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गोलेन्द्र पटेल की 20 कविताएँ

गोलेन्द्र पटेल की 20 कविताएँ
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पुदीना की पहचान // गोलेन्द्र पटेल

दुख की दुपहरिया में

मुर्झाया मोथा देख रहा है

मेंड़ की ओर

मकोय पककर गिर रही है

नीचे

(जैसे थककर गिर रहे हैं लोग

तपती सड़क पर...)

और

हाँ,यही सच है कि पानी बिन

ककड़ियों की कलियाँ सूख रही हैं

कोहड़ों का फूल झर रहा है

गाजर गा रही है गम के गीत

भिंड़ी भूल रही है

भंटा के भय से

मिर्च से सीखा हुआ मंत्र

मूली सुन रही है मिट्टी का गान

बाड़े में बोड़े की बात न पूछो

तेज़ हवा से टूटा डम्फल

ताड़ ने छेड़ा खड़खड़ाहट-का तान

ध्यान से देख रही है दूब

झमड़े पर झूल रही हैं अनेक सब्जियाँ

(जैसे - कुनरू , करैला, नेनुआ, केदुआ, सतपुतिया, सेम , लौकी...)

पास में पालक-पथरी-चरी-चौराई चुप हैं

कोमल पत्तियों पर प्यासे बैठे पतंगें कह रहे हैं

इस कोरोना काल में

पुदीने की पहचान करना कितना कठिन हो गया है

आह! आज धनिया खोटते-खोटते

खोट लिया मैंने खुद का दुख!

(©गोलेन्द्र पटेल

25-04-2021)

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1.

थ्रेसर

••••••

थ्रेसर में कटा मजदूर का दायाँ हाथ

देखकर

ट्रैक्टर का मालिक मौन है

और अन्यात्मा दुखी

उसके साथियों की संवेदना समझा रही है

किसान को

कि रक्त तो भूसा सोख गया है

किंतु गेहूँ में हड्डियों के बुरादे और माँस के लोथड़े

साफ दिखाई दे रहे हैं

कराहता हुआ मन कुछ कहे

तो बुरा मत मानना

बातों के बोझ से दबा दिमाग

बोलता है / और बोल रहा है

न तर्क , न तत्थ

सिर्फ भावना है

दो के संवादों के बीच का सेतु

सत्य के सागर में

नौकाविहार करना कठिन है

किंतु हम कर रहे हैं

थ्रेसर पर पुनः चढ़ कर -

बुजुर्ग कहते हैं

कि दाने-दाने पर खाने वाले का नाम लिखा होता है

तो फिर कुछ लोग रोटी से खेलते क्यों हैं

क्या उनके नाम भी रोटी पर लिखे होते हैं

जो हलक में उतरने से पहले ही छिन लेते हैं

खेलने के लिए

बताओ न दिल्ली के दादा

गेहूँ की कटाई कब दोगे?

2.

गुढ़ी

•••••

लौनी गेहूँ का हो या धान का

बोझा बाँधने के लिए - गुढ़ी

बूढ़ी ही पुरवाती है

बहू बाँकी से ऐंठती है पुवाल

और पीड़ा उसकी कलाई !

(पुवाल = पुआल)

3.

घिरनी

•••••••

फोन पर शहर की काकी ने कहा है

कल से कल में पानी नहीं आ रहा है उनके यहाँ

अम्माँ! आँखों का पानी सूख गया है

भरकुंडी में है कीचड़

खाली बाल्टी रो रही है

जगत पर असहाय पड़ी डोरी क्या करे?

आह! जनता की तरह मौन है घिरनी

और तुम हँस रही हो।

4.

"जोंक"

-----------

रोपनी जब करते हैं कर्षित किसान ;

तब रक्त चूसते हैं जोंक!

चूहे फसल नहीं चरते

फसल चरते हैं

साँड और नीलगाय.....

चूहे तो बस संग्रह करते हैं

गहरे गोदामीय बिल में!

टिड्डे पत्तियों के साथ

पुरुषार्थ को चाट जाते हैं

आपस में युद्ध कर

काले कौए मक्का बाजरा बांट खाते हैं!

प्यासी धूप

पसीना पीती है खेत में

जोंक की भाँति!

अंत में अक्सर ही

कर्ज के कच्चे खट्टे कायफल दिख जाते हैं

सिवान के हरे पेड़ पर लटके हुए!

इसे ही कभी कभी ढोता है एक किसान

सड़क से संसद तक की अपनी उड़ान में!

5.

