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उत्तर प्रदेश

महिला आज़ादी का नारा लगाने वाले कहां हैंः रोहित सरदाना

इससे पहले शनि शिंगणापुर मंदिर में महिलाओं की एंट्री को ले कर भी अच्छी खासी खींचतान हुई। मामला कोर्ट तक गया। पहले ट्रस्ट ना ना करता रहा। फिर उसने भी कोर्ट के आदेश के आगे घुटने टेक दिए। महिला अधिकार की जीत हुई। हाजी अली में एंट्री के लिए आंदोलन कर रही महिलाओं को भी आस बंधी कि उनके लिए भी दरवाज़ा खुलेगा। लेकिन शनि शिंगणापुर में घुसने के लिए हेलीकॉप्टर तक का सहारा ले लेने की दलील देने वाली तृप्ति देसाई, हाजी अली में ज़बरदस्ती गई भी तो वहीं तक हो कर आ गईं जहां तक महिलाओं को जाने की इजाज़त थी। सुप्रीम कोर्ट ने दरवाज़ा खोला भी तो मामला अपील में चला गया। लेकिन बुरी बात ये कि हाजी अली में एंट्री की लड़ाई लड़ रही महिलाओं के लिए किसी नामचीन महिला अधिकारवादी ने मोर्चा नहीं खोला, कोई महिला संगठन सड़क पर नहीं उतरे, किसी नामी गिरामी महिला एक्टिविस्ट ने सोशल मीडिया पर कैंपेन लॉन्च नहीं किया। क्यों? किस ऑफ लव तो आप लोगों को याद ही होगा ? देश के बड़े शहरों की सड़कों पर लड़के लड़कियां खुलेआम किस कर के अभिव्यक्ति की आज़ादी का इज़हार करें, ये आंदोलन छेड़ा गया। एक राजनीतिक पार्टी के सोशल मीडिया मैनेजर्स तो खुल के उसके लिए मैदान में कूदे। आज़ादी इसी बात से तय होनी थी कि हमें इंसान होते हुए भी सड़क पर जानवर हो जाने की छूट हो। कई नामी महिला अधिकार कार्यकर्ताओं का स्टैंड इस दौरान वही था, जो किसी भी महिला आज़ादी आंदोलन के दौरान होता है। क्यों कि महिला आज़ादी की सीमा तो महिला ही तय करेगी, पुरूष कैसे करेगा ?

Rohit Sardana1

यूनिवर्सिटी कैंपस में पेड़ों पर सैनिटरी पैड्स बांधने का आंदोलन चलाया गया। लड़कियां शादी करेंगी या नहीं करेंगी, शादी से पहले किसी से संबंध रखेंगी या नहीं रखेंगी, साइज़ ज़ीरो रहेंगी या साइज़ फिफ्टी रहेंगी, पुरूष से संबंध रखेंगी या महिला से संबंध रखेंगी- माइ चॉयस के कैंपेन को महिला अधिकार की लड़ाई लड़ने वालों का खूब साथ मिला। सच बात है। महिला आज़ादी की सीमा महिला ही तय करेगी, पुरूष क्यों करेगा ? तो फिर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की दलीलों के सामने इन सब महिला अधिकारवादियों को सांप क्यों सूंघ गया है? क्या मुस्लिम महिलाओं की लड़ाई, महिला अधिकार की लड़ाई नहीं है? क्यों कोई मेनस्ट्रीम सोशल मीडिया कैंपेन इन महिलाओं के लिए खड़ा नहीं होता? क्यों मुख्य धारा के टीवी चैनल इस पर बहस करने में उतनी सहजता महसूस नहीं करते जितनी सहजता से सबरीमला को ले कर मोर्चा खोल बैठते हैं? क्यों बड़े बड़े अखबार इस खबर का एक कॉलम पहले पन्ने पे लगा कर और बाकी पेज 4 पर लिख के पतली गली से निकल लेने में भलाई समझते हैं? या कि महिला अधिकार में भी वही सिलेक्टिविज़्म हमने पाल लिया है,जो हर जगह कचोटता है। खबरों की रिपोर्टिंग में, उनके प्रस्तुतिकरण में,उनके विश्लेषण में. राजनीतिक बहसों में,पार्टियों के घोषणा पत्रों में,नेताओं के बयानों में। सरकारों की सोच,नीतियों और फैसलों में। त्यौहारों पर जारी होने वाली एडवाइज़रियों में। हर जगह।

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