तो अब राजनीति में मुद्दों के लिए गाली का इंतजार होगा! - डॉ. मनीष पाण्डेय
उत्तर प्रदेश की राजनीति में महिलाओं को गाली देने की आड़ में जो राजनीतिक संस्कृति पनप रही है, वह शर्मनाक है। यह बहुत स्पष्ट रूप से संकेत करता है कि राजनीति किस तरह से मुद्दाविहीन हो चुकी है। हालांकि राजनीति में यह कोई पहली घटना नही है। इससे पहले भी राजनीतिक विरोधियों के प्रति घृणास्पद टिप्पणियां होती रही हैं। सिर्फ राजनीति को इसके लिए दोषी भी नही ठहराया जा सकता है। दोष उस समाज का भी है जहाँ लगातार इस तरह की संस्कृति को प्रोत्साहित किया जाता है और हर घटना को वोट बैंक के लिहाज से परखा जाता है।
महिला की इज्जत की रक्षा के नाम पर बसपा या भाजपा से जुड़े लोगों द्वारा दिखाई जा चिंता में क्या उनकी आत्मा का पूरा बल है? ये उसी समाज के तो हिस्से हैं, जहाँ क्षणिक आवेश भी गालियों के रूप में अभिव्यक्त हो जाता है। फ़िर किस मुह से महिला के इज्ज़त की बात कर रहे है? क्या ये सिर्फ राजनीतिक कुचक्र नही है जिसमें समाज के समरसता की बलि दी जा रही है। गालियों के माध्यम से दूसरों को अपमानित और पददलित करने की प्रवृत्ति हमेशा से इस समाज में पाई जाती रही है। किसी भी अपने से कमजोर या दमित व्यक्ति या सामाजिक संरचना में हो रहे बदलाव को गालियों के माध्यम से दबाने की कोसिस की जाती है। आजकल तो यह काम और भी आसान हो गया है। सोशल मीडिया इसका सबसे आसान प्लेटफॉर्म हो गया है जहाँ बिना किसी संकोच या अपराधबोध के कुछ बोला सुना जा रहा है। ऐसा भी नही है कि कोई एक व्यक्ति या समूह ही इसका शिकार है। अपने अपने कुतर्कों के साथ हर कोई भाषा का हेरफेर कर अपनी कुंठा मिटा रहा है।
लोग एक समय में अपने और दूसरों के लिए पृथक पृथक व्यवहार की उम्मीद करते हैं। हालांकि व्यक्तित्व के दोहरेपन को भी दोषी नही ठहराया जा सकता, एक स्तर तक यह अपरिहार्य भी है। शायद इसीलिए सामाजिक प्रतिमान और मूल्यों का निर्माण किया गया है जिससे व्यक्ति अपने अहं को सामाजिक अपेक्षा के अनुरूप नियंत्रित कर सके। लेकिन, वर्तमान में सामाजिक मूल्यों का प्रभाव कम हुआ है और जिस राजनितिक संस्कृति का उद्भव हो रहा है वहाँ नैतिकता का कोई स्थान नही है। राजनीति में गाली गलौज कोई नई घटना नही है। पहले भी इस तरह की घटनाएं होती रही हैं। इसी हजरतगंज चौराहे पर कभी बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने नरेंद्र मोहन से बेटी मांगी थी और जगह जगह बहुजन कार्यकता ग़ाली और आपत्तिजनक नारों के साथ ऊँची जातियों को गाली दिया करते थे। उसके बाद भी इसे बहुत असहज नही माना गया कि लंबे समय से मुख्यधारा से बाहर रहे समूहों का यह स्वाभाविक परिणाम और आक्रोश है। मंडल के दौर में उसके समर्थक नेताओं के लिए भी तमाम अभद्र भाषा का प्रयोग हुआ। सामान्य बातचीत में अभी भी लोग दूसरी जातियों, धर्मो, समूहों और महिलाओं के प्रति आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग करते हैं, लेकिन उसे सार्वजनिक करने की कोई वजह समझ नही आती। अब चूँकि भारत बड़ी विविधताओं और तमाम भिन्न समूहों का देश है जिसमें सबके अपने अपने पूर्वाग्रह है। इसके बावजूद भी एक दूसरे पर निर्भरता अपरिहार्य है। चिंता की बात उभर रही उस प्रवृत्ति को लेकर भी है जिसके तहत अपने अपने व्यक्तिगत या राजनीतिक हितों को साधने के लिए सुनियोजित अशिष्टता और अमर्यादित भाषा का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है। इसमें सभी राजनीतिक दल और विचारधारा के स्वयंभू मशीहा बगैर किसी भेदभाव और संकोच के शामिल है। फिर भी यही वास्तविकता है कि बिना समावेशी दृष्टि अपनाये न समाज को गति दी जा सकती ना ही राजनीति को।
