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सूर्यकांत त्रिपाठी निराला और उनकी पहली रचना

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला  और उनकी पहली रचना
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(निराला जयंती पर जनता की आवाज की विशेष पेशकश )

हिंदी साहित्य की जब-जब बात होती है, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के बिना पूरी नहीं होती है. निराला का जैसा जीवन था, वैसी ही उनका साहित्य था. जिस प्रकार उनकी कद-काठी के सामने अन्य कोई नहीं टिकता था, उसी प्रकार उनकी रचनाओं के सामने भी कोई नहीं टिकता है. जितना कोमल, परमार्थ को उनकी दिनचर्या समर्पित थी, उसी प्रकार उनके साहित्य के भाव हैं. जिनसे लोगों का हृदय द्रवित होकर शुद्ध होता रहता है. वास्तव में वे सूर्य के कान्त थे. उनके तेज के कारण ही साहित्य जगत को निरंतर प्रकाशित कर रहे हैं. उनका बाल मन मैंने उनकी रचनाओं के आधार पर पढने की कोशिश की है. उनकी उन रचनाओं को लिया है, उसको पढ़ा. उससे यह निकालने की कोशिश की है,और पाया कि निराला का मन बचपन में भी निराला ही था.

बाल साहित्य के रूप में उनकी पहली रचना भेड़िया है. यह कहानी विभिन्न रूपों प्राय: सभी जानते हैं. इस कहानी का कथ्य इस प्रकार है -

एक चरवाहा लड़का गाँव के जरा दूर पहाड़ी पर भेड़ें ले जाया करता था. उसने मजाक करने के लिए और गाँव वालों पर चड्ढी गांठने की सोची. दौड़ता हुआ गाँव के अन्दर आया और चिल्लाया, भेड़िया, भेड़िया ! मेरी भेड़ों को भेड़िया ले गया.

गाँव की जनता टूट पड़ी. भेड़िया खेदने के लिए हथियार ले लिए. लेकिन उनके दौड़ने और व्यर्थ हाथ-पैर मारने की चुटकी लेता हुआ चरवाहा लड़का आँखों में मुस्कराता रहा. समय-समय पर कई बार उसने यह हरकत की. लोग धोखा खाकर उतरे चेहरे से लौट आते थे.

एक रोज सही-सही उसकी भेड़ों में भेड़िया लगा और एक के बाद दूसरी भेद तोड़ने लगा. डरा हुआ चरवाहा गाँव आया और भेड़िया-भेड़िया चिल्लाया.

गाँव के लोगों ने कहा, ' अबकी बार चकमा नहीं चलने का. चिल्लाता रह.

लड़के की चिल्लाहट की ओर उन लोगों ने ध्यान नहीं दिया. भेड़िये ने उसके दल की कुल भेड़ें मार डालीं, एक को भी जीता नहीं छोड़ा. इस कहानी से नसीहत मिलती है कि जो झूठ बोलने का आदी है, उसके सच बोलने पर भी लोग विश्वास नहीं करते.

इस कहानी के माध्यम से सूर्य कान्त का बचपन जाना जा सकता है. उनका जीवन बहुत ही निष्कपट रहा. उन्होंने झूठ बोलने का परिणाम जान लिया था. इसलिए अपने से बड़ों के सामने वे सदा सत्य स्वरुप में ही आते रहे. उनकी कविताओं सहित अन्य रचनाओं में भी यह दिखाई देता है. अपनी इस कहानी के माध्यम से वे आने वाली पीढ़ी के बच्चों को भी यह सन्देश देना चाहते हैं कि मजाक में भी अपने बड़ों से झूठ नहीं बोलना चाहिए, अन्यथा उसका बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ता है.

सूर्यकांत त्रिपाठी की दूसरा बाल साहित्य गधा और मेढक है. यह भी बहुत ही प्रेरणास्पद है. यह कहानी निराला जी के साहित्य में भी चरितार्थ होती है. उस कहानी का मूल कथ्य इस प्रकार है - एक गधा लकड़ी का भरी बोझ लिए जा रहा था. वह एक दलदल में गिर गया. वहां मेढकों के बीच जा लगा. रेंकता और चिल्लाता हुआ वह उस तरह साँसें भरने लगा, जैसे दूसरे ही क्षण मर जाएगा.

आखिर को एक मेढक ने कहा, 'दोस्त जबसे तुम इस दलदल में गिरे हो, ऐसा ढोंग क्यों रच रहे हो? मैं हैरत में हूँ, जबसे हम यहाँ हैं, अगर तबसे तुम होते तो न जाने क्या करते?

