पितृपक्ष से जुड़े 10 जरूरी नियम, जिनकी अनदेखी करने पर पुण्य की जगह लगता है पाप

सनातन परंपरा में आश्विन मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से लेकर सर्वपितृ अमावस्या के समय के बीच पितृपक्ष मनागया जाता है. पितृपक्ष में दिवंगत आत्माओं की मुक्ति के लिए विशेष पूजा जैसे श्राद्ध , तर्पण और पिंडदान किया जाता है. पितृपक्ष जिसे महालय भी कहा जाता है, उसमें श्रद्धा के अनुसार श्राद्ध करने पर पितरों का आशीर्वाद और पुण्य फल की प्राप्ति होती है. पौराणिक मान्यता के अनुसार पितृपक्ष में विधि-विधान से श्राद्ध करने पर कुल की वृद्धि होती है और पितरों के आशीर्वाद से व्यक्ति को सुख-सौभाग्य की प्राप्ति होती है, लेकिन इससे जुड़े कुछ नियम भी हैं, जिनकी अनदेखी करने पर पुण्य की जगह पितरों की नाराजगी झेलनी पड़ती है. आइए श्राद्ध से जुड़े महत्वपूर्ण नियमों के बारे में जानते हैं.
पितरों के लिए किया जाने वाला श्राद्ध हमेशा कृष्णपक्ष में उत्तम माना गया है. इसी प्रकार श्राद्ध और तर्पण आदि के लिए पूर्वाह्न की बजाय अपराह्न का समय ज्यादा पुण्यदायी होता है.
हिंदू मान्यता के अनुसार पूर्वाह्न और शुक्लपक्ष में तथा अपने जन्मदिन के दिन कभी श्राद्ध नहीं करना चाहिए.
हिंदू मान्यता के अनुसार पूर्वाह्न और शुक्लपक्ष में तथा अपने जन्मदिन के दिन कभी श्राद्ध नहीं करना चाहिए.
श्राद्ध से जुड़े कर्म दिन शाम को सूर्य डूबते समय और रात्रि के समय कभी भूलकर नहीं करा चाहिए क्योंकि इसे राक्षसी बेला माना गया है. मान्यत है कि इस दौरान किए गये श्राद्ध का पुण्यफल नहीं प्राप्त होता है.
श्राद्ध कभी दूसरे की जमीन अथवा घर में जाकर नहीं करना चाहिए. यदि स्वयं के घर में श्राद्ध करने में मुश्किल आए तो किसी देवालय, तीर्थ, नदी किनारे, वन आदि में जाकर करना चाहिए.
श्राद्ध में भोजन करने के लिए तीन या फिर एक ब्राह्मण को बुलाना चाहिए. श्राद्ध के कार्य के लिए गाय के घी और दूध का प्रयोग में लाना चाहिए.
श्राद्ध में किसी भी ब्राह्मण को श्रद्धा और आदर के साथ भोजन के लिए आमंत्रित करना चाहिए और उसे भोजन कराते समय अथवा उसे कुछ भी दान करते समय अभिमान नहीं करना चाहिए.
ब्राह्मण को भी श्राद्ध का भोजन मौन रखकर करना चाहिए और उसे व्यंजनों की या फिर यजमान को प्रसन्न करने के लिए प्रशंसा नहीं करना चाहिए.
पितरों के लिए किए जाने वाले श्राद्ध में किसी मित्र को नहीं बुलाना चाहिए. मान्यता है कि श्राद्ध के भेजन पर मित्र को बुलाकर उसे उपकृत करने से श्राद्ध पुण्यहीन हो जाता है.
श्राद्ध के लिए हमेशा कुतपकाल में ही दान करना उत्तम माना गया है.