छठ पूजा
आज आह्लादित है आकाश
नदी-सरोवर बीच
समभाव जनित उदात्त संस्कृति का प्रकाश
देखता हुआ सूर्य
तूर्य बजाकर कहा कि
प्रेम, मैत्री, अहिंसा, सह-अस्तित्व और करुणा
लोकपर्व की पहचान हैं
सूर्योदय के स्वर में
स्त्रियों की गरिमा का गान है!
अँधेरे में उजाले के व्रत
उनकी सप्तरंगी सत्य से बड़े हैं
वे अर्घ्य के लिए खड़े हैं
जहाँ व्रती के मन में स्व का सर्व है
हृदय का हठ
लेकिन स्त्रियों के रुदन के प्रत्याख्यान का पर्व है छठ!
मिट्टी के चूल्हे पर
खीर, हलवा, पूड़ी और ठेकुआ आदि
भाँति-भाँति के व्यंजन बनाकर
बाँस की दौरी, छिटवा व सूप में सजाकर
गेहूँ, चना, ऊख, केला और सिंघाड़ा
यानी तरह-तरह के फूल-फल
अक्षत-वक्षत
पीले परिधानों से ढककर
ढोलक के साथ
घाट की ओर चली हैं छठ की औरतें
उनके स्वागत के लिए
समय उतर रहा है काले पानी में
जलकुंभी अपनी ज़िम्मेदारियाँ समझ रही है
किन्तु काइयाँ कह रही हैं कि
सोच की सेवार
विचार है
यह मछलियों के प्यार का त्योहार है
मछलियाँ अपनी संतान को भर पेट
खिला रही हैं प्रसाद
गागर, निम्बू और सुथनी के स्वाद
मानवीय मंगल विधायनी शक्ति के सूचक हैं
पुरोहिततंत्र के प्रवेश पर प्रतिबंध लगा है
इस पर्व के प्रवेशद्वार पर
व्रतपारिणी की श्रद्धा, भक्ति और आस्था हैं
जो उसे रोकी हुई हैं
बाँझिन की संज्ञा से मुक्ती पाने पर
मातृत्व की प्रसन्नता की पंक्ति है
कि उपासिकाओं की नाक से माथे तक सिंदूर का तेज
प्रेमात्मपरिष्कार का नया पेज है
आओ कार्तिक के कल्लोलित किरणे!
अवनि पर ओस के आँसू की सेज है!
©गोलेन्द्र पटेल
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2).
मेरा दुःख मेरा दीपक है---
जब मैं अपने माँ के गर्भ में था
वह ढोती रही ईंट
जब मेरा जन्म हुआ वह ढोती रही ईंट
जब मैं दुधमुंहाँ शिशु था
वह अपनी पीठ पर मुझे
और सर पर ढोती रही ईंट
मेरी माँ, माईपन का महाकाव्य है
यह मेरा सौभाग्य है कि मैं उसका बेटा हूँ
मेरी माँ लोहे की बनी है
मेरी माँ की देह से श्रम-संस्कृति के दोहे फूटे हैं
उसके पसीने और आँसू के संगम पर
ईंट-गारे, गिट्टी-पत्थर,
कोयला-सोयला, लोहा-लक्कड़ व लकड़ी-सकड़ी के स्वर सुनाई देते हैं
मेरी माँ के पैरों की फटी बिवाइयों से पीब नहीं,
प्रगीत बहता है
मेरी माँ की खुरदरी हथेलियों का हुनर गोइंठा-गोहरा
की छपासी कला में देखा जा सकता है
मेरी माँ धूल, धुएँ और कुएँ की पहचान है
मेरी माँ धरती, नदी और गाय का गान है
मेरी माँ भूख की भाषा है
मेरी माँ मनुष्यता की मिट्टी की परिभाषा है
मेरी माँ मेरी उम्मीद है
चढ़ते हुए घाम में चाम जल रहा है उसका
वह ईंट ढो रही है
उसके विरुद्ध झुलसाती हुई लू ही नहीं,
अग्नि की आँधी चल रही है
वह सुबह से शाम अविराम काम कर रही है
उसे अभी खेतों की निराई-गुड़ाई करनी है
वह थक कर चूर है
लेकिन उसे आधी रात तक चौका-बरतन करना है
मेरे लिए रोटी पोनी है, चिरई बनानी है
क्योंकि वह मजदूर है!
अब माँ की जगह मैं ढोता हूँ ईंट
कभी भट्ठे पर, कभी मंडी का मजदूर बन कर शहर में
और कभी-कभी पहाड़ों में पत्थर भी तोड़ता हूँ
काटता हूँ बोल्डर बड़ा-बड़ा
मैं गुरु हथौड़ा ही नहीं
घन चलाता हूँ खड़ा-खड़ा
टाँकी और चकधारे के बीच मुझे मेरा समय नज़र आता है
मैं करनी, बसूली, साहुल, सूता, रूसा व पाटा से संवाद करता हूँ
और अँधेरे में ख़ुद बरता हूँ दुख
मेरा दुख मेरा दीपक है!
मैं मजदूर का बच्चा हूँ
मजदूर के बच्चे बचपन में ही बड़े हो जाते हैं
वे बूढ़ों की तरह सोचते हैं
उनकी बातें
भयानक कष्ट की कोख से जन्म लेती हैं
क्योंकि उनकी माँएँ
उनके मालिक की किताबों के पन्नों पर
उनका मल फेंकती हैं
और उनके बीच की कविता सत्ता का प्रतिपक्ष रचती है।
मेरी माँ अब वही कविता बन गयी है
जो दुनिया की ज़रूरत है!
©गोलेन्द्र पटेल
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कवि व लेखक : गोलेन्द्र पटेल
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