ये मुद्दाविहीन राजनीति का नया कुचक्र है, जिसे मीडियाई होंड लगातार पोषित कर रहा है। राजनीति या सामाजिक जीवन में भाषा और व्यवहार का अपना महत्व है। साथ ही निजता भी उसका अधिकार है। लेकिन, आज का मीडिया तो ब्रेकिंग न्यूज़ और बिकाऊ खबर को ही अपनी ज़िम्मेदारी मान चुका है और साधारण घटना को सनसनीखेज बना देने में महारत करता जा रहा है। फ़िजूल की ख़बरों को अनदेखा भी किया जा सकता है, लेकिन ऐसा न होने से इन उन तत्वों को बल मिलता है जो विवादास्पद बयानबाज़ी के लिए ही जाने जाते हैं। फेसबुक और ट्विटर की बातों को छोड़ दिया जाये तो भी टाइम्स ऑफ़ इंडिया के मुख्य पृष्ठ पर दयाशंकर सिंह की बेटी का जो बयान छपता है, उसपर कतई विश्वास नहीं होता कि वह बयान कोई 12 वर्ष की बेटी दे सकती है। अगर ऐसा हो रहा है तो कहाँ से पैदा हुई है यह संस्कृति जहाँ शिकार और हथियार दोनों ही महिलाएं हैं।और इस तरह की छिछली राजनीति से जब राजनीतिक मजबूती का आकलन किया जाने लगे और पूरा समाज उसी बहस में शामिल हो जाये तो समझ लेना चाहिये समाज अपना विवेक खो रहा है। ऑफ़ रिकॉर्ड गालियों के तकिया कलाम बनाकर बातचीत करने वालों का इस तरह सार्वजनिक हो जाने पर नैतिकता की बात करना बेमानी तो है ही और उससे भी ज़्यादा नुकसानदेह भी है।
ऐसी बयानबाजी और प्रवृत्ति को जब तक सामाजिक अपराध घोषित नही किया जायेगा तबतक ऐसे तमाम दयाशंकर और नसीमुद्दीन के लोग विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच विष घोलते रहेंगे। बेरोज़गारी, समान शिक्षा, स्वास्थ्य, मर्यादा के साथ जीवन जीने और महिला की अस्मिता और भूमिका से जुड़े सवालों को मुद्दा बनाने के बजाय अगर गालियों पर चर्चा हो रही है तो निश्चित जानिए कि राजनीतिज्ञ लोकतन्त्र के विकल्पहीन होने का नाजायज़ फ़ायदा उठा रहे हैं।
महिला की इज्जत की रक्षा के नाम पर बसपा या भाजपा से जुड़े लोगों द्वारा दिखाई जा चिंता में क्या उनकी आत्मा का पूरा बल है? ये उसी समाज के तो हिस्से हैं, जहाँ क्षणिक आवेश भी गालियों के रूप में अभिव्यक्त हो जाता है। फ़िर किस मुह से महिला के इज्ज़त की बात कर रहे है? क्या ये सिर्फ राजनीतिक कुचक्र नही है जिसमें समाज के समरसता की बलि दी जा रही है। गालियों के माध्यम से दूसरों को अपमानित और पददलित करने की प्रवृत्ति हमेशा से इस समाज में पाई जाती रही है। किसी भी अपने से कमजोर या दमित व्यक्ति या सामाजिक संरचना में हो रहे बदलाव को गालियों के माध्यम से दबाने की कोसिस की जाती है। आजकल तो यह काम और भी आसान हो गया है। सोशल मीडिया इसका सबसे आसान प्लेटफॉर्म हो गया है जहाँ बिना किसी संकोच या अपराधबोध के कुछ बोला सुना जा रहा है। ऐसा भी नही है कि कोई एक व्यक्ति या समूह ही इसका शिकार है। अपने अपने कुतर्कों के साथ हर कोई भाषा का हेरफेर कर अपनी कुंठा मिटा रहा है।
