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लोहिया ने कल्पना की थी गैर-कांग्रेस वाद की, सप्तक्रांति के सूत्र

लोहिया ने कल्पना की थी गैर-कांग्रेस वाद की, सप्तक्रांति के सूत्र
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देश में गैर कांग्रेसवाद की अलख जगाने वाले महान स्वतंत्रता सेनानी और समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया चाहते थे कि दुनिया भर के सोशलिस्ट एकजुट होकर मजबूत मंच बनाएं। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रो. तुलसी राम कहते हैं कि लोहिया भारतीय राजनीति में गैर कांग्रेसवाद के शिल्पी थे और उनके अथक प्रयासों का फल था कि 1967 में कई राज्यों में कांग्रेस की पराजय हुई, हालांकि केंद्र में कांग्रेस जैसे तैसे सत्ता पर काबिज हो पायी। तुलसी राम ने कहा कि हालांकि लोहिया 1967 में ही चल बसे लेकिन उन्होंने गैर कांग्रेसवाद की जो विचारधारा चलायी उसी की वजह से आगे चलकर 1977 में पहली बार केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकारी बनी। उन्होंने कहा कि लोहिया मानते थे कि अधिक समय तक सत्ता में रहकर कांग्रेस अधिनायकवादी हो गयी थी और वह उसके खिलाफ संघर्ष करते रहे।

23 मार्च 1910 को उत्तर प्रदेश में फिरोजाबाद जिले के अकबरपुर में जन्मे राम मनोहर लोहिया मैटि्रक की परीक्षा में प्रथम आने के बाद इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय गए। उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से स्नातक की शिक्षा ली। बहुत कम उम्र में ही उनकी मां गुजर गयीं। वह अपने पिता हीरालाल के माध्यम से स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े। हीरालाल अपने पुत्र को कई विरोध प्रदर्शनों में ले गए। लोकमान्य तिलक के निधन पर छोटी हड़ताल आयोजित कर लोहिया ने स्वतंत्रता आंदोलन में अपना पहला योगदान दिया। पिता के माध्यम से ही वह गांधीजी से मिले। गांधीजी ने उनके जीवन पर गहरा असर डाला। वह महज दस साल की उम्र में गांधीजी के सत्याग्रह से जुड़े। बाद में वह जवाहरलाल नेहरू से मिले और उनसे उनकी निकटता बढ़ गयी। हालांकि आगे चलकर उन्होंने कई मुद्दों पर नेहरू से भिन्न राय रखी। जिनिवा में लीग ऑफ नेशंस सभा में भारत का प्रतिनिधित्व ब्रिटिश राज के सहयोगी बीकानेर के महाराजा की ओर से किए जाने पर लोहिया ने कड़ी आपत्ति जतायी। अपने इस विरोध का स्पष्टीकरण देने के लिए अखबारों और पत्रिकाओं में उन्होंने कई पत्र भेजे। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान लोहिया रातोंरात चर्चा में आ गए।

भारत लौटने के बाद वह कांग्रेस में शामिल हो गए। वह समाजवाद की ओर आकर्षित हुए और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना में मदद की। उन्होंने कांग्रेस के अंदर ही विदेश मामले से संबंधित एक अलग विभाग बनाया और नेहरू ने उन्हें उसका प्रथम सचिव बनाया। वर्ष 1940 में उन्होंने 'सत्याग्रह अब' आलेख लिखा और उसके छह दिन बाद उन्हें दो साल की कैद की सजा हो गयी। मजिस्ट्रेट ने उन्हें सजा सुनाने के दौरान उनकी खूब सराहना की। जेल में उन्हें खूब यातना दी गयी। दिसंबर, 1941 में वह रिहा कर दिए गए। आजादी के बाद लोहिया राजनीति में काफी सक्रिय रहे। स्वतंत्रता बाद के कई सालों तक कांग्रेस सत्तासीन रही। उन्होंने कांग्रेस का पुरजोर विरोध किया और गैर कांग्रेसवाद की अलख जगायी। वह प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के महासचिव थे। उन्होंने आगे चलकर विश्व विकास परिषद बनायी। जीवन के आखिरी वर्षों में वह राजनीति के अलावा साहित्य से लेकर राजनीति एवं कला पर युवाओं से संवाद करते रहे। वह 12 अक्तूबर, 1967 को इस दुनिया से चल बसे।

