भारत ने दिया कड़ा संदेश पुतिन की यात्रा से पहले ब्रिटेन-फ्रांस-जर्मनी के संयुक्त लेख ने बढ़ाया भू-राजनीतिक तनाव

रिपोर्ट : विजय तिवारी
नई दिल्ली।
रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के भारत दौरे से ठीक पहले अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में भूचाल आ गया है। ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के शीर्ष राजनयिकों द्वारा एक राष्ट्रीय दैनिक में प्रकाशित संयुक्त लेख ने न केवल यूक्रेन युद्ध को लेकर रूस पर तीखा हमला बोला, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से भारत की विदेश नीति, विशेषकर उसकी रणनीतिक स्वायत्तता, को चुनौती देने की कोशिश भी की।
इस लेख में रूस की युद्ध नीति को अंतरराष्ट्रीय कानून के विपरीत बताते हुए कहा गया कि यूक्रेन संघर्ष में रूस शांति स्थापना का इच्छुक नहीं है और वैश्विक स्थिरता को बाधित कर रहा है। इसके साथ-साथ लेख में यह संकेत देने की भी कोशिश की गई कि लोकतांत्रिक देशों को ऐसे राष्ट्रों से दूरी बनानी चाहिए जो “युद्ध और आक्रमण” को बढ़ावा दें।
लेकिन इस बयानबाज़ी का समय बेहद संवेदनशील था, क्योंकि रूस और भारत के बीच पुतिन की यात्रा के दौरान रक्षा, ऊर्जा और व्यापार से जुड़े अहम समझौतों की संभावनाएँ मजबूत मानी जा रही हैं। यहीं से विवाद की वास्तविक शुरुआत हुई।
भारत की सख्त प्रतिक्रिया — “असामान्य”, “अस्वीकार्य” और “कूटनीतिक मर्यादा के खिलाफ”
भारत के विदेश मंत्रालय ने इस लेख पर कड़ी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि—
“भारत अपनी विदेश नीति राष्ट्रीय हितों के आधार पर स्वयं तय करता है। सार्वजनिक मंचों पर इस प्रकार की सलाह या दबाव का प्रयास न तो स्वीकार्य है और न ही यह उचित कूटनीतिक प्रक्रिया का हिस्सा है।”
विदेश मंत्रालय ने साफ किया कि किसी तीसरे देश के साथ भारत के संबंधों पर इस तरह खुलकर टिप्पणी करना कूटनीतिक मर्यादा का गंभीर उल्लंघन है।
पूर्व राजनयिकों ने भी इसे “डिप्लोमैटिक प्रोटोकॉल” के खिलाफ बताते हुए कहा कि ऐसे वक्त में यह कदम भारत पर अप्रत्यक्ष दबाव बनाने की सोची-समझी रणनीति प्रतीत होती है।
पश्चिमी कूटनीति का उद्देश्य क्या? — दबाव या रणनीतिक संकेत
कई विश्लेषकों का मानना है कि यह लेख किसी सामान्य राय के रूप में नहीं आया, बल्कि यह पश्चिमी देशों द्वारा भारत को रूस से दूरी बनाने के संकेत देने का प्रयास है।
भारत-रूस संबंध दशकों से मजबूत रहे हैं —
रक्षा सौदों में रूस भारत का सबसे बड़ा भागीदार है।
ऊर्जा क्षेत्र में रूसी कच्चे तेल से भारत को आर्थिक लाभ मिला है।
दोनों देशों के बीच वैज्ञानिक, अंतरिक्ष और परमाणु सहयोग भी लगातार बढ़ रहा है।
इसी पृष्ठभूमि में इस लेख को एक “रणनीतिक दबाव” की तरह देखा जा रहा है।
पुतिन की यात्रा क्यों इतनी महत्वपूर्ण?
रूसी राष्ट्रपति की यात्रा के दौरान—
रक्षा सहयोग के लिए RELOS (लॉजिस्टिक सपोर्ट फ्रेमवर्क) समझौते को अंतिम रूप दिया जा सकता है, जिससे दोनों देशों की सेनाएँ एक-दूसरे की सैन्य सुविधाओं का उपयोग कर सकेंगी।
एस-400 एयर डिफेंस सिस्टम, संयुक्त उत्पादन और आधुनिक हथियार तकनीक पर भी चर्चा की संभावना है।
ऊर्जा क्षेत्र, परमाणु संयंत्र परियोजनाओं और कच्चे तेल आयात पर भी प्रमुख समझौते सम्भव हैं।
व्यापार संतुलन और रुपये-रूबल भुगतान व्यवस्था पर भी बातचीत की उम्मीद है।
इन सभी मुद्दों का प्रभाव केवल द्विपक्षीय नहीं, बल्कि वैश्विक शक्ति-संतुलन पर भी पड़ सकता है। यही वजह है कि पश्चिम इन संभावनाओं से असहज दिख रहा है।
भारत के लिए चुनौती — संतुलन बनाना, दबाव नहीं मानना -
भारत बीते कुछ वर्षों में यह स्पष्ट कर चुका है कि वह किसी भी ब्लॉक राजनीति का हिस्सा नहीं बनेगा।
भारत न तो अमेरिका-यूरोप के दबावों में आता है,
और न ही रूस-चीन धुरी का अंध समर्थन करता है।
भारत की नीति हमेशा से यह रही है कि—
“विदेश नीति राष्ट्रहित-केंद्रित होगी, न कि बाहरी दबाव पर आधारित।”
भारत वैश्विक शक्ति संतुलन में आज एक निर्णायक भूमिका निभा रहा है, और इसी कारण पश्चिमी देशों की अपेक्षा और दबाव भी लगातार बढ़ रहे हैं।
चर्चा के केंद्र में उठते बड़े सवाल -
1. क्या यह लेख भारत की विदेश नीति में दखल देने की कोशिश है?
2. क्या राजदूतों द्वारा सार्वजनिक टिप्पणी कूटनीतिक शिष्टाचार का उल्लंघन है?
3. क्या पश्चिम भारत-रूस संबंधों को कमजोर करने की रणनीति पर काम कर रहा है?
4. क्या यह घटना नए वैश्विक ध्रुवीकरण के युग की शुरुआत का संकेत है?
इन प्रश्नों ने बहस को एक लेख से आगे बढ़ाकर वैश्विक कूटनीति और शक्ति-संघर्ष के स्तर तक पहुँचा दिया है।
निर्णायक स्वर के साथ आगे बढ़ता भारत -
यह विवाद केवल एक लेख का नहीं, बल्कि उस बदलते वैश्विक परिदृश्य का प्रतीक है, जहाँ भारत अब प्रभावित होने वाला देश नहीं बल्कि निर्णय लेने वाली शक्ति के रूप में उभर रहा है।
आज भारत का संदेश पूरी दुनिया के लिए स्पष्ट है —
“नीति राष्ट्रीय हितों के आधार पर तय होगी, किसी विदेशी दबाव पर नहीं।”
पुतिन की यात्रा अब पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण और संवेदनशील हो गई है। यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले वर्षों में भारत अपने रणनीतिक साझेदारी के दायरे को किस दिशा में आगे ले जाता है।




