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यह देश की शवयात्रा नहीं है! : डॉ. मनीष पाण्डेय

यह देश की शवयात्रा नहीं है! : डॉ. मनीष पाण्डेय
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कालाहांडी जिले में दाना मांझी नामक व्यक्ति का अपनी पत्नी के मृत शरीर को कंधे पर ढ़ोने की घटना ने भारतीय जनमानस के दिलोदिमाग को झकझोर दिया है| हालांकि इस घटना के प्रति इतनी अधिक भावुकता पैदा करने में मीडिया खासकर सोशल मीडिया की बड़ी भूमिका है| ये समाज दरअसल मीडिया समाज है, जहाँ घटनाओं की गंभीरता ख़बर के ब्रेक होने पर निर्भर करती है| हॉस्पिटल में होने वाली हर मृत्यु के पीछे एक लंबी पीड़ा छिपी होती है जिसमें आर्थिक कमजोरी अथवा मृत्यु के सामने की बेबसी से जुड़े कई सवाल होते हैं| मृत्यु तो एक हृदयविदारक घटना है ही| हिन्दी फिल्मों के निर्देशक की कुशलता से मौत की घटनाओं का कभी कभार इतना उत्कृष्ट प्रस्तुतीकरण होता है कि दर्शक दीर्घा में बैठे लोग विचलित हो जाते हैं, लेकिन यह कला तमाम फिल्मों में नहीं रहती तो मौत भी दर्शकों को बिल्कुल सामान्य सी घटना लगती है| इसके बहुत से उदाहरण हैं, संदर्भ कि जरूरत नहीं| इस सूचना के प्रवाह से युक्त वर्चुअल दुनिया के अतिमानवीय हुए माहौल में कुछ कहना अपराध हो सकता है लेकिन कालाहांडी में घटी घटना अनोखी नहीं है! अभी इस लेख को लिखने के दौरान ही एक ख़बर मिली कि लखनऊ के पास एक्सिडेंट में युवक तड़पकर मर गया और तमाशबीन भीड़ ने उसे उठाने की भी जरूरत नहीं समझी|

कालाहांडी की घटना के कई आयाम हैं, जिसे चयनित विमर्श करने वालों ने अपने-अपने हिसाब से उठा लिया है| किसी ने अतिवादी होते हुए इसे भारत के मानचित्र के रूप में चित्रित कर दिया जो व्यवस्था के बोझ को मरघट की ओर ले जा रहा है| काँग्रेसी दोस्तों ने इसे मोदी के विकास की पोल खोलने वाला बता दिया तो भाजपाई खुश हैं कि घटना से उन्हे उड़ीसा मे मदद मिलेगी| अब किसी को कुछ कहने-सुनने में शर्म नहीं आती क्योंकि यह देश कभी तर्क का आदी रहा ही नहीं| जहाँ तर्क नहीं होगा वहाँ लोग सिर्फ अपनी ही धुनेंगे| दलित चिंतक के रूप में स्थापित होने में दिलोजान से लगे एक दिल्ली वाले महाशय छींक आने पर भी हँगामा खड़ा कर देते हैं, इस मुद्दे को दायें बाएँ घुमा रहे हैं कि मीडिया दलितों की विशाल रैलियों को अनदेखा करती है| ये खीझ के रह जा रहे हैं कि काश ये घटना गुजरात या झारखंड मे हुई होती! घटना के मनमाफ़िक जगह न घटने से वामपंथी अलग बेहाल हैं| पाखंडी सामाजिक चरित्र पर चिंता करते हुए यह लोग पूरी व्यवस्था को सड़ा बताकर मंदिरों और गंगा के पाप धोने की क्षमता को चुनौती देने जैसी निरर्थक बात करने लगे तो तमाम दक्षिणपंथी और कथित अगड़े चिंतक दलित चेतना की बात पर हजारों की भीड़ और दलित-आदिवासी की मौत पर चार कंधों की कमी पर सवाल खड़े करने लगे| अब जिस समाज के गैर राजनीतिक भी इतनी राजनीति करते हो वहाँ समस्याएँ और वैमनस्व तो बढ़ेगा ही|