लोहिया के चिंतन और कर्म में स्वराज, लोकतंत्र, समता और प्रगतिशील परिवर्तनों का संगम था। वह अपने दौर के सर्वाधिक सुशिक्षित व्यक्ति थे। संस्कृत, हिंदी, उर्दू, बांग्ला, मराठी, गुजराती, और तेलुगु जैसी देशी भाषाओं और अंग्रेजी, जर्मन और फ्रेंच जैसी विदेशी भाषाओं के जानकार थे। अर्थशास्त्र, दर्शन, इतिहास, पारंपरिक और आधुनिक साहित्य, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान और राजनीतिशास्त्र का देश-विदेश के श्रेष्ठ विद्या-संस्थानों में उच्च अध्ययन किया था। वह राष्ट्रीय आंदोलन की गांधी-नेहरू-सुभाष परंपरा से जुड़ी कांग्रेस समाजवादी धारा के नायक मंडल के सबसे कम उम्र के सदस्य थे। उन्हें अपने सपनों के लिए ब्रिटिश राज, पुर्तगाली शासन, नेपाली राणाशाही, अमरीकी सरकार, और कांग्रेस सरकार द्वारा गिरफ्तारी झेलनी पड़ी।

फिर भी उनको अपने जीवनकाल मे कई प्रकार के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा : 1. विदेशी और देशी सत्ता-व्यवस्था, 2. पूंजीवादी और साम्यवादी विचार अनुयायियों, 3. समाजवादी आंदोलन और संगठन के परंपरावादी तत्त्व, 4. पश्चिम-उन्मुख विद्या-प्रतिष्ठान, 5. अंग्रेजी वर्चस्व से उपजे मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवियों, और 6. सांप्रदायिक और जातिवादी तत्त्वों ने हमेशा असुविधाजनक माना। खतरा महसूस किया। लगातार निशाने पर रखा। अफवाहों का शिकार बनाया।

सिर्फ यही संतोष की बात कही जा सकती है कि देशभर में अनेक सृजनशील साहित्यकारों और समाजसुधारकों ने उनको प्रेरणा स्रोत के रूप में स्वीकारा। इसीलिए कन्नड़ के यू. आर. अनंतमूर्ति और असमिया के बीरेंद्र्कुमार भट्टाचार्य से लेकर हिंदी के विजयदेव नारायण साही, लक्ष्मीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय और कमलेश तक लोहिया के सोच और सपनों से अनुप्राणित हुए। इसी प्रकार आजादी के बाद के किसान आंदोलन, श्रमिक आंदोलन, महिला आंदोलन, विद्यार्थी आंदोलन, दलित आंदोलन, आदिवासी आंदोलन, भाषा आंदोलन, नागरिक अधिकार आंदोलन और हिमालय बचाओ आंदोलन की नींव में लोहिया का बौद्धिक और राजनैतिक योगदान उल्लेखनीय है। वह गांधी और जयप्रकाश के साथ जोड़ के याद किये जाते हैं। चिंतन, संगठन और कर्म की गांधी-लोहिया-जयप्रकाश की एक धारा बन गई है।

