आरक्षित सीटें खाली, रोडवेज़ में न नेता चढ़ते, न पत्रकार को मिलती जगह, सांसद-विधायक निजी गाड़ियों में व्यस्त, पत्रकारों को परिचालकों से करना पड़ता संघर्ष

आनंद प्रकाश गुप्ता/के0के0 सक्सेना
उत्तर प्रदेश ।राज्य परिवहन निगम की बसों में कई विशेष श्रेणियों के लिए सीटें आरक्षित की जाती हैं — जिनमें सांसद, विधायक, पूर्व सांसद, पूर्व विधायक, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और मान्यता प्राप्त पत्रकार शामिल हैं।
इस व्यवस्था का उद्देश्य लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखना और आमजन व जनप्रतिनिधियों के बीच संवाद बनाए रखना है।
लेकिन आज की स्थिति बिल्कुल उलट है — बसों की ये सीटें खाली रहती हैं, क्योंकि इनका उपयोग करने वाले या तो चढ़ते नहीं या चढ़ते हैं तो बैठने नहीं दिया जाता।
-वर्तमान स्थिति
जनप्रतिनिधियों को अब रोडवेज बसों में यात्रा करते देखना दुर्लभ हो गया है।
अधिकतर नेता अब सरकारी या निजी लक्ज़री गाड़ियों में ही चलते हैं।
जब कभी कोई मान्यता प्राप्त पत्रकार इन बसों में यात्रा करता है, तो उसे आरक्षित सीट मिलना भी एक संघर्ष बन गया है।
कई पत्रकारों ने शिकायत की है कि बस परिचालक उन्हें सीट देने से मना कर देते हैं। कई बार परिचालकों को यह जानकारी ही नहीं होती कि पत्रकारों के लिए भी आरक्षण होता है।
आंकड़ों में हकीकत-हाल ही में हुए एक गैर-सरकारी सर्वे और पत्रकार संगठनों के डेटा के अनुसार:
पैरामीटर स्थिति,
केवल 40% बसों में आरक्षित सीटों का व्यवहार पालन करते हैं।
केवल 35% परिचालकों को पत्रकारों के आरक्षण की जानकारी है।
52% पत्रकारों को सीट न देने की शिकायत।
05% से भी कम नेताओं को बस में सफर करते देखा गया।
केवल स्टिकर या बोर्ड तक सीमित आरक्षण 87% बसों में,सिर्फ 30% मामलों में पत्रकारों को सम्मानजनक व्यवहार मिल सका।
जमीनी सच्चाई-एक पत्रकार ने बताया:
> “परिचालक ने कहा — ये कार्ड हम क्या देखें, आगे जाकर बैठिए। मैं लटककर यात्रा करने को मजबूर था।”
वहीं कई यात्रियों ने भी यह देखा है कि आरक्षित सीटें खाली तो रहती हैं, लेकिन किसी जरूरतमंद को बैठने नहीं दिया जाता — कहकर कि "यह सीट सांसद जी की है"।
क्या कहता है विभाग.?
परिवहन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि आरक्षण लागू है और परिचालकों को निर्देश भी दिए गए हैं। लेकिन यदि कहीं पालन नहीं हो रहा, तो उस पर कार्यवाही की जाएगी।
प्रभाव और सवाल-क्या आरक्षण व्यवस्था सिर्फ औपचारिकता बनकर रह गई है?
क्या लोकतंत्र के प्रतिनिधि और स्तंभ जनता से कटते जा रहे हैं?क्या सत्ताधारी और संवाददाता दोनों ही जनता के बीच से हटकर केवल व्यवस्था के हिस्से बनते जा रहे हैं.?
निष्कर्ष-आरक्षित सीटें केवल प्रतीक नहीं हैं — ये लोकतंत्र की भागीदारी और समानता का संकेत हैं।
जब न नेता बस में दिखें और पत्रकार को लटक कर चलना पड़े — तो सवाल केवल व्यवस्था पर नहीं, पूरे लोकतांत्रिक सोच पर उठते हैं।
आने वाले समय में नीति के साथ व्यवहार में बदलाव की अब जरूरत है।