हर बात को जहाँ तक हो, सवारना चाहिए. हमसे भी बुरी हालत वाले दुनिया में हैं.

इस कहानी के माध्यम से वे बच्चों को यह शिक्षा देते हैं कि हर बच्चे का जन्म अलग-अलग हालात के बच्चों के बीच हुआ है. इसलिए उन्हें अपने जीवन के हर पहलू को जहाँ तक संभव हो, सवारना चाहिए. इस बात को हमेशा ध्यान रखना चाहिए कि इस दुनिया में हमसे अधिक आभावग्रस्त लोग हैं. निराला जी का पूरा जीवन अभावों में बीता. पर जब-जब मौका मिला, उन्होंने अपना सब कुछ उन लोगों के ऊपर न्योछावर कर दिया, जो उनसे कहीं अधिक अभावग्रस्त थे.

निराला जी अपने जीवन में कभी भी कंजूस नहीं रहे. अकिंचन होते हुए भी उनसे बड़ा कोई दानी नहीं था. वे धन और उसके उपभोग पर विश्वास करते थे. उनका मानना था कि यदि आपके पास खूब धन है, तो उस धन का सदुपयोग करना चाहिए. उसका संचय नहीं करना चाहिए. उनके जीवन के हर वय में यह दिखाई देता है. कंजूस और सोना कहानी में उनके जीवन का यह पक्ष भी उजागर होता है. इस कहानी का सम्पूर्ण कथ्य देखिये- एक आदमी था, जिसके पास काफी जमीदारी थी, मगर दुनियां की किसी दूसरी चीज से सोने की उसे अधिक चाह थी. इसलिए पास जितनी जमीन थी, कुल उसने बेच डाली और उसे कई सोने के टुकड़ों में बदला. सोने के इन टुकड़ों को गला कर उसने बड़ा गोला बनाया और उसे बड़ी हिफाजत से जमीन में गाड़ दिया. उस गोले की उसे जितनी परवाह थी, उतनी न बीबी की थी, न बच्चे की, और न खुद अपनी जान की. हर सुबह वह उस गोले को देखने के लिए जाता था और यह मालूम करने के लिए कि किसी ने उसमे हाथ नहीं लगाया, वह देर तक नजर गडाए उसे देखा करता था.

कंजूस की इस आदत पर एक दूसरे की निगाह गयी. जिस जगह वह सोना गडा था, धीरे-धीरे वह ढूढ़ निकाली गयी. आखिर में एक रात किसी ने वह सोना निकाल लिया.

दुसरे रोज सुबह को कंजूस अपनी आदत के अनुसार सोना देखने के लिए गया, मगर जब उसे वह गोला दिखाई न पड़ा, तब वह गम और गुस्से में जामे से बाहर हो गया.

उसके एक पड़ोसी ने पूछा, 'इतना मन क्यों मारे हुए हो? असल में तुम्हारे पास कोई पूंजी नहीं थी, फिर वह कैसे तुम्हारे हाथ से चली गयी?तुम सिर्फ एक शौक ताजा किये हुए थे कि तुम्हारे पास पूंजी थी. तुम अब भी ख्याल में लिए रह सकते हो, कि वह माल तुम्हारे पास है. सोने के उस पीले गोले की जगह उतना ही बडा पत्थर का एक टुकड़ा रख दो और सोचते रहो कि वह गोला अब भी मौजूद है. पत्थर का वह टुकड़ा तुम्हारे लिए सोने का गोला ही होगा. क्योंकि उस सोने से तुमने सोने वाला काम नही लिया. अब तक वह गोला तुम्हारे काम नहीं आया. उससे आँख सेकने के सिवा काम लेने की तुमने सोची ही नहीं.

यदि आदमी धन का सदुपयोग न करे, तो उस धन की कोई कीमत नहीं.

अंत में निराला जी बच्चों को संबोधित करते हुए कहते हैं कि यदि आपके पास धन है तो उसका अनुचित संचय न करें, अन्यथा उस धन का कोई मूल्य नहीं रह जाएगा.

दो घड़े, उनके जीवन का जीता-जागता उल्था है, यदि यह कह दिया जाये तो अतियुक्ति नहीं होगी. यह बात उन्होंने अपने बचपन से ही महसूस की थी. वे इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि इस समाज में लोगों की स्थिति मिटटी और पीतल के घड़े जैसी ही है. नहीं चाहते हुए भी पीतल प्रकृति के लोगों के टकराने से मिटटी के लोदे से बने घड़े का ही नुक्सान होता है. अपने बचपन में इस तरह का अनुभव बारम्बार निराला जी को हुआ था. इस कहानी का मूल कथ्य भी देखिये - एक घड़ा मिटटी का बना था, दूसरा पीतल का. दोनों नदी के किनारे रखे थे. इसी समय नदी में बाढ़ आ गयी, बहाव में दोनों घड़े बहते चले. बहुत समय मिटटी के घड़े ने अपने को पीतलवाले से काफी फासले पर रखना चाहा.

