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भगत सिंह ही क्यों...

भगत सिंह ही क्यों...
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अरुण श्रीवास्तव

अगर भगतसिंह गांधी, नेहरू, पटेल व अपने समय के अन्य नेताओं/आंदोलनकारियों की तरह लंबा राजनीतिक जीवन पाया होता तो इन सबसे कोसों आगे होते। 1919 में जलियांवाला बाग की घटना ने भगतसिंह के बालपन पर गहरा छाप छोड़ा।

1920 में अपनी पढ़ाई छोड़कर गांधी जी के अहिंसा आंदोलन में शामिल हुए। 1921 के चौरीचौरा में किसानों की हत्या का जब गांधी जी ने विरोध नहीं किया, किसानों का साथ नहीं दिया तो भगतसिंह का मोह गांधी जी से भंग हुआ।

1925 में साथियों के साथ अपनी पहली क्रांतिकारी घटना काकोरी कांड को अंजाम दिया था। अप्रैल 1929 में असेंबली में बम फेंका। 31 मार्च 1931 को फांसी दे दी गई। भगत सिंह दो साल जेल में रहे। जेल में अंग्रेजों की हुकूमत भयंकर उत्पीड़न झेला। वो टूटे नहीं बल्कि वैचारिक रूप से और मजबूत हुए। अपनी गिरफ्तारी से पहले और बाद में यानी जेल में दुनिया के तमाम क्रांतियों, क्रांतिकारियों के जीवन को किताबों के जरिए जाना और कार्ल मार्क्स-लेनिन के जीवन दर्शन को न केवल आदर्श बनाया बल्कि अमल भी किया। खाली समय में उन्होंने व्यापक अध्ययन किया न कि पूजा-पाठ। न वे गीता कि शरण में गए। ' मैं नास्तिक क्यों' नामक लेख/पुस्तिका के जरिए उन्होंने खुद के नास्तिक होने की वजह बताई। मार्क्सवाद के प्रति उनके जुड़ाव का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि, फांसी के अंतिम दिनों में वे लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। फांसी के लिए जब उन्हें जेल के कर्मचारी ले जाने के लिए आया तो उनके बोल (भगत सिंह पर बनी फ़िल्मों के अनुसार) तो उन्होंने कहा ' अभी रुको इस वक्त एक क्रांतिकारी दूसरे क्रांतिकारी से मिल रहा है।

उनकी राजनीतिक समझ का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि, अदालत में सुनवाई के दौरान उन्होंने नारा लगाया, ' अप-सोशलिजम डाउन-डाउन कैप्टिलिजम'। इस नारे को न केवल उनके साथ बंद अन्य क्रांतिकारियों ने दोहराया बल्कि अदालत में मौजूद लोगों ने भी नारे लगाकर समर्थन किया। सुनवाई के दौरान ही उन्होंने जज/जूरी से कहा (हाथ जोड़कर नहीं आक्रोशित होकर) " बंद करिए सुनवाई का नाटक, हमें गोली मारिए"। यही नहीं उनके पिता ने उनकी रिहाई के लिए अंग्रेज हुकूमत को पत्र लिखा। जब उन्हें जानकारी हुई तो वे अपने पिता पर बहुत नाराज़ (यह सब भगत सिंह पर बनीं विभिन्न फिल्मों व पुस्तकों से) हुए। यूं तो भगत सिंह के पहले और बाद में तमाम लोगों को फांसी दी गई। भारत में और विदेशों में भी पर शायद ही किसी को तय तिथि से पहले और रात में फांसी दी गई हो।

गौरतलब है कि, उनका सक्रिय राजनीतिक जीवन मात्र चार साल का ही था। इन चार सालों में उन्होंने इतनी जबरदस्त शोहरत हासिल की उतनी कोई 44 साल के राजनीतिक में भी हासिल नहीं कर सका।

अरुण श्रीवास्तव





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