Janta Ki Awaz
लेख

जीव-हत्या के पाप से मुक्ति और बाबा केदारनाथ – प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव

जीव-हत्या के पाप से मुक्ति और बाबा केदारनाथ  – प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव
X

(महाशिवरात्रि पर जनता की आवाज की विशेष प्रस्तुति )

हिमालय की तलहटी में बसा उत्तराखंड भारत के के पर्वतीय राज्य है. केदारनाथ का मंदिर इसी राज्य के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित है. भगवान् शंकर के १२ ज्योतिर्लिंगों में यह मंदिर अपना प्रमुख स्थान रखता है. बर्फ़बारी होने के कारण यहाँ जाने के रास्ते बर्फ से ढके रहते हैं, इसलिए यह मंदिर अप्रैल से नवम्बर महीने के बीच में ही भक्तों ने दर्शन के लिए खुलता है. यह मंदिर अत्यंत प्राचीन है. हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण पांडवों के प्रसिद्ध राजा जन्मेजय ने इसका निर्माण करवाया है. आदि गुरु शंकराचार्य ने इस मंदिर में आकर शिव की आराधना की थी, और इसका जीर्णोद्धार भी उन्होंने ही करवाया था. यहीं पर आदि शंकराचार्य ने समाधिस्थ होकर अपना शरीर भी छोड़ा था. बारिश के दिनों होने वाले भूस्खलन से यहाँ आने वाले मार्गों में परिवर्तन होता रहता है.

यह मंदिर अत्यंत प्राचीन है. इसके मंदिर के बारे में कोई प्रमाणिक साक्ष्य प्राप्त नहीं होते हैं. पर इतना जरूर है कि यह मंदिर १ हजार वर्षों से ज्यादा समय से भक्तों के दर्शन का केंद्र बना हुआ है. हिंदी साहित्य में मूर्धन्य साहित्यकार राहुल सांस्कृत्यायन ने इसका समय १२ वी शताब्दी माना है. ग्वालियर में मिले एक प्रमाण के अनुसार इस मंदिर का निर्माण राजा भोज ने किया है. इस मंदिर की सीढ़ियों पर पाली या ब्राहमी लिपि में कुछ खुदा हुआ है, परन्तु वह अपठनीय है. इसके बावजूद कुछ इतिहासकारों ने अपने अध्ययन के आधार पर यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि दर्शन के लिए यहाँ भक्त आदि गुरु शंकराचार्य से भी पहले जाया करते थे. इस मंदिर के सामने वाले भाग में एक कमरा था,जिसमें पूजा की मुद्रा में मूर्तियाँ विराजमान थी. इसके पिछले भाग में एक टावर था, जो भूरे रंग के पत्थरों से बना हुआ था. इसके गर्भ गृह के अटारी पर सोने का पानी चढ़ा हुआ था. आस-पास ही यहाँ के पंडों और पुजारियों के रहने के लिए कमरे बने हुए थे. इस मंदिर के दक्षिण दिशा में बने मकानों में ही पंडे और पुजारी रहते थे.