लोहिया के बारे में ऐसी अंतर्विरोधी प्रवृत्ति क्यों कायम हुई है? उनके अग्रज-तुल्य लोकनायक जयप्रकाश नारायण के अनुसार लोहिया की मौलिकता और कर्मठता बहुत आकर्षक थी। वह दूरदृष्टि संपन्न चिंतक थे। लेकिन स्पष्टवादिता, साहस और अधीरता के कारण उनके बारे में आसानी से गलतफहमियां हो जाती थीं। उनके अनुज-तुल्य समाजवादी सहकर्मी मधु लिमये ने लिखा है कि लोहिया बहुत कोमल मन के व्यक्ति थे। लेकिन सार्वजनिक जीवन में कथनी-करनी में अंतर के प्रति गहरी वितृष्णा थी। राजनीतिक स्वार्थों के लिए सिद्धांतों की तोड़-मरोड़ करनेवालों के बारे में वह कोई नरमी नहीं बरतते थे। सभी रिश्ते हमेशा के लिए तोड़ देते थे। इस प्रवृत्ति से उनके परिचितों में प्रशंसकों से जादा आलोचक बनते चले गए। हाल में प्रकाशित 'लोहिया के पत्र रमामित्र के नाम' पुस्तक में सौ से जादा आत्मीय चिट्ठियों में लोहिया के मन-दर्पण की ऐसी ही झलक सामने भी आई है।

लोहिया बनाम लोहिया

इस बारे में डॉ लोहिया ने भी पांच प्रकार का योगदान किया था। एक तो उन्होंने बौद्धिक ईमानदारी के तकाजे के तौर पर कार्ल मार्क्स को यूरोप का महान ऋषि बताया। उनके अनुसार मार्क्सवाद में बदलाव के लिए उत्साह पैदा करने की क्षमता है। इसी तरह वह परमाणु बम और महात्मा गांधी को आधुनिक दुनिया में समान महत्त्व की घटना मानते थे। गांधी ने मानवता को सत्याग्रह के रूप में परमाणु बम के मुकाबले का अस्त्र दिया है। लेकिन फिर भी स्वयं को 'न मार्क्सवादी, न मार्क्स-विरोधी और न गांधीवादी न गांधी-विरोधी' घोषित किया। इसलिए मार्क्सवादी और मार्क्स-विरोधी तथा गांधीवादी और गांधी-विरोधी के रूप में अस्तित्वमान कई प्रबल विचार–समूहों, आंदोलनों और संगठनों ने अपने अनुयायियों को लोहिया से अपरिचित रखा।

दूसरे, विदेशी शासन से मुक्ति का नेतृत्व करने के बावजूद स्वराज के बाद देश को 'मिश्रित अर्थ-व्यवस्था' की गलत दिशा में ले जाने के लिए नेहरू शासन की डॉ. लोहिया द्वारा लगातार आलोचना के कारण नेहरू-भक्तों ने उन्हें मरने के बाद भी निंदा का निशाना बनाया।

तीसरे, लोहिया ने देश में मानसिक स्वराज की स्थापना के लिए भाषा का प्रश्न उठाया। इससे भारतीय शासक वर्ग ने उन्हें 'अंग्रेजी विरोधी' और दक्षिण भारत के क्षेत्रीय दलों ने 'हिंदी साम्राज्यवाद का नायक' करार दिया।

चौथे, उन्होंने 'जाति तोड़ो' के कार्यक्रम चलाकर समूचे प्रभुजाति तंत्र को अपना दुश्मन बना लिया। आज भी अनेक कोनों में लोहिया को भारत में 'जाति का जहर' फैलाने का दोषी बताया जाता है।

पांचवां तथ्य देश की महिलाओं के साथ जारी अन्यायों के खिलाफ उनकी दृष्टि से जुड़ा था। वह वायदाखिलाफी और बलात्कार के सिवाय मर्द-औरत के बीच के हर रिश्ते को जायज मानते थे। पुरुषों ने इसे स्त्रियों के स्वेच्छाचार की वकालत बताया। उन्होंने सभी के लिए समान नागरिक संहिता की मांग की, जिससे बहुपत्नी प्रथा की स्त्री-विरोधी परंपरा ख़तम हो। इसे कुछ कट्टरपंथी मुसलामानों ने कुरआन-विरोधी और इस्लाम विरोधी बताकर चुनाव तक में लोहिया का विरोध किया। इससे न सिर्फ समाजवादी उम्मीदवारों के वोट कम हुए बल्कि स्वयं डॉ लोहिया 1967 में लोकसभा का चुनाव हारते-हारते बचे।

