नेहरू से लेकर आज तक कांग्रेस ने वंदे मातरम् का विरोध किया : अमित शाह

150 वर्ष पूरे होने पर संसद में गरमाई बहस, राष्ट्रीय गीत पर राजनीति, धर्मनिरपेक्षता और इतिहास आमने–सामने
रिपोर्ट : विजय तिवारी
नई दिल्ली।
वंदे मातरम् की रचना को 150 वर्ष पूरे होने के मौके पर संसद में हुई विशेष चर्चा ने सियासत को एक बार फिर गर्म कर दिया है। लोकसभा के बाद मंगलवार को राज्यसभा में भी राष्ट्रीय गीत पर लंबी बहस हुई। इस दौरान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कांग्रेस और उसके नेतृत्व पर सीधा हमला बोलते हुए आरोप लगाया कि “नेहरू से लेकर आज तक कांग्रेस ने वंदे मातरम् का विरोध किया, इसे काटा-छांटा और तुष्टीकरण की राजनीति के लिए इस्तेमाल किया।”
सरकार इसे स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा और राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक बता रही है, जबकि विपक्ष इस बहस के समय और तरीके पर सवाल उठाते हुए इसे राजनीतिक मकसद से जोड़ रहा है।
वंदे मातरम् पर विशेष बहस क्यों?
वंदे मातरम् की रचना बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय ने 19वीं शताब्दी में की थी। यह गीत स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ प्रथम बड़े राष्ट्रीय नारे और प्रेरणा–स्रोत के रूप में उभरा। बाद में 1937 में कांग्रेस के नेतृत्व में सार्वजनिक आयोजनों में इसके केवल पहले दो पदों को गाने का फैसला लिया गया, क्योंकि आगे के पदों में देवी–उपासना और धार्मिक प्रतीकों का उल्लेख होने के कारण साम्प्रदायिक संवेदनशीलता का तर्क दिया गया था।
अब 150 वर्ष पूरे होने पर केंद्र सरकार ने संसद में इस गीत की पूरी पृष्ठभूमि, इतिहास और वर्तमान संदर्भ पर चर्चा का प्रस्ताव रखा। सत्ता पक्ष का दावा है कि यह “राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय आत्मचिंतन की बहस” है, जबकि विपक्ष कह रहा है कि इसे चुनावी राजनीति और ध्रुवीकरण से जोड़ा जा रहा है।
अमित शाह का हमला : “कांग्रेस के खून में वंदे मातरम् का विरोध”
राज्यसभा में चर्चा की शुरुआत करते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि वंदे मातरम् “भारत की आत्मा की आवाज़” है और इसे सीमित करना देश की आत्मा को सीमित करने जैसा है। उन्होंने कहा –
1937 में पंडित जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में वंदे मातरम् को दो हिस्सों में बांटा गया, केवल दो पद स्वीकार किए गए।
शाह के मुताबिक, “यहीं से तुष्टीकरण की राजनीति की शुरुआत हुई, जिसने आगे चलकर देश के विभाजन को आसान बनाया।”
उन्होंने आरोप लगाया कि “नेहरू से लेकर आज तक कांग्रेस की सोच वंदे मातरम् के प्रति संकोच और विरोध की रही है। जब भी राष्ट्रगीत की पूरी गरिमा से बात होती है, कांग्रेस या तो सवाल उठाती है या पीछे हट जाती है।”
अमित शाह ने यह भी कहा कि वंदे मातरम् किसी एक राज्य, भाषा या समुदाय का गीत नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारत की आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है, और आने वाली पीढ़ियों को इसके ऐतिहासिक महत्व से परिचित कराना समय की जरूरत है।
सरकार की लाइन : सिर्फ गीत नहीं, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रतीक
सत्ता पक्ष का तर्क है कि वंदे मातरम् ने आज़ादी की लड़ाई के दौर में लाखों भारतीयों के भीतर स्वाधीनता की ज्वाला जगाई।
सरकार और भाजपा के नेताओं के मुख्य संदेश इस प्रकार हैं –
वंदे मातरम् केवल शब्दों का समूह नहीं, बल्कि मातृभूमि के प्रति समर्पण, त्याग और संघर्ष की सामूहिक स्मृति है।
150 वर्ष बाद देश को यह गीत उसके “पूर्ण स्वरूप” में याद करना चाहिए, ताकि नई पीढ़ी को भी पता चले कि किस भावभूमि पर यह रचना खड़ी है।
सत्ता पक्ष यह भी बता रहा है कि स्वतंत्रता संग्राम के कई आंदोलन, जुलूस और सत्याग्रह इसी गीत की धुन और नारे पर आगे बढ़े, ऐसे में इसे संदेह की नज़र से देखना अन्याय है।
सरकार की ओर से बार-बार यह संदेश दिया जा रहा है कि चर्चा का उद्देश्य किसी समुदाय को निशाना बनाना नहीं, बल्कि “राष्ट्रवाद की साझा धारा” को रेखांकित करना है।
कांग्रेस और विपक्ष का जवाब : “जिस गीत से आज़ादी की आवाज़ उठी, उसी को हमसे मत छीनिए”
