है। सो सृष्टि के उन प्रथम बौद्धिकों ने अग्नि के लिए अपनी प्रथम ऋचा रच कर उसका आभार जताया। यह सनातन का प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव था। इसी कृतज्ञता के भाव ने मिस्र, फारस, बेबिलोन, मेसोपोटामिया आदि से भी अग्नि की पूजा कराई।

सच पूछिये तो प्रकृति के प्रति कृतज्ञ होने की यह परम्परा ही सभ्यता है। यदि कोई समाज प्रकृत के कण-कण के साथ सभ्य व्यवहार करे तभी वह सभ्यता कहलाने के योग्य है, अन्यथा वह एक झुंड मात्र है। और समस्त प्रकृति के प्रति इसी सभ्य आचरण की व्यवस्था ही धर्म है। ईसा के बाद मनुष्य ने निरन्तर सभ्य से असभ्य होने की ओर यात्रा की है। जबतक सभ्यताएं थीं, मनुष्य पृथ्वी, जल, अग्नि, नदी, पहाड़, वन, पशु, पक्षी, कीट सबका आदर करता था, जबसे नए नए सम्प्रदायों ने सभ्यताओं को निगलना प्रारम्भ किया, मनुष्य प्रकृत के प्रति अनुदार होता गया, स्पष्ट कहें तो मनुष्य प्रकृति का शत्रु होता गया। नदी, पहाड़, पृथ्वी, पशु-पक्षी आदि उसके लिए संसाधन मात्र होते गए। मनुष्य अब मात्र स्वयं की सुविधा के लिए सोचने लगा, पशु-पक्षियों को खाने लगा, नदी-पर्वत-वनों का अतिक्रमण करने लगा, अधर्मी होने लगा। कई बार हम धर्म और सम्प्रदाय को एक मान लेते हैं, जो है नहीं। धर्म तो केवल सभ्यताओं का ही होता है, मात्र स्वयं के लिए सोचने वाले मनुष्यों के झुंड का धर्म कैसा?

अच्छा, विश्व के सभी सम्प्रदायों में एक बड़ी ही मनोरंजक समानता है। हर सम्प्रदाय के प्रवर्तक ने स्वयं को अपने सम्प्रदाय का अंतिम ईश्वरीय दूत बताया है। जैन सम्प्रदाय के प्रवर्तक भगवान महाबीर ने कहा- भगवान ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर थे, मैं चौबीसवाँ और अंतिम हूँ। ईसाइयों के आनुसार आदम प्रथम पैगम्बर थे और ईसा चौबीसवें और अंतिम। इस्लाम के अनुसार आदम पहले पैगम्बर थे और हजरत मोहम्मद पच्चीसवें और अंतिम। यहूदी इस श्रृंखला को मूसा तक ही मानते हैं जो चौदहवें पैगम्बर हैं। बौद्ध सम्प्रदाय के अनुसार भी गौतम बुद्ध अठाइसवें और अंतिम बुद्ध हैं। इन सभी सम्प्रदायों के प्रवर्तकों ने समान रूप से कहा है कि मैं ही अंतिम ईश्वरीय दूत हूँ, और मेरे उपदेश ही ईश्वर के अंतिम सन्देश हैं। स्वयं को अंतिम घोषित करने के पीछे सबका उद्देश्य यही था कि भविष्य में उनके आदेश में कोई परिवर्तन नहीं किया जा सके। इसी उद्देश्य से गुरु गोविंद सिंह जी ने भी स्वयं के बाद गुरु-परम्परा को समाप्त करने का आदेश दिया और गुरुग्रंथ साहिब को ही एकमात्र गुरु घोषित कर दिया।

इन सारे सम्प्रदायों में एक समानता यह भी है कि किसी में भी प्रकृति के प्रति समर्पण या श्रद्धा का भाव नहीं। सब केवल मनुष्य तक ही सोचते हैं, और इनमें कुछ तो केवल अपने सम्प्रदाय तक ही सोचते हैं।

पूरे विश्व में प्रकृतिपूजा से प्रारम्भ हुई धार्मिक व्यवस्था आज यहाँ पहुँची है कि सनातन के अतिरिक्त अन्य कहीं प्रकृति के प्रति श्रद्धा नहीं बची। भारत की सत्ता यदि विकास की यूरोपीय परिभाषा का भ्रम छोड़ दे, तो वह विश्व को प्रकृतिपूजा सिखा कर ही विश्वगुरु हो सकता है, क्योंकि एक आम ग्रामीण हिन्दू के लिए नदी, पेंड, पशु, पक्षी सब देवी-देवता हैं। आज भी नित्य असँख्य पुरोहित अग्नि की उपासना करते हुए "ॐ अग्नि देवाय नमः" का जाप करते हैं। आज भी असँख्य वेदपाठी नित्य " ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य...." मंत्र बाँचते हैं। भारत आज भी प्रकृति को पूजता है, प्रकृति को आज मात्र भारत ही पूजता है।

प्रकृति जिस तरह मनुष्य के कुकर्मों के विरुद्ध मुखर हो रही है, उससे लगता है एक दिन पुनः विश्व प्रकृति को पूजेगा... उस दिन सम्भवतः समस्त विश्व ऋग्वेद के इस प्रथम मंत्र को श्रद्धा से बाँचेगा।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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