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हिंदू राष्ट्र में न्यायाधीश बनने की पहली शर्त वेद-शास्त्रों का ज्ञान होना चाहिए : वरिष्ठ अधिवक्ता हरिशंकर जैन

हिंदू राष्ट्र में न्यायाधीश बनने की पहली शर्त वेद-शास्त्रों का ज्ञान होना चाहिए : वरिष्ठ अधिवक्ता हरिशंकर जैन
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वरिष्ठ अधिवक्ता हरिशंकर जैन ने कहा है कि “भारत जब हिंदू राष्ट्र बनेगा तो न्यायाधीश बनने की पहली शर्त यह होगी कि वह वेदों और शास्त्रों का ज्ञाता हो।”यह बयान उन्होंने “प्राच्यम” चैनल पर दिए एक इंटरव्यू में दिया, जिसे बाद में उनके पुत्र और अधिवक्ता विष्णु जैन ने अपने आधिकारिक एक्स (पूर्व ट्विटर) अकाउंट से साझा किया।



कई प्रमुख मामलों में कर रहे पैरवी -

हरिशंकर जैन लंबे समय से हिंदू पक्ष से जुड़े धार्मिक स्थलों और सांस्कृतिक धरोहरों के मामलों की पैरवी कर रहे हैं।

ज्ञानवापी विवाद : वाराणसी स्थित ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में हिंदू पक्ष की ओर से उनकी सक्रिय पैरवी रही है।

काशी विश्वनाथ मंदिर परिसर : विवादित भूमि को लेकर दाखिल याचिकाओं में उन्होंने हिंदू पक्ष का पक्ष रखा।

मथुरा श्रीकृष्ण जन्मभूमि मामला : शाही ईदगाह मस्जिद से जुड़े मुकदमों में भी वे वकील के तौर पर लगातार उपस्थित हैं।

इसके अलावा अयोध्या, खजुराहो और अन्य प्राचीन मंदिरों से जुड़े विवादों में भी वे अदालत में अपनी दलीलें पेश कर चुके हैं।


हिंदुत्ववादी दृष्टिकोण -

जैन का कहना है कि आजादी के बाद से अब तक न्यायपालिका पूरी तरह पश्चिमी कानून व्यवस्था पर आधारित रही है। लेकिन हिंदू राष्ट्र की अवधारणा में न्याय प्रणाली को धर्मशास्त्रों और वेद-विधानों के अनुरूप होना चाहिए। उनका तर्क है कि जब तक न्यायाधीश प्राचीन शास्त्रों का गहन अध्ययन नहीं करेंगे, तब तक भारतीय संस्कृति और परंपरा के अनुरूप न्याय संभव नहीं है।

वर्तमान स्थिति -

भारतीय संविधान में सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट का न्यायाधीश बनने के लिए योग्यता स्पष्ट रूप से तय की गई है —

भारतीय नागरिक होना,

न्यूनतम पाँच वर्ष तक उच्च न्यायालय में न्यायाधीश होना या

दस वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रहना।

कानून में धार्मिक ग्रंथों के ज्ञान को अभी तक कोई अनिवार्य शर्त नहीं बनाया गया है।


सोशल मीडिया और जन प्रतिक्रियाएँ

समर्थन -

अधिवक्ता विष्णु जैन ने अपने ट्वीट में पिता के बयान का समर्थन करते हुए कहा कि न्यायपालिका में सांस्कृतिक और धार्मिक मूल्यों का ज्ञान होना चाहिए, ताकि भारतीय समाज की परंपरा और भावना को न्याय में स्थान मिले।

कई हिंदुत्व समर्थक यूजर्स ने लिखा कि “परंपरा बहाल होनी चाहिए” और न्यायिक व्यवस्था को भारतीय धर्मशास्त्रों की जड़ों से जोड़ा जाना चाहिए।

विरोध -

कुछ कानूनविदों और नागरिकों ने कहा कि यह विचार संविधान की मूल भावना के खिलाफ है। उनका मानना है कि न्यायपालिका को धर्मनिरपेक्ष होना चाहिए और न्यायाधीशों की योग्यता केवल विधिक ज्ञान और अनुभव पर आधारित रहनी चाहिए।

आलोचकों का कहना है कि अगर धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन अनिवार्य किया गया तो यह अल्पसंख्यकों और गैर-हिंदू समुदायों के लिए न्यायपालिका में असमानता और पक्षपात को जन्म देगा।

कुछ यूजर्स ने सवाल उठाया कि “क्या धर्म आधारित योग्यता से न्यायिक स्वतंत्रता पर असर नहीं पड़ेगा?”

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