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लेख

"बबनवा के स्कूल"

बबनवा के स्कूल
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-"सुनऽ तानी जी! हेकर उमीर आजु जीतीया के छव साल के हो गईल ।अब कहिया से स्कूली में जाई ?"

मुझे जहाँ तक याद है माँ ने पापा से कहा ।मेरी पढाई को लेकर बहुत चिंतित थीं वह ।
पापा ने भी उत्तर दिया -

"ठीक बा। काल्हू बबनवा के स्कूली में एकर नाव लिखवा देब ।"

गांव में बब्बन वर्मा का एक छोटा सा स्कूल था ।उन दिनों आज की तरह हर सौ गज पर कुकुरमुत्ते की तरह अंगरेजी मीडियम स्कूल नहीं हुआ करते थे ।गाँव में एक ही स्कूल था जिसका कोई नाम नहीं था ।हम लोग बैठने के लिए बोरा लिखने के लिए भाठा एवं कापी की जगह पटरी का प्रयोग करते थे ।हमारे मास्टर साहब लकड़ी के श्याम पट पर पढाते थे ।

"वह शक्ति हमें दो दयानिधान कर्तव्य मार्ग पर डंट जावें
पर सेवा पर उपकार में हम जगजीवन सफल बना जावें ,,,,,,,,,,,,,,,,"

उपरोक्त प्रार्थना से उस स्कूल की पढाई शुरू होती थी ।थोड़ी-थोड़ी भी गलती पर हमें गुरू जी पीट देते थे।फिर दोपहर में कबड्डी,चीका,कुश्ती एवं दौड़ जैसे खेल होते थे।स्कूल में मासिक फीस बीस रूपया लगता था ।इतने में ही हम सब संतुष्ट रहते थे ।

मगर आज ऐसा नहीं है ।आधुनिक अभिभावक बडे-बडे इमारतों को देखकर अपने बच्चों का एडमिशन करवाते हैं ।उनको धोती-कुर्ता वाले गुरु जी के जगह सूट-बूट वाले सर पसंद हैं ।उनको बीस रूपया फीस वाला स्कूल नहीं बीस हजार फीस वाला स्कूल चाहिए ।उनका बच्चा पैदल नहीं बल्कि महंगे गाडियों में स्कूल जायेगा ।श्यामपट का जगह स्मार्टबोर्ड ने ले लिया है ।किसी गलती पर टीचर्स, बच्चों को डाँट भी नहीं सकते ।गेट से लेकर बाथरूम तक सीसीटीवी कैमरे लगे हैं ।
इतनी सारी सुविधाओं के बाद भी शिक्षा में गुणवत्ता नहीं है ।इसका एक मात्र कारण है "असंतोष "।
न अभिभावक स्कूल प्रबंधन से संतुष्ट है और न स्कूल प्रबंधन अभिभावक से ।न विद्यार्थी शिक्षक से संतुष्ट है और न शिक्षक विद्यार्थी से।विद्यालय प्रबंधन के लिए टीचर्स की सैलरी ज्यादा लगती है ।टीचर्स के लिए वही सैलरी कम लगती है ।

एक हम थे जो उस समय सुविधाविहिन होकर भी सुरक्षित थे और एक रेयान जैसे विद्यार्थी हैं जो इन तमाम सुविधाओं के बावजूद भी असुरक्षित हैं ।

नीरज मिश्रा
बलिया (यूपी)।
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