गवर्नर द्वारा बिलों को मंजूरी देने के लिए टाइमलाइन तय नहीं की जा सकती: सुप्रीम कोर्ट

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को प्रेसिडेंशियल रेफरेंस मामले पर ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए राज्यपालों की विधायी शक्तियों और उनकी सीमाओं को स्पष्ट कर दिया. शीर्ष अदालत ने साफ कहा कि किसी भी राज्यपाल के पास यह अधिकार नहीं कि वे किसी विधेयक (Bill) को रोककर रखें.
चीफ जस्टिस बीआर गवई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने कहा कि राज्यपाल के पास बिल पर निर्णय लेने के केवल तीन ही संवैधानिक विकल्प हैं.
1. मंज़ूरी देना (Assent)
2. राष्ट्रपति के पास भेजना (Reserve for President)
3. विधानसभा को वापस भेजना (Return to Legislature)
कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल किसी बिल को बिना निर्णय के लंबित नहीं रख सकते. ऐसा करने का कोई संवैधानिक आधार नहीं है.
राज्यपाल को निर्णय देने की समय-सीमा तय करने की मांग को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया. CJI गवई ने कहा, 'अनुच्छेद 200 और 201 में लचीलापन संवैधानिक रूप से डिज़ाइन किया गया है. इसलिए अदालत या विधानमंडल किसी निश्चित टाइमलाइन को राज्यपाल या राष्ट्रपति पर थोप नहीं सकते.'
'दूसरी संस्था राज्यपाल की भूमिका नहीं ले सकती'
कुछ राज्यों ने तर्क दिया था कि यदि राज्यपाल समय पर फैसला न दें तो इसे 'डीम्ड एसेंट' यानी स्वीकृति मान लिया जाए. लेकिन अदालत ने इस विचार को सिरे से खारिज कर दिया.
CJI गवई ने कहा, 'डीम्ड एसेंट का अर्थ होगा कि कोई दूसरी संस्था राज्यपाल की भूमिका संभाल ले। यह शक्तियों के पृथकीकरण (Separation of Powers) के खिलाफ है. हमें कोई हिचक नहीं कि यह एक संवैधानिक प्राधिकारी के कार्यों का अधिग्रहण है.'
‘बिल रोके रखने' की शक्ति सीमित
सुप्रीम कोर्ट ने बिल को रोके रखने की शक्ति को भी सीमित कर दिया. कोर्ट ने कहा, 'राज्यपाल के पास साधारण रूप से किसी बिल को रोके रखने का अधिकार नहीं है. यह शक्ति केवल दो स्थितियों में इस्तेमाल की जा सकती है.
जब बिल को राष्ट्रपति के पास भेजने का इरादा हो, या
जब बिल को टिप्पणी सहित विधानसभा को वापस भेजना हो.
अदालत ने यह भी साफ किया कि यह व्याख्या राज्यपाल को असीमित अधिकार नहीं देती.




