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जाति व्यवस्था समाज की सच्चाई है, इससे हम मुह नही मोड़ सकते : आराध्या शुक्ल

जाति व्यवस्था समाज की सच्चाई है, इससे हम मुह नही मोड़ सकते : आराध्या शुक्ल
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पिछले कई दिनों से sc/st एक्ट में हुए बदलाव ;उसके प्रतिरोध और अंततः भारत बंद के दौरान हुई हिंसक घटनाओ के बाद मेरे प्रिय शुभम का आग्रह था कि मैं भी इस पर कुछ प्रतिक्रिया दूँ हालांकि मसला देश की सर्वोच्च अदालत से जुड़ा है और मै भी सरकारी व्यवस्था में बंधा हूँ इस नाते मेरे कुछ भी कहने बोलने का कोई औचित्य नही है
लेकिन भारतीय संविधान"हम भारत के लोग"का प्रतिनिधित्व करता है इस नाते इस पर कुछ चर्चा करना किसी भी तरह से अनुचित नही है और कानून के साथ ही सामजिक व्यवस्था का विद्यार्थी रहने के नाते इस पर बोलना अपना फ़र्ज़ समझता हूँ
जाति व्यबस्था हमारे समाज की सच्चाई है और इससे हम मुह नही मोड़ सकते ;हमें इस व्यवस्था के अनुरूप खुद को ढालना और तैयार करना होगा मुझे मगध विश्वविद्यालय के कुलपति रहे प्रोफेसर चंद्र कुमार सिंह जी की वो पंक्तिया हमेशा याद आती है जो उन्होंने एक कार्यक्रम के दौरान कंही थी जिसका सञ्चालन मै कर रहा था उन्होंने कहा था कि अगर आप योग्य है तो आपको तो केवल एक स्थान चाहिए होने दीजिये आरक्षण स्वयं को सर्वोत्कृष्ट बनाइये ;दलीत आरक्षण को तो हमारा समाज स्वीकार ही कर चुका है इसका सबसे बड़ा प्रतिरोध मंडल आयोग के बाद आया उस दौर में मै इलाहबाद विस्वविद्यालय का विद्यार्थी हुआ करता था और वो आरक्षण विरोध का सबसे बड़ा केंद्र था लेकिन मैं तब भी कभी इसका हिस्सा न बन पाया क्युकि मुझे हमेशा लगता है किसी को मिलने वाले किसी अवसर का प्रतिरोध हमारी संकुचित मानसिकता का ही परिचय देता है
जंहा तक दलितों के वर्तमान अध्यादेश और उसके घटनाक्रम का प्रश्न है ये सच है कि आज़ादी के इतने वर्षो बाद इन वर्गों की स्थिति में काफी बदलाव आया है लेकिन हमें ये भी सोचना होगा कि उनकी स्थिति में बदलाव के बावज़ूद क्या हमारी मानसिकता में बदलाव आया है ?क्या हम आज भी अपने अहम और झूठे आडम्बर में नही जी रहे जो हमारे बुजुर्ग करते रहे हैं;आज भी हमारी मानसिकता वही है अंतर सिर्फ इतना है कि कानून का भय हमारे आचरण को प्रतिबंधित कर देता है लेकिन जब भी अवसर मिल्ता है हम अपनी औकात दिखाने से बाज़ नही आते ;भीमा कोरेगांव की घटना के बाद भी मैंने लिखा था कि अगर आप समाज के वंचित वर्ग की आवाज़ को दबाते है तो उसकी प्रतिक्रिया काफी विभत्स रूप में सामने आएगी ही;जरा विचार करे कि शीर्ष पद पर बैठे किसी भी दलित को क्या हम सहज भाव से स्वीकार कर पाते है ;उसकी उप्लबधि पर हम तरह तरह की क्या चर्चाये नही करते आखिर क्या है ये?हो सकता है बड़े स्तर पर कुछ उदारता होती हो लेकिन निचले स्तर पर हमारी मानसिकता हमें शर्मिंदा ही करती है,,,,,,,..

अभी कुछ वर्ष पूर्व एक विश्वविद्यालय के शिक्षक संघ के अध्यक्ष के पद पर एक दलित शिक्षक निर्वाचित हुआ कई अखबारो ने इस पर संपादकीय लिखे क्युकी ये पूरे देश की पहली घटना थी :सवाल ये कि इसमें तो कोई आरक्षण था नही ये पद उन्हें कोटे से नही अपनी विद्वता;विनम्रता और कर्मठता के रहते हासिल हुआ लेकिन भाई लोगो को इसमें भी ब्राह्मण की हार का दर्द अधिक पीड़ादायक लगा सोचने की बात ये है कि आखिर आज तक एक पढ़े लिखे समाज में हमने ऐसा क्यू नही होने दिया
मै बड़े स्तर की नही केवल ग्रासरूट की बात करता हूँ मेरे बिसवां इलाके में obc और दलित आबादी सर्वाधिक है लेकिन बावज़ूद इसके पंचायतो में जब तक आरक्षण व्यवस्था लागू नही हुई यंहा के ज़मीदारों और समंतवादियो के बीच एक गठजोड़ चलता रहा ;धुर विरोधी होने के बावज़ूद ज़मीदार ब्लाक प्रमुख में सामतो का सपोर्ट करते रहे जिससे दोनों के हित सधते रहे और सामंतियो ने विधायकी में रोड़ा नही अटकाया ;ज़िले में शिक्षको के प्रबुद्ध वर्ग जो बड़ी बड़ी चर्चाये करते है आज तक कितने दलितों को आगे आने का अवसर दिया गया और अगर किसी ने साहस किया तो हर कोशिश करके उसे रोक दिया गया इन दिनों फिर ज़िले स्तर पर दलितों(जो है ही नही)और पिछडो को रोकने का एक समनवित खड्यंत्र चल रहा है,,,,,,,,