इस मंदिर के बारे में अनके दन्त कथाएं भी प्रचलित हैं. एक कथा के अनुसार भगवान् विष्णु के अवतार नर और नारायण यहाँ घोर तपस्या किया करते थे. उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान् शंकर ने उनके द्वारा पूजित शिव लिंग में सदा विराजमान रहने का वचन दिया. दूसरी दन्त कथा यह है कि महाभारत युद्ध में विजयी होने के बाद पांडव भाइयों की हत्या के पाप से मुक्त होना चाहते थे. उनके इस कृत्य से भगवान् शकर रुष्ट थे. क्षमा मांगने के लिए पांडव उन्हें हर जगह तलाश कर रहे थे. भगवान् शंकर उन्हें किसी भी स्थित में दर्शन नहीं देना चाहते थे, इस कारण वे केदारनाथ में आकर छिप गये थे. पांडवों ने भी प्रण कर लिया था कि भगवान् भोलेनाथ से क्षमा-याचना के पहले चैन नहीं है. इसलिए वे उन्हें ढूढ़ते-ढूढ़ते केदारनाथ पहुँच गये. भगवान् भोले ने जानवर का रूप धर कर अन्य जानवरों के साथ विचरण करने लगे. पांडवों को संदेह हो गया कि भगवान् भोले हम लोगों को दर्शन न देने की अपनी जिद के कारण बैल बन गये हैं. वह दो पर्वतों के ऊपर अपना पैर फैला कर खड़े हो गये, सभी जानवर निकल गये, पर शंकर रुपी बैल वहां से नहीं निकला, इस पर भीम ने झपट्टा मार कर उस बैल का पिछला हिस्सा पकड़ लिया, इसके बावजूद वह अंतर्धान हो गये. लेकिन पांडवों की लगन देख कर अंत में उन्होंने अपना गुस्सा छोड़ दिया. और प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दे दिया और पाप मुक्त भी कर दिया. इसी कारण आज भी केदारनाथ में बैल की आकृति के शिवलिंग के रूप में पूजे जाते हैं.

यह मंदिर ६ फुट ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है. इसके चारो ओर प्रदिक्षणा मार्ग बना हुआ है. भगवान् भोले के अन्य मंदिरों की तरह इस मंदिर के बाहर नंदी बैल बैठा हुआ है. इस मंदिर में तड़के मंदिर की धुलाई-पुछाई के पश्चात् ज्योतिर्लिंग को स्नान करवाया जाता है. इसके बाद उस पर घी का लेपन किया जाता है. इसके बाद धुप-दीप जलाकर शिव की आरती की जाती है. जिसमें यहाँ उपस्थित सभी भक्तगण भाग लेते हैं. शाम को भगवान् भोले के इस लिंग का श्रृंगार किया जाता है. इस समय किसी भी भक्त को मंदिर के अन्दर आने की इजाजत नहीं होती है,दूर से ही भक्त भाव विह्वल होकर नत मस्तक होते हैं.

केदारनाथ का मंदिर आम दर्शनार्थियों के लिए सवेरे ७ बजे खुलता है. दोपहर के पश्चात् १ बजे से २ बजे के मध्य में विशेष पूजा होती है. जिसमे शामिल होना हर भक्त अपना सौभाग्य समझता है. इसके बाद मंदिर बंद कर दिया जाता ही. शाम को ५ बजे यह मंदिर फिर खुलता है. पांच मुख वाली इस प्रतिमा का विधिवत श्रृंगार करके ७ से ८ बजे के बीच में फिर आरती होती है. साढ़े ८ बजे मंदिर बंद कर दिया जाता है. सर्दी के दिनों में जब भीषण बर्फ़बारी होती है, उस समय भगवान् शंकर के इस ज्योतिर्लिंग को उखीमठ में लाया जाता है. और वहां प्रतिदिन विधिवत पूजा-अर्चना की जाती है.

इस मंदिर पर पहुचने के लिए भक्त को दुर्गम मार्गों से होकर जाना होता है. वैसे दिन प्रतिदिन केंद्र और राज्य सरकारें इस मार्ग को सुगम और यातायातयुक्त बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं. इसलिए अब पहले जैसी भक्तों को तकलीफ नहीं होती है. फिर भी यहाँ पहुचने के लिए हर भक्त को जान का जोखिम तो उठाना ही पड़ता है. इसके बावजूद लोगों की इतनी श्रद्धा है कि वे भगवान् शिव के स्व-निर्मित बर्फीले लिंग का दर्शन करने को अपने भाग्य का गौरव समझते हैं.

(यह लेख मेरी पुस्तक का अंश है, इसके किसी भी अंश का प्रकाशन बिना जनता की आवाज या लेखक की अनुमति के अवैध है )

प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव

विश्लेषक, भाषाविद, वरिष्ठ गांधीवादी-समाजवादी चिंतक व पत्रकार

Next Story
Share it