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वेदोक्त कर्तव्य ही धर्म है ,सनातन धर्म ही धर्म है

वेदोक्त कर्तव्य ही धर्म है ,सनातन धर्म ही धर्म है
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सुनील कुमार सुनील

धर्म सिर्फ आस्था तक सीमित नहीं है ,धर्म कोई कपड़े का रंग नहीं की जो मन में आए सो पहन लो। सनातन वैदिक धर्म में तो रंग भी समय ओर परिस्थिति के अनुसार ही पहनते हैं।

यहां प्रश्न उठता है कि धर्म क्या है??? .....वेदोक्त कर्तव्य ही धर्म है।

...वास्तव में जब हम इसके मूल पर जाने का प्रयास करते हैं, तत्कालीन समाज और धर्म की उत्पत्ति को समझने का प्रयास करते हैं जो समाज की प्रारंभिक अवस्था थी तो पाते हैं कि उस समय का समाज आदिम समाज था जहां समाज को नियंत्रित करने/इसका विकास करने, मानवीय मूल्यों को अराजकता के बीच स्थापित करने की चुनौती तथा जद्दोजहद के बीच धर्म की उत्पत्ति हुई होगी/एक ऐसे समय के ऐसे समाज में जहां धर्म न लोकतंत्र का अस्तित्व था न ही राजतन्त्र की स्थापना हुई थी तब लोगों को व्यवस्था के अनुसार नैतिक रूप से जिम्मेदार बनाना उन्हे नियन्त्रित करना धर्म का कार्य रहा होगा और इसी आवश्यकता की विवशता ने धर्म की स्थापना की होगी...!!! ...अतः धर्म एक नियंत्रित जीवन पद्धति है कि रूप में समझा जा सकता है...!!! ...अब नया सवाल ये उठता है कि आखिर इतने विरोधाभास के बीच सर्व धर्म समान कैसे हो सकते हैं जबकि इनकी मूल सोंच व मूल्य अलग-अलग होने के बावजूद फिर एक समान कैसे हो सकते हैं...!!!

...इसका सीधा व तार्किक सरल जवाब यही हो सकता कि हम धर्म की उत्पत्ति इसका कालखंड विशेष महत्व रखता है...!!! ...जब हम इसका सूक्ष्मता से अध्ययन करेगें तो पाएगें कि उस समय जैसा समाज व जैसी सामाजिक चैतन्यता तथा परिस्थित थी उस धर्म का स्वरूप वैसी ही कट्टर या उदार रूप धर्म ने धारण किया है...!!!

वर्तमान परिस्थितियों में ,जब हिमनद पिघल रहे हैं ,समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है, धरती का जलस्तर कम हो रहा है, आतंकवाद का साया कई देशों पर मंडरा रहा है , ऐसे में व्यक्ति स्वयं चिंतन करे कि कौनसा धर्म है जिसका अनुसरण करने पर लौकिक और पारलौकिक दोनों सुख संभव है...!!!

उत्तर यही निकलेगा "सनातन धर्म"/ इसके पीछे कई वजह इसकी न सिर्फ प्राचीनता की वजह उदारता है बल्कि स्वस्थ माहौल में स्वतः स्फूर्त तरह की प्रवृत्ति जो किसी प्रतिक्रिया या कुंठा वस नहीं जन्मी पाएगें अतः वेदोक्त कर्तव्य ही धर्म है ,सनातन धर्म ही धर्म है, जिसकी उपयोगिता और अखंडता स्वतः सिद्ध है...!!!

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