छठे, भारत की बढ़ती दुर्दशा और चौतरफा खतरों से रक्षा के लिए लोहिया ने 1964-67 में गैर-कांग्रेसवाद की रणनीति प्रस्तुत की। इससे 1967 के आम-चुनाव में 'कांग्रेस-हटाओ देश-बचाओ' की लहर चली और कांग्रेस का सत्ता-एकाधिकार समाप्त हुआ। नेहरू-भक्तों और कांग्रेस समर्थकों की निगाह में यह लोहिया का 'अक्षम्य अपराध' था। कांग्रेस और कम्युनिस्ट समूहों में उनको भारत में परिवर्तन की राजनीति के बहाने सांप्रदायिकता की राजनीति को पनपाने का दोषी बताया जाता है।

लोहिया की पीड़ा

यह सब अर्धसत्य आधारित प्रचार था। फिर भी इस सबसे लोहिया का कम नुकसान नहीं हुआ। उनके बारे में गलतफहमियाँ फैलाई गईं। उनकी अनसुनी की गई। उनका अकेलापन और उतावलापन बढ़ा। उनको इसका बेहद अफसोस भी था। इसीलिए उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन को 'असफलताओं का सिलसिला' कहा। उनकी यह आत्मस्वीकृति तो बेहद दुखद थी कि 'लोग मेरी बात सुनेंगे ज़रूर, लेकिन शायद मेरे मरने के बाद!'

लोहिया जैसे दूरदर्शी और नि:स्वार्थ समाजहित-साधक की अनसुनी करने के नफा-नुकसान का हिसाब भविष्य के इतिहासकार ही करेंगे। लेकिन यह स्पष्ट है कि मार्क्सवादी, मार्क्सविरोधी, गांधीवादी और गांधीविरोधी समूहों में कार्यरत व्यक्तियों को लोहिया से दूरी बनाने से कोई लाभ नहीं हुआ है। यह सभी नर-नारी समता की चुनौती, जाति-विमर्श, विश्वव्यापी पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के प्रतिरोध, भाषा स्वराज, राष्ट्रीय नव-निर्माण और दुनिया की न्यायपूर्ण नव-रचना के संदर्भों में लोहिया-दृष्टि में निहित प्रकाश से वंचित रहे।

लोहिया का 'विजय-पर्व'

फिर भी यह कम महत्त्व की बात नहीं है कि ऐसे लोहिया-विरोधी कोलाहल के बीच भी लोहिया की दृष्टि और दिशा के प्रति रुझान क्रमश: बढ़ा। इसमें उनके दौरों, आंदोलनों और गिरफ्तारियों का योगदान था। देशभर में फैले उनके सैकड़ों साहसी सहयोगियों का संबल था। वैचारिक स्तर पर बद्रीविशाल पित्ती द्वारा प्रकाशित लोहिया साहित्य मददगार रहा। अपने कुल 57 बरस की जीवनयात्रा के अंतिम वर्षों में 53 से 57 बरस की उम्र के बीच बेहद प्रभावशाली सिद्ध हुए।

1963 में लोहिया कांग्रेस की किलेबंदी को ढहाकर नेहरूजी के जीवनकाल में ही जनता के बहुमत की पसंद बनकर संसद में पहुंचे और कुछ ही महीनों में परिवर्तन की राजनीति के सूत्रधार बने। पुराने संबंधों के टूटे तार जोड़ने में जुटे। पटना में जयप्रकाश नारायण और चेन्नई में राजगोपालाचारी से लेकर कांग्रेस के भोला पासवान शास्त्री और केशवदेव मालवीय, भारत सुरक्षा अधिनियम में बंदी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट नेता ए. के. गोपालन, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के एस. एम. जोशी और कर्पूरी ठाकुर, भारतीय जनसंघ के दीनदयाल उपाध्याय और नानाजी देशमुख और गोहत्या के लिए आमरण अनशन कर रहे प्रभुदत्त ब्रह्मचारी से बातचीत की।