ठेले पर ठोकरें

•••••••••••••••••

तीसी चना सरसों रहर आदि काटते वक्त

उनके डंठल के ठूँठ चुभ जाते हैं पाँव में

फसलें जब जाती हैं मंडी

तब अनगिनत असहनीय ठोकरें लगती हैं

एक किसान को - उसकी उम्मीदों के छाँव में

उसकी आँखों के सामने ठेले पर ठोकरें बिकने लगती हैं -

घाव के भाव

और उसके आँसुओं के मूल्य तय करती है

उस बाजार की बोली

खेत की खूँटियाँ कह रही हैं

उसके घाव की जननी वे नहीं हैं

वे सड़कें हैं जिससे वह गया है उस मंडी !

6.

ईर्ष्या की खेती

••••••••••••••••

मिट्टी के मिठास को सोख

जिद के ज़मीन पर

उगी है

इच्छाओं के ईख

खेत में

चुपचाप चेफा छिल रही है

चरित्र

और चुह रही है

ईर्ष्या

छिलके पर

मक्खियाँ भिनभिना रही हैं

और द्वेष देख रहा है

मचान से दूर

बहुत दूर

चरती हुई निंदा की नीलगाय !

7.

किसान है क्रोध

•••••••••••••••••

निंदा की नज़र

तेज है

इच्छा के विरुद्ध भिनभिना रही हैं

बाज़ार की मक्खियाँ

अभिमान की आवाज़ है

एक दिन स्पर्द्धा के साथ

चरित्र चखती है

इमली और इमरती का स्वाद

द्वेष के दुकान पर

और घृणा के घड़े से पीती है पानी

गर्व के गिलास में

ईर्ष्या अपने

इब्न के लिए लेकर खड़ी है

राजनीति का रस

प्रतिद्वन्द्विता के पथ पर

कुढ़न की खेती का

किसान है क्रोध !

8.

ऊख

••••••

(१)

प्रजा को

प्रजातंत्र की मशीन में पेरने से

रस नहीं रक्त निकलता है साहब

रस तो

हड्डियों को तोड़ने

नसों को निचोड़ने से

प्राप्त होता है

(२)

बार बार कई बार

बंजर को जोतने-कोड़ने से

ज़मीन हो जाती है उर्वर

मिट्टी में धँसी जड़ें

श्रम की गंध सोखती हैं

खेत में

उम्मीदें उपजाती हैं ऊख

(३)

कोल्हू के बैल होते हैं जब कर्षित किसान

तब खाँड़ खाती है दुनिया

और आपके दोनों हाथों में होता है गुड़!

9.

उम्मीद की उपज

•••••••••••••••••

उठो वत्स!

भोर से ही

जिंदगी का बोझ ढोना

किसान होने की पहली शर्त है

धान उगा

प्राण उगा

मुस्कान उगी

पहचान उगी

और उग रही

उम्मीद की किरण

सुबह सुबह

हमारे छोटे हो रहे

खेत से….!

10.

मेरे मुल्क की मीडिया

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बिच्छू के बिल में

नेवला और सर्प की सलाह पर

चूहों के केस की सुनवाई कर रहे हैं-

गोहटा!

गिरगिट और गोजर सभा के सम्मानित सदस्य हैं

काने कुत्ते अंगरक्षक हैं

बहरी बिल्लियाँ बिल के बाहर बंदूक लेकर खड़ी हैं

टिड्डे पिला रहे हैं चाय-पानी

गुप्तचर कौएं कुछ कह रहे हैं

साँड़ समर्थन में सिर हिला रहे हैं

नीलगाय नृत्य कर रही हैं

छिपकलियाँ सुन रही हैं संवाद-

सेनापति सर्प की

मंत्री नेवला की

राजा गोहटा की....

अंत में केंचुआ किसान को देता है श्रधांजलि

खेत में

और मुर्गा मौन हो जाता है

जिसे प्रजातंत्र कहता है मेरा प्यारा पुत्र

मेरे मुल्क की मीडिया!

11.

कविता की जमीन

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कविता के लिए

अज्ञेय आकाश से शब्द उठाते हैं

केदारनाथ धूल से

श्रीप्रकाश शुक्ल रेत से

पहला - निर्वात है

कह नहीं सकता

ताकना तुम

तर्क के तह में सत्य दिखेगा

दूसरी - गुलाब है

गंध आ रही है

नाक में

तीसरी - नदी है

जिसमें एक नाव है

जो औंधे मुंह लेटी पड़ी है !

12.

गड़ेरिया

•••••••••

१)

एक गड़ेरिये के

इशारे पर

खेत की फ़सलें

चर रही हैं

भेड़ें

भेड़ों के साथ

मेंड़ पर

वह भयभीत है

पर उसकी आँखें खुली ताक रही हैं

दूर

बहुत दूर

दिल्ली की ओर

२)

घर पर बैठे

खेतिहर के मन में

एक ही प्रश्न है

इस बार क्या होगा?

