Janta Ki Awaz
भोजपुरी कहानिया

बहे पुरवइया रे ननदी....

बहे पुरवइया रे ननदी....
X


पिछले सप्ताह भर से पुरुवा हवा चलने लगी है। हवा के साथ एक-आध औछार बारिश भी रोज हो ही जाती है। मेरे जैसे किसी ठेठ देहाती के लिए हवा के साथ नाचते धान के पौधों का बारिश में भीगना लगभग वैसा ही है, जैसे यश चोपड़ा की फिल्मों में बारिश में भीगती नायिका... सच कहूँ तो बारिश में नहा रही फसल हम देहातियों में झरने के नीचे खड़ी किसी मंदाकिनी से हजार गुना अधिक मादकता भर देती है। अपने खेत की बासमती चावल जब चूल्हे पर महक छोड़ती है, तो उसके आगे क्या सिरिदेवी और क्या हेमा मालिन...

अरे छोड़िये यह सब! भादो अब समाप्त ही होने को है। आसमान नहा चुका है, प्रदूषण का मैल पूरी तरह साफ हो चुका है। अब यदि कभी बादल न हो तो रात में छत पर लेट कर आसमान निहारिये, इस सृष्टि में आसमान से अधिक सुन्दर कुछ भी नहीं। मुझे याद है, बचपन में बाबा मुझे पचासों तारों से यूँ ही परिचय करा दिए थे। शुकवा(शुक्र ग्रह), सतहवा(सप्तर्षि), ध्रुवतारा, मिचमीचवा, तीनतारा... जाने कितने। रात को नींद खुलने पर आसमान देख कर ही सटीक समय बता देने वाले लोग अब भी समाप्त नहीं हुए, हर गाँव में बचे हुए हैं। हाँ यह तय है कि दस-बीस साल के बाद एक भी नहीं मिलेंगे। आप ही याद कीजिये न, कितने तारों को पहचानते हैं आप? या आपका बच्चा ही शुक्र को पहचानता है क्या?

बात शुरू हुई थी पुरुआ पर... भाई साहब! विरह की पीड़ा वही जानता है जिसने प्रेम किया हो, मुझ जैसे लेखक-कवि तो केवल कल्पनाओं का झूठ परोसते हैं। सच पूछिए तो पुरुआ का असली अर्थ वह व्यक्ति जानता है, जिसने जीवन में कभी पुलिस की मार खाई हो। दूसरों के लिए पुरुआ के अनेक अर्थ होंगे पर उसके लिए पुरुआ का एक ही अर्थ है, अंग-अंग से उठती मीठी पीर... जो धीरे धीरे पूरे शरीर में पसर कर उतना ही दर्द देती है जितना मार खाते समय हुआ होगा। पुलिस मारती है एक बार, पर आदमी रोता है बार-बार... जब जब पुरुआ बहती है, मुस्का मुस्का के कहती है, डार्लिंग इलू इलू...

आदमी पीर कहे तो किससे कहे? रोये तो क्या कह के रोये? गाँव की महिलाएं तो दर्द उपटने पर गीत गा गा के रो लेती थीं, "रतिया... नतिया... कवना सवतिया... के बतिया... सुन के... छतिया के बतिया... तुरलस रेssss लाs लाs बोsss...."

पर पुरुष क्या करे? वह पड़ोसियों को, मित्रों को गालियां देता है। जानकार लोग समझ जाते हैं कि पुरुआ का असर है। अगर कोई व्यक्ति आपको यूँ ही गाली दे रहा हो तो समझ जाइये कि बेचारे का दर्द उपट गया है। मेरा एक पुराना दोस्त है। खैर छोड़िये!

मैंने एक बार पूछा, "अच्छा बता! हवा बहती है कि हवा बहता है?" मित्र बोला, "न हवा बहती है, न हवा बहता है... अहह! हवा बहह..."

अरे यार! फिर बहक गए। असल में कल खेतों की ओर निकले तो देखा, धान के खेत से कोई नई उमर का किसान घास उखाड़ रहा था। मेड़ पर रखे उसके चाइनीज मोबाइल में मदन राय का सुपरहिट गीत बज रहा था, "बहे पुरवइया रे ननदी, पवनवा करे झकझोर.... दरोगा जी के तुरल देहिया, दरदिया उठे पोरे पोर..."

सुख और क्या होता है जी?

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

Next Story
Share it