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लोहिया, भगत सिंह और हमारा समय

लोहिया, भगत सिंह और हमारा समय
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23मार्च भगत सिंह का शहादत दिवस है तो लोहिया जी का जन्मदिवस । डॉ लोहिया ने इस दिन को बलिदान दिवस के रूप में मनाने का निर्णय किया था। भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को इसी दिन लाहौर जेल में फांसी दी गई थी। समूचे देश में अंगरेजों के विरुद्ध आक्रोश का उफान था। लोहिया जी कहते थे कि यह जन्मदिन मनाने से ज्यादा अपने नायक को याद करने का दिन है, जो सबसे कम उम्र में शहादत देकर सबसे बङा सपना दे गया, उस सपने को आगे बढाने का दिन है। 23साल में भगतसिंह जितना लिख गये और पढ गये वो अद्भुत है। भारतीय समाजवाद की मौलिक दृष्टि के लिए काश भगत सिंह और भी दिन जिये होते।


जब भगतसिंह को हिंदुस्तान में फाँसी दी गयी, उसी समय जिनेवा में लीग आफ नेशन्स का अधिवेशन चल रहा था, बीकानेर के महाराजा भारत की ओर से प्रतिनिधि थे काफी भागदौड़ और प्रयास के बाद वह दो पास (प्रवेशिकाएँ ) पानें में सफल रहे। अपने एक साथी के साथ के साथ साथी के साथ के साथ साथ तब वह जाकर दर्शक दीर्घा में बैठकर उन्हें उम्मीद थी की बीकानेर की महाराज महाराज भगत सिंह की फांसी और गांधी जी की धारा सुना की धारा सुना यात्रा पर हुए अत्याचार का विरोध करें मगर बीकानेर के महाराज भारत का पक्ष रखने के बजाय अंग्रेजों के राज में भारत में अमन-चैन खुशहाली का गुणगान करने लगे तो लोहिया जी से बर्दाश्त ना व सीटी बजाते नारे लगाते हुए उसका विरोध करने लगी अनपेक्षित विरोध से सभी चकित रह गए उन्हें अधिवेशन हॉल से बाहर कर दिया ।लेकिन लोहिया जी इतने से संतुष्ट नहीं हुए उन्होंने भगत सिंह का बम का दर्शन पड़ा था इसलिए अपनी इसलिए अपनी था इसलिए अपनी बात पूरी दुनिया तक पहुंचाने का निर्णय लिए वाहन स्वामी विश्वास नहीं रखते थे इसलिए दूसरा रास्ता चुना अगले दिन लूचा व्हाई यू मनीषा मनीषा यू मनीषा समाचार पर चढ़ने लीग ऑफ नेशंस के संपादक के नाम एक पत्र लिखें जिसमें भगत सिंह को दी गई फांसी और धारासना समेत पूरे देश में अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे अत्याचार का विस्तृत वर्णन किया इस पत्र के माध्यम से लोहिया जी ने बीकानेर के महाराज के भक्तों को चुनौती दी और उनके प्रतिनिधित्व को छत घोषित कर दिया अघोषित रूप से जिनेवा अधिवेशन में भारत के पक्ष को करते हुए उन्होंने प्रतिनिधित्व दे दिया। यही नहीं उन्होंने समाचार पत्र की प्रतियां खरीद कर लीग की इमारत के सामने प्रतिनिधियों को मुफ्त में बांटी।

लोहिया जी के युवा काल के इस प्रसंग की शायद अनदेखी की गई ।भगत सिंह निश्चित रूप से मार्क्सवादी थे परंतु लोहिया जी कहते थे कि मैं नतो मार्क्सवादी हूं न गांधीवादी, और मैं दोनों हूँ। वह भारत के लिए एक खांटी भारतीय समाजवादी दर्शन के आग्रही थे और इस संबंध में लोहिया जी एक हद तक सफल भी हुए।

इस तरह हम कह सकते हैं लोहिया जी भगत सिंह और गांधी की परंपरा के संयुक्त रूप से वाहक थे। उन्होंने दोनों दर्शनों के विचारों के तालमेल से भारतीय परिस्थितियों में समाजवाद की रूपरेखा तैयार की है उनके दर्शन में हिंसा के लिए कोई जगह नहीं थी । भारत में चले इतने दिनों की सशस्त्र आंदोलनों से भी यही स्पष्ट हुआ कि हिंसा का रास्ता सीमित है ।

आज जब फासीवादी ताकतें, पूरी ताकत से भारत को जिस डगर पर झोंकना चाहती हैं वहां तो यही संकट खड़ा हो गया है की भारत में लोकतंत्र बचेगा भी कि नहीं नहीं, समाजवाद आयेगा कि नहीं यह द्वितीयक हो जाता है, तब भगत सिंह और लोहिया की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए फासीवाद के खिलाफ सभी समान विचारधारा वाले दलों को संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों को त्याग कर एक साथ आना होगा। ऐसे समय में फासीवाद के खिलाफ लड़ाई में लोहिया जी प्रासंगिक हो जाते हैं आज फिर देश को ऐसे लोहिया की जरूरत है जो समान विचारधारा वाले सभी धर्मनिरपेक्ष दलों को फासीवाद के खिलाफ इस लङाई में अपने साथ ला सकें।


सुधांशु बाजपेयी

युवा विचारक

संयोजक -रोजगार बचाओ अभियान

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