भाजपा का कांग्रेस के राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में उदय १९९१ में होने लगा जब १९९० में आडवाणी जी द्वारा अयोध्या में राममंदिर निर्माण को लेकर निकाली गई रथयात्रा को जनता ने अपार समर्थन दिया जिससे न केवल मध्य प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और उत्तरप्रदेश में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकारें बनीं बल्कि लोकसभा में भी इसके सदस्यों की संख्या १२० के पार पहुंच गई।
कांग्रेस ने १९५० से लेकर १९९० तक किसी भी राजनीतिक दल को कभी गंभीरता से नहीं लिया था, क्योंकि उसे पता था कि ये विपक्षी दल या तो क्षेत्रीय दल हैं या फिर कांग्रेस की केन्द्र सरकार के प्रच्छन्न अर्थात् छिपे हुए सहयोगी दल हैं। ये विपक्षी दल दो तरह की राजनीतिक कामना से ग्रस्त थे। १- कांग्रेस के ही नाराज नेताओं के दल मोरारजी देसाई या चौधरी चरण सिंह का गुट, ये दोनों बस एकबार चाहें जैसे भी प्रधानमंत्री बनना चाहते थे। दूसरे थे, वामपंथी दल माकपा, भाकपा, फारवर्ड ब्लाक आदि यह जो दूसरा धड़ा था वामपंथियों वाला यह १९७० के बाद बनी कांग्रेस की सरकारों का सबसे बड़ा दलाल था और इनका दो ही लालच रहा, एक केरल और पश्चिम बंगाल की कम्यूनिस्ट सरकारों को इंदिरा गांधी के राष्ट्रपति शासन नामक धारदार हथियार से बचाना और दूसरा साम्यवादी, समाजवादी विचारधारा को बढ़ावा दिया जाना। इन वामपंथी दलों का बस एक ही एजेंडा था कांग्रेस आई अर्थात् कांग्रेस इंदिरा और उससे नाराज़ मोरारजी देसाई और चौधरी चरण सिंह के दलों में जो कमजोर पड़े उसकी ओर से हो हल्ला मचाना लेकिन केंद्र में जब-जब इंदिरा सरकार पर संकट आया तो विश्वास या अविश्वास प्रस्ताव के दौरान शोर मचाते हुए लोक सभा से वाकाउट कर जाना जिससे इंदिरा गांधी की सरकार बचने में सफल हो जाय। इंदिरा गांधी ने भी इसके लिए भरपूर पुरस्कार इन वामपंथी पार्टियों को दिया पर शर्त एक थी कि इतिहास और शिक्षा नीति का निर्धारण भले ये वामपंथी चाहे जैसे करें बस नेहरू-गांधी परिवार के सम्मान को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करें और वामपंथियों ने ऐसा करने में कोई कोर कसर उठा भी नहीं रखा। लेकिन १९७५ में हालात कुछ ऐसे हुए कि इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाना पड़ा और पहली विपक्ष संगठित हुआ जिससे १९७७ में जनता पार्टी की सरकार बनी मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बन गए और उस सरकार में भाजपा तब जन संघ की ओर से अटल बिहारी वाजपेयी जी विदेश मंत्री बने पर इंदिरा गांधी और वामपंथियों ने फिर कमाल दिखाया और जनता पार्टी की सरकार ढ़ाई वर्ष के भीतर ही लुढ़क गई। इंदिरा गांधी ने विपक्ष पर फिर एक एहसान किया वह यह कि चौधरी चरण सिंह को अपना समर्थन देकर प्रधानमंत्री बना दिया लेकिन बेचारे चौधरी चरण सिंह लोकसभा का मुंह देख पाते इससे पहले ही उनकी भी सरकार गिरा दिया और इसप्रकार ये दोनों नाराज नेता प्रधानमंत्री बन कर चैन से मर गये।
अटलजी ने १९८० में जन संघ का नाम बदलकर भारतीय जनता पार्टी कर दिया और वही भाजपा जब सशक्त बन कर १९९१ में उभरी तो कांग्रेस और वामपंथियों के माथे पर बल पड़ने लगा। कांग्रेस के इशारे पर वामपंथियों ने मारा कि भारतीय शिक्षा और सामाजिक व्यवस्था की ऐसी की तैसी कर के रख दिया था।
१९९२ का वर्ष आर्थिक उदारीकरण को लेकर आया संसद में वामपंथियों का कहर जारी था किन्तु भाजपा ने इसे बिना शर्त समर्थन दे देकर पास करवा दिया जिसे आरक्षण के एक सफल काट के रूप में देखा जा रहा था।