ज़िले के गांज़री ब्लाक सकरन में खंड शिक्षा अधिकारी के पद पर पंडित ब्रजेश त्रिपाठी तैनात है जरा नमूना देखिये दिल्ली में रहकर नौकरी करने वाली एक शिक्षिका जिससे वो उपकृत होते है उसके फ़र्ज़ी हस्ताक्षर कराने के लिए उन्होंने स्कूल के दलित हेड पर दबाव बनाया और न मानने पर उसपर कार्यवाही की इसी तरह पटना में 3 शिक्षिकाओ से लाभ लेने के कारण जब हेड पर दबाव बनाया और उसने मना किया तो उसे निलंबित तक करा दिया ;दर्ज़नो ऐसे उदहारण है जंहा वो अपने ब्राह्मणवादी गिरोह के साथ मिलकर दलितों का उत्पीड़न कर रहे है एक दलित टीचर ने तो bsa को पत्र लिखकर पूरे दलित उत्पीड़न का सिलसिलेवार विवरण भी दिया है लेकिन कुछ नही हुआ ;2 दलित शिक्षिकाओ का इन्होंने निलंबन भत्ता तक रोक दिया अब बताइये जब दलित ऐसे लोगो के खिलाफ आसानी से आवाज़ तक उठाने का साहस नही कर पाता वो हिंशा करेगा क्या?सवाल ये भी पूंछा जाना चाहिए कि डीलेड प्रशिक्षण के लिए इन्होंने जो रिसोर्स ग्रुप बनाया उसमे कोई दलित है क्या ?ये साज़िश नही तो और क्या है कि ज़िले में सहसमनव्यक चयन के लिए जो विज्ञापन निकला उसमे आरक्षण का उल्लेख क्यू नही है?,,

मै अधिक तो नही जानता लेकिन इतना जरूर जानता हु कि मेरे एक मित्र ने कभी एक शेर सुनाया था
"करीब है यारो मेहसर छुपेगा कुशतो का खून क्यू कर
जो चुप रहेगी जुबाने खंज़र लहू पुकारेगा आस्ती का"
शायद अभी भी वक़्त है हम अपनी मानसिकता को बदले और अपने सामाजिक रूप से वंचित भाइयो को गले लगाना सीखे और ये गले लगाना कोई एहसान नही भाई के फ़र्ज़ के नाते ;एक बात और कुछ दलितों की तरक्की को आधार बनाकर सबपर चोट करना ठीक नही ;कथाकार शैलेश मटियानी ने अपनी पुस्तक सर्पगंधा में लिखा है कि दलित समुदाय से जो ऊपर उठ जाता है वो सबसे पहले अपने ही समुदाय से दूर होता है तो इस तरह दलितों का एक बड़ा तबका दोहरी मार झेलता है एक तरफ उसके अपने उसे नही अपनाते और दूसरी तरफ हमारी आपकी उपेक्षा और शायद इन्ही का दर्द है ये::हां हिंशा उचित नही है और शायद कोई कहता भी नही है लेकिन दर्द को दवा से ज्यादा प्यार की ज़रूरत है
आप मेरे इस आलेख को पढ़ने के बाद चाहे कुछ समझे लेकिन बतौर कान्यकुब्ज ब्राह्मण मुझे अपने हॉस्टल के दिनों में अपने दलित रूम पार्टनर के साथ वर्षो तक एक ही टिफिन में साथ साथ दाल चावल खाने का गर्व है ;;;आप में से जो भी ब्राह्मणवादी चाहे मुझसे किसी भी तरह के सम्बन्ध विछेद करने या मेरे बच्चों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध न करने का फतवा ज़ारी कर मेरा सामाजिक बहिस्कार करने का निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है
कुछ मित्रो की प्रतिक्रिया आयी कि जाति व्यवस्था संसार के हर देश की सच्चाई है लेकिन हम मूर्खता से लड़ते है मेरे भाई आरक्षण भी हर देश की सच्चाई है कंही रंग के नाम पर तो कंही जाति के नाम पर
तुलसी बाबा ने भी कहा है जदपि जग दारुण दुःख नाना सबसे कठिन जाति अवमाना ,,,व्यक्ति आर्थिक मुश्किल और परेशानी तो झेल सकता है लेकिन सामजिक अवमानना बहुत तकलीफ देती है उससे उबरना मुश्किल होता है इसीलिए हमारा संविधान सामजिक रूप से आरक्षण की बात करता है
,,,..मेरा मानना है कि हमें दलित ;अनुसूचित जाति या हरिजन जैसे संबोधनों के स्थान पर सामाजिक रूप से वंचित लोग शब्द का प्रयोग करना अधिक श्रेयस्कर होगा ,,,वैसे भी अगर हम निरक्षर के लिए असाक्षर और विकलांग के लिए दिव्यांग शब्द का प्रयोग कर सकते है तो ये शब्द उन्हें सम्मान ही देगा
आराध्या शुक्ल
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