तिब्बती स्वराज संघर्ष, नेपाली लोकतांत्रिक आंदोलन, पख्तूनिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान की अस्मिता की लड़ाई, अमरीका में रंगभेद विरोध, रूस के महानायक स्टालिन की बेटी स्वेतलाना की मदद के लिए देश की संसद के मंच को सुलभ कराया। स्वयं काबुल जाकर देश के बंटवारे के बाद से लगातार नजरबंदी और निर्वासन का कष्ट सह रहे खान अब्दुल गफ्फार खान से भेंट की। सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप की यात्रा की।

यह सब विस्तार से 'लोकसभा में लोहिया' के 16 खंडों में प्रकाशित हो चुका है। उनसे परिचित होने में इंदुमति केलकर रचित लोहिया-जीवनी बेहद उपयोगी रचना सिद्ध हुई है। इसी प्रकार उनके निधन के तीन दशक बाद ही सही, लेकिन समाजवादी विचारक मस्तराम कपूर द्वारा हिंदी और अंग्रेजी में 9 खंडों में संपादित लोहिया रचनावली भी एक स्थायी स्रोत के रूप में उपलब्ध है। हिंदी रचनाकार गिरिराज किशोर द्वारा संपादित 'लोहिया के सौ बरस' और के. विक्रम राव और प्रदीप सिंह द्वारा संयोजित 'लोहिया संचयिता' लोहिया की दुनिया में प्रवेश के लिए उपयोगी संकलन हैं। इससे लोहिया को समझने के लिए 'लोहियावादियों' के चश्मों की अनिवार्यता नहीं रही। लोहिया को अपने अनुयायियों के पाप-पुण्य से छुटकारा मिला है।

हर मौलिक चिंतक और क्रांतिकारी समाज नायक की तरह लोहिया की विरासत के भी अबतक की आधी शताब्दी में कई दावेदार हुए। लोहियावादियों ने उनके दर्शन, सिद्धांतों और कार्यक्रमों का अपनी-अपनी सुविधा से आधा-अधूरा अनुकरण किया। नि:स्संदेह इससे लोहिया की छवि धुंधली हुई है। लेकिन लोहिया की स्मृति की निरंतरता के पीछे उनके विचारों, संघर्षों और सपनों का योगदान है। उनके अधिकांश विचार और आंदोलन देश-दुनिया की कई मूल समस्याओं और दीर्घकालीन चुनौतियों से जुड़े थे। इसलिए देश-काल-व्यक्ति की सीमाओं के आगे भी उनकी आभा बनी हुई है।

बनारस, मुंबई, कोलकाता और बर्लिन में सुशिक्षित डॉ लोहिया ने कंचन-कामिनी-कुर्सी-कामयाबी के मायावी चतुर्भुज से निर्लिप्त कर्मयोगी का जीवन अपनाया था। इसीलिए देश-दुनिया की बेहतरी के लिए मौलिक चिंतन और अनूठे आंदोलनों का आकर्षक संगम बनकर जिए लोहिया के बारे में कई विशेषणों का इस्तेमाल किया जाता है : तेजस्वी स्वतंत्रता सेनानी; 'भारत छोडो आंदोलन' के साहसी नायक; 'गोवा के गांधी'; नेपाली लोकतंत्र के मंत्रदाता; सिक्किम सहयोगी; मणिपुर मित्र; 'हिमालय बचाओ-तिब्बत बचाओ' के आवाहक; 'अंग्रेजी हटाओ' के नायक; 'जाति-तोड़ो' के सिद्धांतकार; नर-नारी समता के पक्षधर; 'दाम-बांधो' के अर्थशास्त्री; हिन्द-पाक महासंघ के पथ-प्रदर्शक; रामायण मेला के आयोजक; 'कांग्रेस हटाओ' के रणनीतिकार; सत्याग्रही समाजवाद के महासाधक; भारतमाता के पुजारी; धरतीमाता के सुपुत्र; वसुधैव कुटुम्बकम के प्रकाश-स्तम्भ!

