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कृष्णा सोबती: 'जिंदगीनामा' को लेकर 25 साल लड़ा कोर्ट में केस

कृष्णा सोबती: जिंदगीनामा को लेकर 25 साल लड़ा कोर्ट में केस
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एक बार अमृता प्रीतम के साथ मेरा विवाद हो गया। वह विवाद किताब के शीर्षक को लेकर था। मेरी किताब थी जिंदगीनामा। इसके कुछ दिनों बाद इसी शीर्षक से अमृता जी की भी एक किताब का विज्ञापन छपा। मूवी स्टार में वह विज्ञापन छपा- अमृता प्रीतम का नया उपन्यास जिंदगीनामा- जिंदगी की हकीकतों को उजागर करता हुआ। इस पर मुझे ऐतराज हो गया। मैंने अपने प्रकाशन को भी कहा कि मैं इस तरह की बात बर्दाश्त नहीं कर सकती। मैं इस मामले को लेकर हाईकोर्ट तक गई। जज ने मुझसे पूछा कि आप कौन हैं? मैंने आपके बारे में कभी सुना नहीं है। बाद में मेरे वकील ने मुझसे पूछा कि आपको जज की बात बुरी तो नहीं लगी? मैंने कहा कि नहीं, मुझे अपने बारे में कोई गलतफहमी नहीं है। अगली तारीख में जज ने कहा कि अब मैं आपके बारे में जान गया हूं। वह मुकदमा करीब 25 साल तक चला। खूब चर्चा हुई। बाद में वह बडे़ मामूली तरीके से खत्म हुआ। इन्हीं वजहों से मुझे अक्खड़ माना जाता रहा। मैं जो कहना चाहती थी, वह जरूर कहती थी। कुछ न कह पाने की सूरत में मैं अपनी नींद खराब नहीं करना चाहती।
उमाशंकर जोशी साहित्य अकादेमी के चेयरमैन थे। गांधीवादी विचारधारा के व्यक्ति थे। बहुत ही संभले हुए इंसान थे। जब वह जा रहे थे, तो उन्होंने सभी लेखकों से पूछा कि आप लोग वह काम बताएं, जो मैं नहीं कर पाया। सभी लेखकों ने अपनी-अपनी बात रखी। मैंने कहा कि देखिए, मैं जो भी कहूंगी, वह आप लोगों को अच्छा नहीं लगेगा। मैं कहना चाहती हूं कि साहित्य अकादेमी में एक कॉफी हाउस या बार होना चाहिए। कोई लेखक सिर्फ इसलिए दिल्ली से फरीदाबाद या गुड़गांव (अब गुरुग्राम) जाए, क्योंकि वहां शराब सस्ती मिलती है, यह अच्छी बात नहीं है। उन्होंने कहा कि कृष्णा बहन, मैं गांधीवादी व्यक्ति हूं, मैं यह कैसे कर सकता हूं? मैंने पलटकर जवाब दिया कि भाई साहब, मैंने आज तक दूध पीकर किसी को अच्छा लिखते नहीं देखा है।
देवेंद्र इस्सर साहब ने मंटो पर मंटोनामा निकाला था। एक कार्यक्रम में उसके पर्चे पढ़े जाने थे। कार्यक्रम स्थल पर मंटो की एक बड़ी-सी तस्वीर लगाई गई थी। सब कुछ अच्छा चल रहा था। मुझे आखिर में बोलना था। मैंने जैसे ही बोलना शुरू किया, मुझे महसूस हुआ कि हर किसी की निगाह घड़ी पर है, क्योंकि वक्त अब किसी और चीज का हो रहा था। मैंने यंू ही हालात को भांपते हुए कहा कि मंटो को आप लोगों के साथ हमदर्दी हो रही है।
मुझे 'इस्टैबलिशमेंट' या 'सिस्टम' की हां में हां नहीं मिलानी आती। इसीलिए मैंने कई बड़े पुरस्कारों को लेने से मना कर दिया। एक दिन मेरे पास फोन आया कि आपको पद्म भूषण देना चाहते हैं। मैंने विनम्रता से मना कर दिया। मेरा मानना है कि हिंदी बहुत बड़ी भाषा है। इन पुरस्कारों को लेकर अब सोच बदलने की जरूरत है। जब तक किसी हिंदी के लेखक को पद्म पुरस्कार दिए जाने का नंबर आता है, वह 70 पार कर चुका होता है। पुरस्कार देना ही है, तो 40 की उम्र में दीजिए। 50 में दीजिए, हद से हद 60 में दे दीजिए। यह क्या कि जब अस्पताल में जाने का समय हो गया, तब आप किसी को पुरस्कार दे रहे हैं? हिंदी के साथ अब बड़ी भाषा जैसा बर्ताव होना चाहिए। मेरे सामने लेखकों की तीन-चार पीढि़यां लिख रही हैं। उनकी सोच अलग है। वे आजाद हिन्दुस्तान में पैदा हुए हैं। उनमें से जो काबिल हैं, उनको दीजिए सम्मान। हिंदी को सम्मान दिलाने की लड़ाई हिंदी वालों को लड़नी चाहिए। हाल ही में साहित्य अकादेमी पुरस्कार वाला बवाल पूरे देश ने देखा ही। कितने खराब तरीके से उस मामले को संभाला गया। कहा गया कि लेखक तो 'दारूखोर' हैं। लेखकों की जमात गई थी साहित्य अकादेमी कि हमें कुलबर्गी साहब की प्रार्थना सभा करनी है। जवाब मिला कि वह आप यहां नहीं कर सकते। मैंने कहा कि फिर क्या फाइव स्टार होटल में होगी प्रार्थना सभा?
पिछले दिनों मैं लद्दाख गई थी। काफी ऊंचाई पर बर्फ की एक पहाड़ी पर मैंने देखा कि सामने ढेर सारी बुद्ध की पताकाएं लहरा रही थीं। मुझे बहुत अच्छा लगा। मैं यह भी जानती थी कि अब शायद ही मैं वहां दोबारा जा पाऊं। मैंने अपने ड्राइवर साहब से कहा कि मुझे भी एक पताका फहरानी है, अगर आपने पहले बताया होता, तो मैं भी ले आती। फिर मैंने उनसे कहा कि मेरा शॉल बांध दो। उन्होंने कहा कि शॉल टिक नहीं पाएगा। मैंने कहा, मेरा दुपट्टा बांध दो। वहां हिमालय की चोटियों के बीच खड़े रहकर मुझे ऐसा लगा, जैसे मैं अमर हूं। वहां से ब्रह्मपुत्र, गंगा, सिंधु और सतलुज निकलती हैं। कैसे सारे हिन्दुस्तान में इन नदियों का बहाव है। मुझे बहुत अच्छा लगा। हालांकि मुझे वहीं पर यह बात भी दिमाग में आई कि हमने इन नदियों का क्या हाल कर दिया है? गंगा, यमुना सब कितनी मैली कर दी है? किसी और मुल्क को शायद प्रकृति ने इतना कुछ नहीं दिया होगा, जितना हमें दिया है।
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