मूल समस्या आर्थिक विपन्नता और समुदाय की भावना के लोप होने की है| मैं कालाहांडी की सामाजिक संरचना को तो नहीं समझता, लेकिन पूरे भारत में गांवों की मूलभूत विशेषता सामुदायिक और हम की भावना रही है और इन दोनों के विलुप्त होने का कारण आर्थिक है| आज की दुनिया अतिशय व्यक्तिवादी और उपभोक्तावादी है| उत्तर आधुनिक समाजशास्त्री ज्यां बोड्रिलार्ड इसी अनुरूप व्याख्या करते हुए इसे अतियथार्थता कहते हैं, जहाँ सिर्फ प्रतिकृतियाँ हैं, वास्तविक कुछ भी नहीं| आर्थिक सम्बन्धों के तार को जोड़कर एक ग्लोबल विलेज़ की कल्पना कर दी गई, सूचना और बाजार के द्वारा विस्तार दिया गया लेकिन वास्तव में यह झूठी कल्पनाएं हैं| सिर्फ प्रतिकृतियां, सच कुछ भी नहीं| दुनियाँ भर से जुडने की चाह में मनुष्य पड़ोस और परिवार से ही दूर हो गया| वो न घर का रहा न घाट का| कुछ को छोड़ दिया जाए तो आभासी दुनियाँ मे समाज के लिए चिंतित व्यक्ति वास्तव में कालाहांडी की सड़कों पर खड़े लोगों की तरह ही तमाशबीन है| फिर भी हम निराश नहीं हो सकते क्यूंकी यह सोंच यथार्थ भी हो सकती है और हो भी रहा है| रास्ते में उसे एम्बुलेंस मुहैया कराई गई तो इसी कारण कि उनही लोगों में से किसी ने वहाँ के डीएम तक खबर पहुँचाई| यह शवयात्रा देश की व्यवस्था की शवयात्रा नहीं है, अभी भी बहुत कुछ शेष है| इसी देश के लोगों ने गोबरइठी खाई है और न सिर्फ दलितों बल्कि तथाकथित रूप से ऐश्वर्य भोगने वाले मनु के बच्चों के एक बड़े हिस्से के लोग किसी तरह पेट भरते थे| देश में इतना अनाज था ही नहीं कि सबका पेट भर सके| आज भी सच्चाई जाननी हो तो बहुत दिन नहीं हुए भारत की सामाजिक- आर्थिक जनगणना के जारी हुए| देख के पता चल जाएगा कि भारत के गाँव कितने मौंज में हैं| फिर भी पहले से स्थितियाँ बेहतर हुई हैं, इसमे कोई संदेह नहीं| आज यूपी कि सड़कों पर खरोच लग जाए तो एम्बुलेंश खड़ी हो जाती है| कभी लोग घंटों तड़पते थे सड़क पर भीड़ सिर्फ तमाशा देखती थी|

यही भीड़ उस शवयात्रा को देख रही थी, जिसके पास न विवेक होता है न संवेदनशीलता| भीड़ से अपेक्षा करना मूर्खता है| चिंतित होना चाहिए सरकारी खामियों पर जिसकी ज़िम्मेदारी हैं देश के नागरिक| चिंतित होना चाहिए कहाँ है वो परिवार, वो नातेदारी, वो समुदाय बृहद अर्थों मे वो समाज जो व्यक्ति को अकेला होने से बचाता है| शोले नाम की फ़िल्म के एक दृश्य में ठाकुर कहता है कि समाज-बिरादरी इंसान को अकेलेपन से बचाने के लिए होते हैं| और इस अकेलेपन से न सिर्फ आर्थिक विपन्न बल्कि सम्पन्न भी जूझ रहे हैं| नई आर्थिक संरचना में जब पुरानी संस्थाएं कमजोर होंगी तो अपरिहार्यता से राज्य को उसका विकल्प खड़ा करना होगा| और ऐसा हो भी रहा है लेकिन राजनेता, नौकरशाह, कारपोरेट और मीडिया के खतरनाक गठजोड़ से बहुत कुछ बिगड़ा हुआ है| सरकारी अस्पतालों मे सुविधा और सिफ़ारिश की कमीं तो निजी हास्पिटल-क्लीनिक में दिन दहाड़े पड़ रही डकैती में कंगाल होते गरीब को अकेले कंधे पर ही शवयात्रा निकालनी होगी! और हम सभी अपनी-अपनी सुविधा और वैचारिकी की खोल में स्थितियाँ सुधर जाने की उम्मीद से बहस करेंगे|

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