दूसरी तरफ कांग्रेस और विपक्षी दलों ने सरकार के आरोपों को इतिहास के साथ खिलवाड़ बताया।
कांग्रेस नेताओं का दावा है कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान वंदे मातरम् को सबसे अधिक मंच उसी पार्टी ने दिया, और हजारों कांग्रेस कार्यकर्ता यह गीत गाते हुए जेल गए।
उनका कहना है कि 1937 का निर्णय किसी विरोध का नहीं, बल्कि समावेश का प्रयास था, ताकि गीत के उन हिस्सों को सार्वजनिक आयोजनों से अलग रखा जा सके, जिन्हें कुछ समुदाय धार्मिक रूप से स्वीकार नहीं कर पाते।
विपक्ष का आरोप है कि भाजपा आज जिसके नाम पर राजनीति कर रही है, उस गीत को राष्ट्रीय पहचान और व्यापक स्वीकृति दिलाने में कांग्रेस की ऐतिहासिक भूमिका रही है, जिसे आज जानबूझकर भुलाया जा रहा है।
कई विपक्षी सांसदों ने यह भी कहा कि अगर सरकार वास्तव में वंदे मातरम् की भावना का आदर करती है, तो उसे बेरोज़गारी, महँगाई, किसानों और कमजोर वर्गों के मुद्दों पर भी उसी जोश से काम करना चाहिए, क्योंकि मातृभूमि की सच्ची वंदना जनता के कल्याण में ही है।
अल्पसंख्यक पक्ष की दलील : भक्ति बनाम राष्ट्रभक्ति का फर्क
बहस का एक महत्वपूर्ण आयाम धार्मिक स्वतंत्रता और संवैधानिक अधिकारों से जुड़ा है। कुछ मुस्लिम और अन्य अल्पसंख्यक संगठनों ने स्पष्ट कहा है कि उन्हें इस गीत के बाद के पदों में देवी-उपासना और “मातृभूमि को देवी का रूप देकर पूजा” जैसे भावों पर आपत्ति है।
उनका तर्क है :
वंदे मातरम् के प्रारंभिक दो पदों में मातृभूमि के प्रति सम्मान और प्रेम की भावना है, जिसे कई लोग स्वीकार करते हैं, लेकिन आगे के हिस्सों में पूजा और आराधना की भाषा है, जो एकेश्वरवाद की मान्यता से टकराती है।
किसी नागरिक की राष्ट्रभक्ति की कसौटी इस बात पर नहीं रखी जा सकती कि वह कोई विशेष गीत गाता है या नहीं।
संविधान ने सभी को अपनी धार्मिक आस्था के अनुसार आचरण करने का अधिकार दिया है; ऐसे में किसी गीत को पूरे स्वरूप में अनिवार्य करना धर्मनिरपेक्ष संरचना से मेल नहीं खाता।
अल्पसंख्यक प्रतिनिधियों का कहना है कि वे देश और संविधान के प्रति समर्पित हैं, लेकिन उनसे यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए कि वे अपनी धार्मिक मान्यताओं के विरुद्ध जाकर किसी गीत को “भक्ति गीत” की तरह स्वीकार करें।
बहस के असली सवाल : इतिहास सुधार या राजनीतिक ध्रुवीकरण?
वंदे मातरम् पर संसद की बहस ने कई मूलभूत प्रश्न खड़े कर दिए हैं –
1. क्या 150 साल बाद हम इतिहास को “पूर्ण रूप से” पुनर्स्थापित कर रहे हैं या उसे राजनीतिक चश्मे से दोबारा गढ़ रहे हैं?
2. क्या राष्ट्रीय पहचान और सांस्कृतिक गौरव की पुनर्पुष्टि के नाम पर धार्मिक संवेदनशीलता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर दबाव पड़ेगा?
3. क्या यह बहस सचमुच राष्ट्रगौरव के लिए है या आगामी चुनावों और राजनीतिक ध्रुवीकरण की रणनीति का हिस्सा है?
सत्तापक्ष का कहना है कि यह “संस्कृति और राष्ट्रवादी चेतना का पुनर्जागरण” है। विपक्ष और कई सामाजिक–धार्मिक समूह इसे “वोट बैंक और भावनात्मक ध्रुवीकरण की कोशिश” बता रहे हैं।
एक गीत, कई अर्थ – फैसला समाज को करना है।
वंदे मातरम् भारत के इतिहास, स्वतंत्रता संग्राम और सांस्कृतिक स्मृति का अहम हिस्सा है। यह भी सच है कि उसी गीत के कुछ हिस्सों ने दशकों से धार्मिक–संवैधानिक बहस को जन्म दिया है। संसद की मौजूदा बहस ने इस पुराने विवाद को नए सिरे से जगा दिया है।
अब सवाल केवल इतना नहीं है कि वंदे मातरम् के कितने पद गाए जाएं, बल्कि यह भी है कि –
क्या हम अपनी विविधता और आस्था की स्वतंत्रता को बनाए रखते हुए एक साझा राष्ट्रगान–राष्ट्रगीत की गरिमा बचा पाते हैं या नहीं,
और क्या राजनीतिक नजरिये से ऊपर उठकर यह तय कर पाते हैं कि देशभक्ति का अर्थ किसी एक गीत तक सीमित है, या उससे कहीं अधिक व्यापक।
फिलहाल, वंदे मातरम् संसद से लेकर सड़क तक, टीवी स्टूडियाें से लेकर सोशल मीडिया तक, हर मंच पर बहस का केंद्र बना हुआ है। आने वाले दिनों में सरकार इस बहस को किस दिशा में ले जाती है, और समाज इसे कैसे ग्रहण करता है – यही तय करेगा कि 150 साल बाद भी यह गीत हमें जोड़ेगा या हमें और बाँटेगा।