लेकिन जून, १९९२ तक आते-आते अयोध्या मामला पुनः गरमाने लगा, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल और शिवसेना के तेवर तल्ख होते जा रहे थे, इसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा का मौन समर्थन भी जारी था जब उत्तरप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने स्पष्ट कर दिया था कि अयोध्या में स्थित चाहे जो हो जाए वह गोली नहीं चलने देंगे। इसका मतलब साफ था कि विवादित ढांचा (बाबरी मस्जिद) अब सुरक्षित नहीं था, ६ दिसंबर १९९२ को कारसेवा के दिन लोक सभा में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरलीमनोहर जोशी, उमा भारती आदि भी पहुंच गए और शाम ४-५ बजे तक यह खबर आने लगी कि विवादित ढांचे को ढ़हा दिया गया, सिर्फ साढ़े पांच घंटे में तीन गुम्बदों वाला विवादित ढांचा बिना तकनीक और विस्फोट के तो गिराया नहीं जा सकता था।
जो लोग डा० मनमोहन सिंह को मौनी बाबा बाबा बोलते हैं उनको राजनीतिक मूर्ख समझ कर क्षमा कर दिया जाना चाहिए क्योंकि उन नादानों ने कूटनीति के चाणक्य पीवी नरसिंह राव का मौन नहीं देखा है जो अपने प्रधानमंत्रित्व काल में गांधी-नेहरू परिवार को अपनी सत्ता के इर्द-गिर्द फटकने तक नहीं दिया। ६ दिसम्बर की उस सुबह इन्होंने अपने आपको एक कमरे में बंद कर लिया और तभी बाहर निकले जब ढ़ाचा गिर गया और निकलते ही उन्होंने भाजपा की चारों प्रदेश सरकारों को बर्खास्त कर राष्ट्रपति शासन लगा दिया, इससे पूर्व ही कल्याण सिंह ने ढ़ाचा गिरते ही त्यागपत्र यह कह कर दे कि अयोध्या में जो भी हुआ उसकी सारी नैतिक जिम्मेदारी उनकी है इसके लिए कोई भी अधिकारी जिम्मेदार नहीं है जो भी सजा हो वह केवल उन्हें दिया जाए। संघ और विहिप पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया और भाजपा को प्रतिबंधित किए जाने की तैयारियां शुरू हो गईं, लालकृष्ण आडवाणी ने विपक्ष के नेता पद से त्यागपत्र दे दिया, ऐसी विषम परिस्थिति में अटलजी ने कूटनीति का मोर्चा संभाला और कहा कि अयोध्या में आज जो कुछ भी घटित हुआ है वह अत्यंत शर्मनाक है।
अयोध्या की घटना का प्रभाव दंगों का रूप लेने लगा, बांग्लादेश और पाकिस्तान में हिंदुओं और मंदिरों पर कहर बरपने लगा। देश दो धड़ों में विभाजित होता नजर आने लगा हिंदू और मुसलमान जो न केवल देश के लिए बल्कि गैर भाजपा नेताओं के लिए बहुत बड़ी चिंता थी। भाजपा के इर्द-गिर्द एकत्रित हो रहे हिन्दू जन मानस को तोड़ने का तब एक ही काट इन गैर भाजपा दलों ने ढ़ूढ़ा वह था- जातिवाद।
उसका आधारभूत हथियार बना आरक्षण। भाजपा के सामने विपदा यह थी कि वह केवल सवर्णों के बल पर सत्ता में आ नहीं सकती थी और ये स्वर्ण "मुण्डे मुण्डे मतिर्भिन्ना:" हर पार्टियों में अपने-अपने लाभानुसार डंडा और झंडा उठाए जा रहे थे और भाजपा नेता अपने भारी भरकम तर्कों के बीच माथा भी पीट रहे थे कि आखिर भारत में अगर कहीं हिन्दू है तो वह कहां है?
इन सभी उलझनों के बीच जब १९९३- ९४ में चुनाव हुए तो भाजपा उत्तरप्रदेश सहित बाकी तीनों प्रदेशों मध्यप्रदेश, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में चुनाव हार गई। उत्तरप्रदेश में तो "मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्री राम" ने खूब जलवा लूटा और ६-६ महिने के मुख्यमंत्री की शर्त मुलायम सिंह यादव मुख्यमंत्री बने, मायावती का नंबर छः महीने बाद का था।
शेष शीघ्र
नमस्कार!
आलोक पाण्डेय
बलिया उत्तरप्रदेश