हर वर्ष

मेरी मचान उड़ जाती है

आँधियों में

बिजूकों का पता नहीं चलता

और

मेरे हिस्से का हर्ष

नहीं रहता

मेरे हृदय में

क्या

इसलिए कि मैं हलधर हूँ

३)

भेड़ हाँकना आसान नहीं है

हलधर

हीरे हिर्य होरना

बाँ..बाँ..बायें...दायें

चिल्लाते क्यों हो

तुम्हारे नाधे

बैलें

समझदार हैं

४)

मेरी भेड़ें भूल जाती हैं

अपनी राह

मैं हाँक रहा हूँ

सही दिशा में

मुझे चलने दो

गुरु

मैं गड़ेरिया हूँ

भारत का !

13.

देह विमर्श

--------------

जब

स्त्री ढोती है

गर्भ में सृष्टि

तब

परिवार का पुरुषत्व

उसे श्रद्धा के पलकों पर

धर

धरती का सारा सुख देना चाहता है

घर ;

एक कविता

जो बंजर जमीन और सूखी नदी का है

समय की समीक्षा-- 'शरीर-विमर्श'

सतीत्व के संकेत

सत्य को भूल

उसे बाँझ की संज्ञा दी।("कवि के भीतर स्त्री" से)

14.

चिहुँकती चिट्ठी

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बर्फ़ का कोहरिया साड़ी

ठंड का देह ढंक

लहरा रही है लहरों-सी

स्मृतियों के डार पर

हिमालय की हवा

नदी में चलती नाव का घाव

सहलाती हुई

होंठ चूमती है चुपचाप

क्षितिज

वासना के वैश्विक वृक्ष पर

वसंत का वस्त्र

हटाता हुआ देखता है

बात बात में

चेतन से निकलती है

चेतना की भाप

पत्तियाँ गिरती हैं नीचे

रूह काँपने लगती है

खड़खड़ाहट खत रचती है

सूर्योदयी सरसराहट के नाम

समुद्री तट पर

एक सफेद चिड़िया उड़ान भरी है

संसद की ओर

गिद्ध-चील ऊपर ही

छिनना चाहते हैं

खून का खत

मंत्री बाज का कहना है

गरुड़ का आदेश आकाश में

विष्णु का आदेश है

आकाशीय प्रजा सह रही है

शिकारी पक्षियों का अत्याचार

चिड़िया का गला काट दिया राजा

रक्त के छींटे गिर रहे हैं

रेगिस्तानी धरा पर

अन्य खुश हैं

विष्णु के आदेश सुन कर

मौसम कोई भी हो

कमजोर....

सदैव कराहते हैं

कर्ज के चोट से

इससे मुक्ति का एक ही उपाय है

अपने एक वोट से

बदल दो लोकतंत्र का राजा

शिक्षित शिक्षा से

शर्मनाक व्यवस्था

पर वास्तव में

आकाशीय सत्ता तानाशाही सत्ता है

इसमें वोट और नोट का संबंध धरती-सा नहीं है

चिट्ठी चिहुँक रही है

चहचहाहट के स्वर में सुबह सुबह

मैं क्या करूँ?

15.

मुसहरिन माँ

•••••••••••••••

धूप में सूप से

धूल फटकारती मुसहरिन माँ को देखते

महसूस किया है भूख की भयानक पीड़ा

और सूँघा मूसकइल मिट्टी में गेहूँ की गंध

जिसमें जिंदगी का स्वाद है

चूहा बड़ी मशक्कत से चुराया है

(जिसे चुराने के चक्कर में अनेक चूहों को खाना पड़ा जहर)

अपने और अपनों के लिए

आह! न उसका गेह रहा न गेहूँ

अब उसके भूख का क्या होगा?

उस माँ का आँसू पूछ रहा है स्वात्मा से

यह मैंने क्या किया?

मैं कितना निष्ठुर हूँ

दूसरे के भूखे बच्चों का अन्न खा रही हूँ

और खिला रही हूँ अपने चारों बच्चियों को

सर पर सूर्य खड़ा है

सामने कंकाल पड़ा है

उन चूहों का

जो विष युक्त स्वाद चखे हैं

बिल के बाहर

अपने बच्चों से पहले

आज मेरी बारी है साहब!

16.

