धारा 377 को लेकर भय क्यों? इसका कोई साइड इफेक्ट नहीं। फिर उनसे कैसा खतरा?"
धारा 377 को लेकर बवाल करने वाले बवालियों की बात मुझे समझ नहीं आ रही। बवालीगण कह रहे हैं कि समलैंगिक सम्बन्ध बहुत बुरे होते हैं। कोर्ट ने इसे मान्यता दे दी तो बहुत बुरा होगा। मैं कहता हूँ, यही एक काम है जिसमें कुछ हो ही नहीं सकता, इसमें अच्छा या बुरा कहाँ से आ गया? दोनों पक्ष कितना भी प्रयास कर लें, पर कुछ कर नहीं सकते। फिर भय क्यों?
मेरा एक भाई संघ का स्वयंसेवक है, कह रहा था-"भइया यह हमारी संस्कृति पर प्रहार है, इससे हमारी संस्कृति को खतरा है।"
मैंने पूछा- "अबे हमारी संस्कृति को अब उनसे खतरा होने लगा जिनके पास कुछ भी खतरनाक नहीं? अरे वे कोई बुद्धिजीवी नहीं हैं, प्रेमी हैं। और उनका प्रेम भी वैसा प्रेम है जिसका कोई साइड इफेक्ट नहीं। फिर उनसे कैसा खतरा?"
भाई ने कहा- "भारत के इतिहास में यह कभी नहीं हुआ, हम आज भी इसे स्वीकार नहीं करेंगे।"
हमनें कहा- बेटा यही तो सभ्यता का विकास है। पहले के लोग पिछड़े और रूढ़िवादी थे। उन्हें पता ही नहीं था कि आनंद बैक डोर से भी आ सकता है। अभी हमने बहुत बिकास कर लिया। हमने आनंद के वैकल्पिक साधन ढूंढ लिए, इसका स्वागत होना चाहिए।
भाई को अभी सन्तोष नहीं हुआ। गरज कर बोला-"भइया देख लीजियेगा! ये हमारी सभ्यता के लिए भविष्य में बहुत ही बुरी स्थिति पैदा कर देंगे।"
मैंने कहा- "बेटा इस बात के लिए तो निश्चिन्त रहो, ये कुछ पैदा नहीं कर सकते।"
सच पूछिए तो मैं इन महायोद्धाओं के विरुद्ध नहीं हूँ। तनिक मानवीय ढंग से सोचिये तो आप भी इनके समर्थन में आ जाएंगे। ये युगों युगों की प्यास से तड़पती आत्माएं हैं, कोर्ट में इनके मुह में दो बूंद लिम्का डालने का प्रयास भर किया है। कोर्ट की मान्यता मिलने के बाद इनके हृदय में आनंद किस तरह उतर आया होगा, आप कल्पना कीजिये। जैसे पिंजड़े में बंद पक्षी को किसी ने स्वतन्त्र कर दिया हो, जैसे बीच शहर में शौच वेग से त्रस्त व्यक्ति को शौचालय मिल जाय, जैसे महीनों से भूखे किसी बैल को हरी हरी घास मिले, जैसे....
मैंने कोर्ट के आदेश के बाद करन जौहर को बोलते हुए सुना। वे कह रहे थे कि उन्हें जीवन की सबसे बड़ी खुशी मिली है। मैं उनके हृदय की दशा समझ सकता हूँ, युगों से तिरस्कृत कृत्य के लिए न्यायिक मान्यता मिलने के बाद उनके हृदय में जो अनुभूति हुई होगी, उसे ही परम्-आनंद कहा गया है। कोई व्यक्ति आपका मित्र हो या शत्रु, उसके परमानंद के क्षणों में उसका विरोध नहीं करना चाहिए। मैं खुश हूँ कि करन जौहर अब निर्भय होकर अपना जौहर दिखा सकेंगे।
दो वर्षों पूर्व "किस ऑफ लभ" के आंदोलन के दिनों में मैंने उन योद्धाओं के समर्थन में एक गीत लिखा था। वह क्रांति गीत आज और ज्यादा प्रासंगिक हो चुका है।
पढिये-
हे नवल देव सद्भाव नही,
प्राणियों मे समलैंगिकता हो।
हम अंदर अंदर दहक रहे,
निराश हृदय ले बहक रहे,
और कुछ ऐसे सामंत हैं जो
नित नव कलियों संग महक रहे,
अब नित्य टपकती लारों को,
हम क्षण भर रोक नही सकते।
ऐ रूढ़िवादियों रखों याद,
तुम हमको टोक नही सकते।।
हम भी उपलब्ध विकल्पों से हीं
अपनी प्यास बुझा लेंगे।
जग नवल-क्रांति का घोष सुने,
रिश्तों मे आधुनिकता हो।।
हे नवल देव सद्भाव नही......
यह क्रांति तरसते अधरों की,
यह क्रांति तड़पते भ्रमरों की,
यह पुरा-रीतियों के विरुद्ध
है क्रांति मचलते रमणों की।।
जो वर्षों से पुचकार रहे,
सर झुका झुका जो ताड़ रहे,
उस चिर-अभिलाशा के पीछे,
निज जेब खर्च जो वार रहे।।
इक किरण कुहासे से निकली,
उम्मीदों की नव कली खिली,
खिल गया जिगर,किडनी,लिवर
जब लपक लालसा गले मिली।।
अब तृप्त हृदय द्विगुणित वेग से
यह जयघोष निकालेगा,
जीवन के समस्त आंकडों मे
किस्स-किसलय की प्रायिकता हो।
हे नवल-देव सद्भाव नहीं
प्राणियों मे समलैंगिकता हो।।
तो बोलिये जगत के समस्त समलैंगिकों की जय।
सर्वेश तिवारी श्रीमुख
गोपालगंज, बिहार।