Janta Ki Awaz
लेख

किसी के इश्क में पागल सा मेरा गाँव....

किसी के इश्क में पागल सा मेरा गाँव....
X


किसी भूतपूर्व तरुणी की वामपन्थी मुस्कान जैसी जनवरी की नटखट धूप और रविवार की आलसी दोपहर! इस सुनहली धूप में कुर्सी पर पसर कर सड़क पर इठलाते गाँव को चुपचाप निहारना उतना ही आनन्ददायक है, जितना आज से पच्चीस साल पहले चॉकलेट के पैकेट के साथ आयी पापा की चिट्ठियों को पढ़ना था। "इधर उधर मत घूमना, कोई बुलाये तो उसके साथ मत जाना, स्कूल से सीधे घर आना, जमाना बहुत खराब है..."

मैं सोच रहा हूँ, जमाना तो साला अब भी कम खराब नहीं, बस इधर उधर घूमने से रोकने वाला कोई नहीं है। बड़ा होता लड़का हर साल कितना छोटा हो जाता है न!

इस जनवरी में हमारे यहाँ दो काम एकसाथ हुए हैं। सड़क किनारे के खेतों में सरसो मुस्कराने लगी है, और साल भर की छुट्टी के बाद दशवीं के किशोर बच्चे सड़कों पर चहचहाने लगे हैं। जैसे महामारी के भय से सहमी हुई सभ्यता महामारी के बाद मुस्कुराई और प्रकृति ने उसकी खुशी में खुश हो कर अपने बालों में सरसो का फूल खोंस लिया।

कभी लम्बे अकाल के बीतने के बाद खुश हो कर बाबा नागार्जुन ने लिखा था, "बहुत दिनों के बाद सुनी है, धान कूटती किशोरियों की कोकिल कंठी तान..." मुझे भी झुंड में स्कूल जाती किशोरियों की साइकिलों की समवेत स्वर में बजती घंटियां उतनी ही प्यारी लग रही हैं। इस साल का बसन्त सचमुच बड़ा प्यारा होगा।

मुझे अपना गाँव बड़ा सुन्दर लगता है। तमाम विद्रूपताओं के बाद भी मैं गाँव को शहरों से हजार गुना अच्छा देखता हूँ। गाँव का सबसे ठग व्यक्ति भी किसी की भावनाओं के साथ भले खेल जाय, किसी की प्रतिष्ठा के साथ नहीं खेलता। आप चार दिन के लिए गाँव आ कर देखते हैं तो आपको चार टुकड़ों में टूटा हुआ गाँव दिखता है, अगर आप यहाँ रह कर देखें तो देखेंगे कि सौ टुकड़ों में टूटा हुआ गाँव पाँच मिनट में जुड़ जाता है। यह है असली सौंदर्य...

मुझे प्रिय है मेरे छत की धूप, मुझे प्रिय है मेरे बगीचे की छांव, मुझे प्रिय है फागुन चैत की महकती हुई हवा, मुझे प्रिय है गाँव की भौजाइयों की अश्लील गालियां... मुझे प्रिय है किसी छोटे भाई की वह ठगी जिसमें पकड़े जाने के बाद वह पंचायत से सामने झेंप कर कहता है कि क्या हो गया जो थोड़ा लूट लिए, तुम्हारे भाई ही न हैं... और उससे भी अधिक प्रिय है, बड़े भाई का झेंप कर यह कहना कि भक साले! पहले ही यही कह दिया होता तो पंचायत क्यों बटोरते...

मुझे अच्छा लगता है फागुन चढ़ते ही गाँव में डर डर कर चलना, कि कहीं कवनो भउजाई ससुरी रङ्ग न फेंक दे...

मुझे प्रिय है अपने गाँव में नेग लेने आने वाली उस हिजड़ों की मंडली का आदर्श, जो एक ओर हम जैसों के यहाँ बीस हजार वसूलते हैं, वहीं दूसरी ओर किसी गरीब के यहाँ चार घण्टे नाचने के बाद दो सौ इक्यावन रुपये ले कर खुशी खुशी आशीर्वाद देते हुए जाते हैं। विश्व को बहुत कुछ सीखना है उनसे...

आप मुझे निकम्मा कह लीजिए, पर मैं घण्टों बैठ कर पछुआ से लगातार हिलती गेंहू की नन्ही डालियों को निहार सकता हूँ, यह नृत्य मुझे सिनेमाई नङ्गे नाच से अधिक मादक लगता है।

एक बात कहें; हमें देखना है तो हमारे बीच रह कर देखिये! गाँव किसी के इश्क में डूबे दीवाने की तरह होते हैं, जो बाहर से बिल्कुल भी समझ नहीं आते...

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

Next Story
Share it