प्रेम में पड़ा हुआ पुरुष, प्रेम में पड़ी हुई स्त्री...

Update: 2020-08-14 10:40 GMT

 सबसे पहले तो यह मान ही लेना होगा कि प्रेम कोई गड्ढा या जाल नहीं जिसमें "पड़ा" जाय। जिसमें 'पड़ा' जाता है वह 'प्रेम' नहीं 'छल' होता है। वैसे एक सत्य यह भी है कि संसार के निन्यानवे प्रतिशत कथित प्रेम प्रसंगों में जोड़े का कोई एक व्यक्ति ही प्रेम में होता है, दूसरा वास्तव में ठग रहा होता है। जब सुशांत सच्चे हों तो रिया ठगती है, और कहीं नैना मंगलानी सच्ची हो तो साकिब ठगता है। दुर्लभ ही होते हैं वे प्रसङ्ग, जिनमें दोनों एक दूसरे को प्रेम करते हों

मुझे लगता है प्रेम बस्तुतः भाव वाचक संज्ञा है, पर लोगों ने उसे 'क्रिया' बना दिया है। आधुनिक प्रेमी-प्रेमिकाओं को प्रेम होता नहीं, वे प्रेम 'करते' हैं। वे रोज सुबह प्रेम की तलाश में निकलते हैं, और शाम को इस अफसोस के साथ वापस लौटते हैं कि "साला आज का दिन भी बेकार चला गया।" कुछ दिनों तक प्रोफेशनल तरीके से प्रयास करने के बाद जब जब कोई उनके साथ प्रेम करने को तैयार हो जाता है तो वे उससे प्रेम 'करते' हैं। फिर कुछ दिनों बाद उन्हें लगता है कि हम एक दूसरे से जितना प्रेम कर सकते थे उतना कर लिए, तो वे अलग होने का फैसला करते हैं और तय करते हैं अब हम प्रेम नहीं करेंगे। अब तुम किसी दूसरे से प्रेम करो, हम किसी दूसरे से करेंगे... इस बीच प्रेम करने के नाम पर जो किया जाता है वह और कुछ भी हो, प्रेम तो बिल्कुल नहीं है।

मेरे एक प्रकाशक मित्र हैं। चार पाँच साल पहले जब उनका अपनी सातवीं गर्लफ्रेंड के साथ तीसरा ब्रेकप हुआ तो मेरे पास रोते हुए आये। मैंने कहा, "प्रेम कर के देख लिए, अब विवाह कर के भी देख लो..." उन्होंने उसी दिन बाबूजी को बताया और छह महीने के अंदर ही किसी अनजान कन्या के साथ विवाह हो गया। चार साल हुए, मित्र सुखी जीवन जी रहे हैं। कोई चोंय-चाँय नहीं... एकदम राजा-रानी जैसी जोड़ी है। बीच में एक बार किसी बात पर पत्नी से बड़ा झगड़ा हुआ उनका। हमसे बात करते करते बोले, "भइया सच बता रहे हैं, केवल प्रेम किया होता तो आज ही लात मार कर निकाल देते! पर शादी की है... मरते दम तक निभाना ही पड़ेगा।" खैर! वे पुरुष हैं, अब उन्होंने हर बात पर पत्नी से सॉरी कहना सीख लिया है, उनके दिन अच्छे कट रहे हैं।

युग बदल रहा है। प्रेम अब लव हो गया है। लव में निभाने की बाध्यता नहीं है। जबतक मन किया करो, जब मन करे लात मार दो...

प्रेम पर लिखें और कवि-कवयित्रियों की बात न करें तो बात अधूरी रह जाती है। प्रेम की कवयित्रियों के बारे में एक अनोखा सत्य यह है कि उनमें से किसी ने स्वयं प्रेम नहीं किया होता। वे परिवार की मर्जी से विवाह कर चार-चार बच्चे पालते हुए पार्ट टाइम में कविता लिखती हैं, "तोड़ो... कारा तोड़ो..."

प्रेम के कवियों की भी लगभग यही दशा है। देश के एक प्रसिद्ध प्रेमकवि मंच पर तबतक नहीं चढ़ते जबतक एक बोतल मदिरा न टिका लें। वे कहते हैं कि प्रेम के गीत में दर्द लाने के लिए पीना पड़ता है। इधर सिनेमा वालों ने यह सिद्ध कर दिया है कि प्रेम में टूटे दिल का दर्द मिटाने के लिए पीना पड़ता है। कोई दर्द मिटाने के लिए पीता है, कोई दर्द लाने के लिए पीता है। मुझे तो कभी कभी लगता है कि प्रेम के कवि और कुछ नहीं, शराब के ब्रांड अम्बेसडर हैं। खैर...

वैसे 'पड़ने' वाले 'कथित प्रेम' की बात करें ही, तो प्रेम में पड़ी स्त्री या तो बोरे में मिलती है, या कोठे पर... दूसरी ओर प्रेम में पड़ा पुरुष या तो कंगाल हो कर मुक्त हो जाता है, या उसे फाँसी पर लटकना पड़ता है।

सर्वेश तिवारी श्रीमुख

गोपालगंज, बिहार।

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