सप्तक्रांति के सूत्र

कई कारणों से अब 21वीं सदी आधे-अधूरे वैश्वीकरण के दलदल में फंस गयी है। आर्थिक राष्ट्रवाद, सांस्कृतिक असहिष्णुता, धार्मिक कट्टरता, राजनीतिक दबंगई और असुरक्षित भविष्य ने मिलकर वैश्वीकरण की चमक ख़त्म कर दी है। वैश्वीकरण की नाव बाजारीकरण और भोगवाद की दो पतवारों के जरिये तैर रही थी और लेकिन बढ़ती गैर-बराबरी और नाइंसाफी के थपेड़ों से दोनों पतवारें टूट गई हैं। इसलिए वैश्वीकरण की नैया जन-असंतोष के तूफ़ान में फँसती जा रही है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के विशेषज्ञों से लेकर पर्यावरण आंदोलन के संगठनों के बीच यह निराशाजनक सहमति बन रही है कि बिना बुनियादी बदलावों के शीघ्र ही इस धरती पर मानव-समाज का कोई भविष्य नहीं रहेगा।

इस चिंताजनक संदर्भ में देश-दुनिया की बेहतरी के लिए लोहिया के बताये कई समाधानों में से सप्तक्रांति की प्रासंगिकता लगातार बढ़ती जा रही है। उनकी दृष्टि में संसार में सात क्रांतियाँ एकसाथ चल रही हैं और अपने देश में भी उनके एकसाथ चलने की कोशिश करनी चाहिए। जितने लोगों को भी क्रांति पकड़ आई हो उसके पीछे पड़ जाना चाहिए और बढ़ाना चाहिए :

1. नर-नारी की समानता के लिए;

2. चमड़ी के रंग पर रची राजकीय, आर्थिक और दिमागी असमानता के विरुद्ध;

3. जन्म-आधारित गैरबराबरियों से बनी जातिप्रथा के खिलाफ और पिछड़ों को विशेष अवसर के लिए;

4. परदेसी गुलामी के खिलाफ और स्वतंत्रता तथा विश्व-लोकराज्य के लिए;

5. निजी पूंजी की विषमताओं के खिलाफ और आर्थिक समानता के लिए तथा योजना के द्वारा पैदावार बढ़ाने के लिए;

6. निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप के खिलाफ और लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए; तथा

7. हथियारों के खिलाफ और सत्याग्रह के लिए।

अंतिम प्रश्न

यह महामंत्र दुनिया को सँभालने–संवारने के लिए उपयोगी दीखता है। क्योंकि इससे विविधतापूर्ण मनुष्य-परिवार के सरोकारी स्त्री-पुरुषों की उद्देश्यपूर्ण एकजुटता का जनपथ बनाना कठिन नहीं होगा। इसीलिए लोहिया की गांधी और जेपी के साथ सिद्धांतो और कार्यपद्धति की एकजुटता स्वीकारी जा चुकी है। इससे मार्टिन लूथर किंग से लेकर नेल्सन मंडेला और दलाई लामा के अपनाए मूल्यों और आदर्शों के प्रति आकर्षित व्यक्तियों और आंदोलनों से संवाद भी सहज होगा। लेकिन यह जरूर देखना होगा कि लोहिया और इक्कीसवीं सदी की दुनिया की, विशेषकर नई पीढ़ी की, निकटता कैसे पैदा होती है? क्योंकि सत्ता की राजनीति में लोहिया अपने जीवन-काल में भी सीमित उपयोग के साबित हुए थे और सत्याग्रह के जरिये बेहतर दुनिया बनाने की राह मेहनत, त्याग और धीरज मांगती है।

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