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तो क्या नये श्रम कानून के हिमायती हैं पत्रकार ?

तो क्या नये श्रम कानून के हिमायती हैं पत्रकार ?
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केंद्र सरकार की श्रमिक विरोधी नीतियों के खिलाफ संयुक्त ट्रेड यूनियन संघर्ष समिति के आह्वान पर सरकारी, अर्द्धसरकारी व निजी क्षेत्रों में काम करने वाले श्रमिकों व कर्मचारियों ने पूरे देश में दो दिवसीय (28-29 मार्च 22) हड़ताल की। इस हड़ताल में विभिन्न राजनीतिक दलों के श्रमिक संगठनों, बैंक, बीमाकर्मी, आंगनबाड़ी कार्यकर्ता, भोजनमाताएं, रेल, एयर इंडिया, पोस्टर एंड टेलीग्राफ से श्रमिकों ने हिस्सा लिया। यहां तक कि, सत्तारूढ़ पार्टी से सम्बद्ध भारतीय मजदूर संघ भी शामिल रहा। अगर कोई शामिल नहीं था पत्रकार और पत्रकारों का संगठन। उनके संगठनों ने इस आंदोलन को अपना समर्थन तक नहीं दिया।

यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि, अपने देश में सभी पत्रकार श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम 1956 से आच्छादित हैं। यही नहीं गैर पत्रकार (मशीन, विज्ञापन, सर्कुलेशन विभाग में काम करने वाले) भी इस कानून के तहत आते हैं।

गौरतलब है कि, यदि अखबार मालिकों और श्रमिकों के बीच कोई विवाद होता है तो वो लोअर कोर्ट या सीधे हाई कोर्ट नहीं जाता। अपने-अपने प्रदेशों के श्रम विभाग के जरिए लेबर कोर्ट जाता है। ध्यान देने वाली बात यह भी है कि, बैंक, बीमा, रेलवे में कार्यरत श्रमिकों की तुलना में अखबार में काम करने वालों का शोषण ज्यादा नहीं तो कम भी नहीं होता फिर भी पत्रकार और पत्रकार संगठनों ने इस आंदोलन से दूरी बनाए रखी। जो कि उनके स्वभाव में है।

बताते चलें कि, श्रम संविधान की समवर्ती सूची में शामिल होने के बाद भी केंद्र सरकार ने बड़ी संख्या में इस कानून की धाराएं समाप्त कर दीं। नये कानून के तहत 144 की जगह मात्र चार धाराएं ही अस्तित्व में रहेंगी। यानी इस सरकार की नजर में 140 धाराएं फालतू की हैं। इन श्रम कानूनों को समाप्त कर देने से श्रमजीवी पत्रकार अधिनियम की बहुत सी धाराएं/उप धाराएं भी आएंगी। मसलन 1975 में देश की सर्वोच्च अदालत ने फैसला दिया था कि, 240 दिन काम करने वाले श्रमिकों को स्थाई करना अनिवार्य होगा। नये कानून ने श्रमिकों के इस बुनियादी हक को भी छीन लिया। 'फिक्स टर्म एम्प्लायमेंट (निश्चित अवधि रोजगार) नाम से काम का एक नया स्वरूप पैदा किया गया है। इसके तहत मालिक श्रमिकों से करार कर लेगा। करार के बाद श्रमिकों के पास अपनी लड़ाई लड़ने का कानूनी अधिकार भी नहीं रहेगा। जैसे दैनिक हिन्दुस्तान सहित देश के अधिकतर अखबारों में है। अब यह तो नहीं मालूम की प्रिंट मीडिया में ठेका का चलन किस घराने ने शुरू किया। 90 के दशक में जब लखनऊ से इस समाचार पत्र का संस्करण शुरू हुआ तो इसने लगभग दोगुना सैलरी पर कर्मचारियों की नियुक्ति की। तीन साल का करार किया। जब उनसे आंधी पगार पाने वाला नियमित कर्मचारी अपनी बात रखता तो दलील देते कि, ढाई साल काम करो, छह महीने ' तेलाही ' कान्ट्रैक्ट रिन्यू हो जाएगा। बाद में इसी संस्थान ने एक साल के करार पर नौकरी दी और 2005-2006 के आसपास सभी को कान्ट्रैक्ट पर कर दिया। यानी नियमित कर्मचारी भी ठेकाकर्मी हो गये। आज की तारीख में दैनिक हिन्दुस्तान में एक भी कर्मचारी नियमित नहीं है।

कुल मिलाकर नया श्रम कानून पूरी तरह से मालिकों के हित में है।





अरुण श्रीवास्तव,

देहरादून।

8218070103

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