पीतल वाले घड़े ने कहा, 'तुम डरों नहीं दोस्त, मैं तुम्हे धक्के नहीं लगाऊंगा.'

मिटटी वाले ने जवाब दिया, 'तुम जान-बूझ कर मुझे धक्के न लगाओगे, सही है, मगर बहाव की वजह से हम दोनों जरूर टकरायेंगे. अगर ऐसा हुआ तो, तुम्हारे बचाने पर भी मैं तुम्हारे धक्कों से न बच सकूंगा और मेरे टुकडे-टुकडे हो जायेंगे. इसलिए अच्छा है कि हम दोनों अलग-अलग रहें. जिससे तुम्हारा नुक्सान हो रहा हो, उससे अलग ही रहना अच्छा है, चाहे वह उस समय के लिए तुम्हारा दोस्त भी क्यों न हो.

इस कहानी के माध्यम से निराला जी बच्चों को यही समझाना चाहते हैं कि किस प्रकार की मिटटी या धातु से तुम्हारी रचना हुई है, उसे पहचानों, और पीतल प्रकृति के लोगों से दोस्ती भी मत करो, दुश्मनी भी मत करो. उनसे दूर रहो, जिससे तुम्हारा अस्तित्व खतरे में न पड़े.

सूर्यकांत त्रिपाठी ने बचपन में ही जान लिया था, जो व्यक्ति पुरुषार्थ करता है, उसी की सहायता भगवान् भी करते हैं. इसलिए वे अपनी क्षमता से अधिक मेहनत करते रहे. युक्ति लगाते रहे. महाबली हनुमान को कथ्य बनाकर इस कहानी में यही कहने की कोशिश की है. इस कहानी का कथ्य देखिये - एक गाड़ीवान अपनी गाड़ी लिए हुए जा रहा था. गली में कीचड़ था. गाड़ी के पहिये एक खंदक में धंस गये. बैल पूरी ताकत लगाकर भी पहियों को निकाल न सके. बैलों को जुए से खोल देने की जगह ऊंचे स्वर में चिल्ला-चिल्लाकर इस बुरे वक्त में देवताओं की मदद मांगने लगा कि वे उसकी गाड़ी में हाथ लगायें. उसी समय सबसे बली देवता महावीर गाड़ीवान के सामने आकर खड़े हो गये, क्योंकि उसने उनका नाम लेकर कई दफे पुकारा था.

उन्होंने कहा, 'अरे आलसी आदमी! पैंजनी से अपना कन्धा लगा, और बैलों को बढ़ने के लिए ललकार. अगर इस तरह गाडी नहीं निकली, तब तेरा काम देवताओं को पुकारना होता है. क्या तुम्हारे विचार में यह आता है कि जब तुम खड़े हो, उन्हें तुम्हारे लिए काम करना पड़ता है?यह अनुचित है. जो अपने मदद करता है, ईश्वर उसी की मदद करते हैं.

इस कहानी के माध्यम से निराला जी निराले अंदाज में बच्चों को संस्कारित करते हैं. पुरुषार्थ पर अधिक बल देने के लिए कहते हैं. भाग्य के भरोसे बैठने की सलाह नहीं देते हैं. परिश्रम करने की सलाह देते हैं. वह भी युक्ति युक्त परिश्रम की सलाह देते हैं. बैल बनने की सलाह नहीं देते.