लोग एक समय में अपने और दूसरों के लिए पृथक पृथक व्यवहार की उम्मीद करते हैं। हालांकि व्यक्तित्व के दोहरेपन को भी दोषी नही ठहराया जा सकता, एक स्तर तक यह अपरिहार्य भी है। शायद इसीलिए सामाजिक प्रतिमान और मूल्यों का निर्माण किया गया है जिससे व्यक्ति अपने अहं को सामाजिक अपेक्षा के अनुरूप नियंत्रित कर सके। लेकिन, वर्तमान में सामाजिक मूल्यों का प्रभाव कम हुआ है और जिस राजनितिक संस्कृति का उद्भव हो रहा है वहाँ नैतिकता का कोई स्थान नही है। राजनीति में गाली गलौज कोई नई घटना नही है। पहले भी इस तरह की घटनाएं होती रही हैं। इसी हजरतगंज चौराहे पर कभी बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने नरेंद्र मोहन से बेटी मांगी थी और जगह जगह बहुजन कार्यकता ग़ाली और आपत्तिजनक नारों के साथ ऊँची जातियों को गाली दिया करते थे। उसके बाद भी इसे बहुत असहज नही माना गया कि लंबे समय से मुख्यधारा से बाहर रहे समूहों का यह स्वाभाविक परिणाम और आक्रोश है। मंडल के दौर में उसके समर्थक नेताओं के लिए भी तमाम अभद्र भाषा का प्रयोग हुआ। सामान्य बातचीत में अभी भी लोग दूसरी जातियों, धर्मो, समूहों और महिलाओं के प्रति आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग करते हैं, लेकिन उसे सार्वजनिक करने की कोई वजह समझ नही आती। अब चूँकि भारत बड़ी विविधताओं और तमाम भिन्न समूहों का देश है जिसमें सबके अपने अपने पूर्वाग्रह है। इसके बावजूद भी एक दूसरे पर निर्भरता अपरिहार्य है। चिंता की बात उभर रही उस प्रवृत्ति को लेकर भी है जिसके तहत अपने अपने व्यक्तिगत या राजनीतिक हितों को साधने के लिए सुनियोजित अशिष्टता और अमर्यादित भाषा का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है। इसमें सभी राजनीतिक दल और विचारधारा के स्वयंभू मशीहा बगैर किसी भेदभाव और संकोच के शामिल है। फिर भी यही वास्तविकता है कि बिना समावेशी दृष्टि अपनाये न समाज को गति दी जा सकती ना ही राजनीति को।
ये मुद्दाविहीन राजनीति का नया कुचक्र है, जिसे मीडियाई होंड लगातार पोषित कर रहा है। राजनीति या सामाजिक जीवन में भाषा और व्यवहार का अपना महत्व है। साथ ही निजता भी उसका अधिकार है। लेकिन, आज का मीडिया तो ब्रेकिंग न्यूज़ और बिकाऊ खबर को ही अपनी ज़िम्मेदारी मान चुका है और साधारण घटना को सनसनीखेज बना देने में महारत करता जा रहा है। फ़िजूल की ख़बरों को अनदेखा भी किया जा सकता है, लेकिन ऐसा न होने से इन उन तत्वों को बल मिलता है जो विवादास्पद बयानबाज़ी के लिए ही जाने जाते हैं। फेसबुक और ट्विटर की बातों को छोड़ दिया जाये तो भी टाइम्स ऑफ़ इंडिया के मुख्य पृष्ठ पर दयाशंकर सिंह की बेटी का जो बयान छपता है, उसपर कतई विश्वास नहीं होता कि वह बयान कोई 12 वर्ष की बेटी दे सकती है। अगर ऐसा हो रहा है तो कहाँ से पैदा हुई है यह संस्कृति जहाँ शिकार और हथियार दोनों ही महिलाएं हैं।और इस तरह की छिछली राजनीति से जब राजनीतिक मजबूती का आकलन किया जाने लगे और पूरा समाज उसी बहस में शामिल हो जाये तो समझ लेना चाहिये समाज अपना विवेक खो रहा है। ऑफ़ रिकॉर्ड गालियों के तकिया कलाम बनाकर बातचीत करने वालों का इस तरह सार्वजनिक हो जाने पर नैतिकता की बात करना बेमानी तो है ही और उससे भी ज़्यादा नुकसानदेह भी है।
ऐसी बयानबाजी और प्रवृत्ति को जब तक सामाजिक अपराध घोषित नही किया जायेगा तबतक ऐसे तमाम दयाशंकर और नसीमुद्दीन के लोग विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच विष घोलते रहेंगे। बेरोज़गारी, समान शिक्षा, स्वास्थ्य, मर्यादा के साथ जीवन जीने और महिला की अस्मिता और भूमिका से जुड़े सवालों को मुद्दा बनाने के बजाय अगर गालियों पर चर्चा हो रही है तो निश्चित जानिए कि राजनीतिज्ञ लोकतन्त्र के विकल्पहीन होने का नाजायज़ फ़ायदा उठा रहे हैं।