लकड़हारिन

(बचपन से बुढ़ापे तक बाँस)

••••••••••••••••••••••••••••••

तवा तटस्थ है चूल्हा उदास

पटरियों पर बिखर गया है भात

कूड़ादान में रोती है रोटी

भूख नोचती है आँत

पेट ताक रहा है गैर का पैर

खैर जनतंत्र के जंगल में

एक लड़की बिन रही है लकड़ी

जहाँ अक्सर भूखे होते हैं

हिंसक और खूँखार जानवर

यहाँ तक कि राष्ट्रीय पशु बाघ भी

हवा तेज चलती है

पत्तियाँ गिरती हैं नीचे

जिसमें छुपे होते हैं साँप बिच्छू गोजर

जरा सी खड़खड़ाहट से काँप जाती है रूह

हाथ से जब जब उठाती है वह लड़की लकड़ी

मैं डर जाता हूँ...!

17.

मूर्तिकारिन

•••••••••••••

राजमंदिरों के महात्माओं

मौन मूर्तिकार की स्त्री हूँ

समय की छेनी-हथौड़ी से

स्वयं को गढ़ रही हूँ

चुप्पी तोड़ रही है चिंगारी!

सूरज को लगा है गरहन

लालटेनों के तेल खत्म हो गए हैं

चारो ओर अंधेरा है

कहर रहे हैं हर शहर

समुद्र की तूफानी हवा आ गई है गाँव

दीये बुझ रहे हैं तेजी से

मणि निगल रहे हैं साँप

और आम चीख चली -

दिल्ली!

18.

श्रम का स्वाद

••••••••••••••

गाँव से शहर के गोदाम में गेहूँ?

गरीबों के पक्ष में बोलने वाला गेहूँ

एक दिन गोदाम से कहा

ऐसा क्यों होता है

कि अक्सर अकेले में अनाज

सम्पन्न से पूछता है

जो तुम खा रहे हो

क्या तुम्हें पता है

कि वह किस जमीन का उपज है

उसमें किसके श्रम की स्वाद है

इतनी ख़ुशबू कहाँ से आई?

तुम हो कि

ठूँसे जा रहे हो रोटी

निःशब्द!

19.

👁️आँख👁️

••••••••••••••

1.

सिर्फ और सिर्फ देखने के लिए नहीं होती है आँख

फिर भी देखो तो ऐसे जैसे देखता है कोई रचनाकार

2.

दृष्टि होती है तो उसकी अपनी दुनिया भी होती है

जब भी दिखते हैं तारे दिन में, वह गुनगुनाती है आशा-गीत

3.

दोपहरी में रेगिस्तानी राहों पर दौड़ती हैं प्यासी नजरें

पुरवाई पछुआ से पूछती है, ऐसा क्यों?

4.

धूल-धक्कड़ के बवंडर में बचानी है आँख

वक्त पर धूपिया चश्मा लेना अच्छा होगा

यही कहेगी हर अनुभव भरी, पकी उम्र

5.

आम आँखों की तरह नहीं होती है दिल्ली की आँख

वह बिल्ली की तरह होती है हर आँख का रास्ता काटती

6.

अलग-अलग आँखों के लिए अलग-अलग

परिभाषाएँ हैं देखने की क्रिया की

कभी आँखें नीचे होती हैं, कभी ऊपर

कभी सफेद होती हैं तो कभी लाल !

20.

गोड़िन

•••••••

कुओं की भरकुंडी प्यास रही हैं

चोर खोल ले जा रहे हैं चपाकल

नलकूपों को नगद चाहिए पैसे ;

गोड़िन का गोड़ भारी है

गला सूख रहा है!

निःशुल्क है नदी का पानी

भरसाँय झोंक रही है भूख

आग पी रही हैं आँखें

कउरनी कउर रही है कविता ;

जो दाने ममत्व पाना चाहते हैं

उछल उछल कर जा रहे हैं आँचल में

और जो उचक उचक कर देख रहे हैं माथे पर पसीना

वे गिर रहे हैं कर्ज़ की कड़ाही में

मेरा मक्का मटर भून गया

चना चावल बाकी है!

कोयरी टोला में कोई टेघर गया है

अर्थी का पाथेय -

लाई भून रही हैं

जिसे छिड़कने हैं अंतिम सफ़र में

भूख के विरुद्ध!

सभी दाना भुनाने वाले जा रहे हैं कोयरीटोला

आदमी जवान है

डेढ़ बरस और तीन बरस की बच्चियाँ देह से लिपट कर रो रही हैं

चीख रही हैं चिल्ला रही हैं कह रही हैं उठा पापा जागा पापा.....

उसकी औरत को एक वर्ष पहले ही डँस लिया था साँप

हे देवी-देवताओं!

देहात की देहांत दृश्य देख दिल दहल गया

आह विधवा व्यथा!

गोड़ भी छोड़ गया है गर्भ में प्यार की निशानी

गोड़िन के नयन से निकली है गंगा

प्यासी पथराई उम्मीदों के विरुद्ध!

©गोलेन्द्र पटेल

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