शिकार को निकला शेर, इस कहानी के माध्यम से निराला जी ने यह जतलाने की कोशिश की है कि समर्थ लोग जो कुछ करते हैं, उसमें से हिस्सा मिलेगा, यह कभी नहीं सोचना चाहिए. किसी के साथ भ्रमण कर अपना समय यूँ ही व्यर्थ में नहीं गवाना चाहिए. उससे कुछ नहीं मिलने वाला है. सूर्यकांत ने अपने बालपन में यह किया. वे अपने गाँव के धनी माने जाने वाले, समर्थ दिखने वाले बच्चों के साथ संग किया. और थोड़े ही दिनों में यह जान लिया कि यह संग उनकी प्रकृति के अनुकूल नहीं है. हमें अपने आप को इतना सक्षम बनाना चाहिए कि अपने उदर पूर्ति की सामर्थ्य हममें खुद ही पैदा हो सके. बाकी के भाव इस कहानी के मूल कथ्य से समझने की कोशिश कीजिये - एक शेर एक रोज जंगल में शिकार के लिए निकला. उसके साथ एक गधा और कुछ दूसरे जानवर थे. सब के सब यह मत ठहरा कि शिकार का बराबर हिस्सा लिया जायेगा. आखिर एक हिरन पकड़ा और मारा गया. जब साथ के जानवर हिस्सा लगाने चले, शेर ने धक्के मार कर उन्हें अलग कर दिया और कुल हिस्से छाप बैठा.

उसने गुर्रा कर कहा, 'बस हाथ हटा लो. यह हिस्सा मेरा है. क्योंकि मैं जंगल का राजा हूँ और यह हिस्सा इसलिए मेरा है, क्योंकि मैं इसे लेना चाहता हूँ और यह इसलिए कि मैंने बड़ी मेहनत की है. और एक चौथे हिस्से के लिए तुम्हे मुझसे लड़ना होगा, अगर तुम इसे लेना चाहोगे. खैर उसके साथी न तो कुछ कह सकते थे, न कर सकते थे, जैसा अक्सर होता है. शक्ति सत्य पर विजय पाती है, वैसा ही हुआ.

विजय हमेशा शक्ति की ही होती है. इसलिए हर भारतीय को कम से कम इतना शक्तिशाली तो बनना ही चाहिए कि वह अपने भरण-पोषण की जुगाड़ खुद कर सके. दूसरे पर अवलंबित न रहे.

सौदागर और कप्तान कहानी के माध्यम से निराला ने यह बताने की कोशिश की है कि हर मनुष्य के जीवन में विपत्ति आना स्वाभाविक है. यह प्रक्रिया प्रकृति व्यक्ति के मन को सुदृढ़ करने के लिए बारम्बार प्रयत्न करती है. निराला का पूरा जीवन ही विपत्तिमय रहा. पर निराला जी के मन में कभी भी नकारात्मकता का भाव नहीं आया. हर विपत्ति के बाद वे नए उत्साह और जोश के साथ आगे बढ़ते गये. कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. आगे बढ़ते गये. उनकी साहित्यिक रचनाओं को देख कर हम आकलन कर सकते हैं, अपने पूरे जीवन विपत्ति का सामना करने वाला निराला को विपत्ति कभी भी निराश करने में सफल नहीं हुई. बचपन से ही वे बहुत ही मजबूत दिल के रहे. कभी भी पीछे नहीं हटे. इस कहानी के मूल कथ्य से भी यही बात प्रमाणित होती है. इस कहानी को अपने मूल रूप में देखिये - एक सौदागर समुद्री यात्रा कर रहा था. एक रोज उसने जहाज के कप्तान से पूछा, कैसी मौत से तुम्हारे बाप मारे?

कप्तान ने कहा, ' जनाब मेरे पिता, मेरे दादा, और मेरे परदादा समुद्र में डूब मारे.

सौदागर ने कहा, तो बार-बार समुद्र में यात्रा करते हुए तुम्हे समुद्र में डूबकर मरने का खौफ नहीं होता?

बिलकुल नहीं, कप्तान ने कहा. जनाब कृपा करके बतलाइये कि आपके पिता, दादा, परदादा की मौत के घाट उतरे?

सौदागर ने कहा, जैसे दूसरे लोग मरते हैं, वे पलंग पर सुख की मौत मारे.

कप्तान ने जवाब दिया, 'तो आपको पलंग पर लेटने का जितना खौफ होना चाहिए, उससे ज्यादा मुझे समुद्र में जाने का नहीं.'

विपत्ति का अभ्यास पड जाने पर वह हमारे लिए रोजमर्रा की बात बन जाती है.

सूर्यकांत निराला के सम्पूर्ण साहित्य को देख कर हम यह कह सकते हैं कि बाल साहित्य रचने में भी उन्हें उतनी ही सफलता मिली है, जितना साहित्य संबंधी रचनाओं में. बाल साहित्य में उन्होंने अपना पूरा बालपन-बालमन उलेड़ दिया है. इसके आधार पर उनके बचपन की प्रवृत्तियों की कल्पना की जा सकती है. उनका बचपन भी जाना जा सकता है.

प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव

विश्लेषक, भाषाविद, वरिष्ठ गांधीवादी-समाजवादी चिंतक व पत्रकार

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