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शादियों को बिना अतिरिक्त खर्च के संपन्न करने की परंपरा को बढ़ाएं आगे..!

शादियों को बिना अतिरिक्त खर्च के संपन्न करने की परंपरा को बढ़ाएं आगे..!
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भदोही से विजय शंकर दूबे

दहेज के साथ-साथ शादी में पानी की तरह पैसे बहाने की परंपरा सामाजिक अभिशाप..!

कम से कम खर्चे में विवाह संपन्न कर संपत्ति को आपात स्थिति या अन्य जरूरतमंदों की मदद के लिए सुरक्षित रखने की करें पहल..!

पिछले कई महीने के दौरान हुईं ज्यादातर शादियां परंपरागत शादियों से बिल्कुल भिन्न दिखाई पड़ीं। इनमें न तो बेतरतीब भीड़ थी, न बेलगाम भव्यता का नेतृत्व करता टेंट और न डीजे का कानफोड़ू शोरगुल! जश्न में दिखावे की गोलीबारी जैसी जानलेवा प्रथा भी इस दौरान नदारद रहीं और भोजन की बर्बादी जैसी बात भी सामने नहीं आई। इन विशिष्ट शादियों में मेहमानों की संख्या सीमित थी, लिहाजा कम खर्च में ही बिना किसी फिजूलखर्ची के सादगीपूर्ण ढंग से समारोह संपन्न हो गए। अमूमन भारतीय शादियों का आयोजन इतनी सादगी से नहीं होता है, लेकिन महामारी ने देशवासियों को एक विकल्प सुझा कर समाज सुधार की दिशा में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। मगर क्या यह एक नई परंपरा बनेगी?

दरअसल, भारत में शादियां सामाजिक प्रतिष्ठा और वैभव के प्रदर्शन के साथ-साथ फिजूलखर्ची के लिए भी मशहूर रही हैं। सामाजिक हैसियत बरकरार रखने के लिए शादी समारोहों में एक बड़ी धनराशि खर्च कर दी जाती है। सवाल यह है कि महज दिखावे के इन प्रतीकों को अपनाने की उपयोगिता क्या है? क्या साधारण या सादगीपूर्ण विवाह सफल या टिकाऊ नहीं होता? विडंबना यह है कि दहेज के साथ-साथ शादी में पानी की तरह पैसे बहाने की परंपरा सामाजिक अभिशाप बन चुकी है। कहीं न कहीं शादी समारोहों को खचीर्ला बनाने की यह परंपरागत सोच अनजाने ही लैंगिक भेदभाव को भी बढ़ावा दे रही है।

भारत जैसे पितृ-प्रधान देश में बेटियों के जन्म के साथ ही माता-पिता उसकी शादी की चिंता करना शुरू कर देते हैं। वे अपनी बेटी के नाम पर पैसे जमा करने लग जाते हैं, ताकि दहेज और शादी-समारोह के खर्चे का उचित बंदोबस्त हो जाए। दहेज और विवाह के महंगे आयोजन की चिंता की वजह से भी लोग बेटियों को जन्म देने से कतराते हैं। यही वजह है कि उन्हें घर-परिवार में बोझ समझा जाता है। ग्रामीण अंचलों में बालिका शिक्षा पर पर्याप्त ध्यान न देने की एक बड़ी वजह यह रही है कि बेटी के नाम पर संचित धन शादी और दहेज में खर्च किए जाते हैं, उसकी पढ़ाई में नहीं!अगर शादियां सादगीपूर्वक होने लगें तो लोग बेटियों को बोझ समझना छोड़ देंगे। बेटी के जन्म से ही उसकी शादी में होने वाले खर्च की चिंता उन्हें नहीं सताएगी। जाहिर-सी बात है कि इससे कन्या भ्रूण हत्या के मामलों में भी कमी आएगी। युवाओं को चाहिए कि शादी में बेवजह दिखावे पर पैसा बर्बाद करने के बजाय समझदारी और जरूरत के आधार पर ही व्यय करें। युवा अपने माता-पिता को समझा सकते हैं कि केवल एक दिन के आयोजन के लिए लाखों की संपत्ति को व्यर्थ कर देना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है।करीब चार साल पहले लोकसभा में एक सांसद ने निजी विधेयक के जरिए शादी-ब्याह में होने वाली फिजूलखर्ची को रोकने का मुद्दा उठाया था। इस मुद्दे पर बात आगे तो नहीं बढ़ी, लेकिन इस दिशा में एक विमर्श की शुरुआत इस रूप में हुई कि शादी-विवाह में फिजूलखर्ची रोकने, अतिथियों की संख्या सीमित करने और समारोह के दौरान परोसे जाने वाले व्यंजनों को सीमित करने के लिए समाज आगे आए।पर्यावरणीय दृष्टि से भी शादी समारोह को सादगीपूर्ण तरीके से आयोजित करना कई मायनों में लाभकारी हो सकता है। समारोह में हजारों की संख्या में प्रयुक्त प्लास्टिक-डिस्पोजल पर्यावरण के लिए अत्यंत घातक होते हैं। इन अपशिष्टों को जलाना, खुले में फेंकना या भूमि में गाड़ना- तीनों हानिकारक है। सोचिए, अगर शादियों या अन्य छोटे-बड़े अवसरों पर भोजन परोसने के लिए प्लास्टिक-डिस्पोजल का प्रयोग करने के बजाय पत्तलों का इस्तेमाल किया जाए तो यह सेहतमंद, फायदेमंद और पर्यावरण-अनुकूल साबित हो सकता है। पत्तल निर्माण को सशक्त कुटीर उद्योग का स्वरूप देकर बहुतों के रोजगार का बंदोबस्त किया जा सकता है।कोई संस्था आगे आकर ऐसे पत्तलों का निर्माण करवा सकती है और आनलाइन बुकिंग के आधार पर पत्तलों की आपूर्ति कर सकती है। इससे रोजगार की एक शृंखला बन जाएगी। शादी जैसे समारोह में एक बार इस्तेमाल में आने वाले प्लास्टिक के प्रयोग को कम करने के लिए कई शहरों में 'बर्तन बैंक' की शुरुआत की गई है। देश के सबसे साफ शहर इंदौर के नगर निगम की पहल के बाद देश के कई शहरों में 'बर्तन बैंक' की स्थापना की गई है।इसका मकसद है कि लोग शादी जैसे समारोह में प्लास्टिक के बर्तन खरीदने के बजाय संस्था से स्टील की थाली, कटोरी, चम्मच आदि निशुल्क ले जाएं और आयोजन खत्म होने के बाद उसे साफ कर पहुंचा दें। पर्यावरण संरक्षण की दिशा में यह एक नायाब पहल है, जिसका अनुकरण देशभर में होना चाहिए, ताकि एकल इस्तेमाल वाले प्लास्टिक और समारोह के बाद फैलने वाली गंदगी पर अंकुश लगाया जा सके।महामारी के संकट का यह दौर हमें एक अवसर दे रहा है कि शादियों को बिना अतिरिक्त खर्च के संपन्न करने की परंपरा को आगे बढ़ाएं। कम से कम खर्चे में विवाह संपन्न करा कर संपत्ति को आपात स्थिति या अन्य जरूरतमंदों की मदद के लिए सुरक्षित रखने की पहल की जाए।

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