हाईकोर्ट का बड़ा फैसला : रामपुर सीआरपीएफ कैंप हमले के आरोपियों की फांसी की सजा रद्द, जांच में खामियों पर उठे गंभीर सवाल

डेस्क रिपोर्ट : विजय तिवारी
लखनऊ/प्रयागराज। साल 2007 के आखिर में उत्तर प्रदेश के रामपुर सीआरपीएफ कैंप पर हुए हमले से जुड़े बहुचर्चित मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने बुधवार को अहम फैसला सुनाया। अदालत ने निचली अदालत द्वारा सुनाई गई चार आरोपियों की फांसी और एक आरोपी की उम्रकैद की सजा को रद्द कर दिया, जबकि हथियार रखने से जुड़े आरोप में दस वर्ष की सजा और जुर्माना बरकरार रखा गया।
यह फैसला हाईकोर्ट की दो सदस्यीय खंडपीठ — न्यायमूर्ति सिद्धार्थ वर्मा और न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्र — ने सुनाया। अदालत ने कहा कि निचली अदालत ने आतंकवाद से जुड़ी धाराओं के तहत जो सजा दी थी, वह साक्ष्यों और जांच की प्रक्रिया के अनुरूप नहीं थी।
आठ महीने पहले सुरक्षित हुआ था निर्णय
करीब आठ महीने पहले दोनों पक्षों की बहस पूरी हो चुकी थी, जिसके बाद अदालत ने निर्णय सुरक्षित रख लिया था। बुधवार को सुनवाई के दौरान अदालत ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा कि मामले की जांच में कई तकनीकी व प्रक्रियात्मक त्रुटियां पाई गईं, जिनके चलते अभियोजन पक्ष का दावा टिक नहीं सका।
जांच और साक्ष्यों पर उठे सवाल
मामले की सुनवाई के दौरान बचाव पक्ष की ओर से कहा गया कि स्थानीय पुलिस, सीआरपीएफ कर्मियों और रेलवे अधिकारियों के बयानों में विरोधाभास है।
दावा किया गया कि घटनास्थल पर लगभग 98 राउंड फायरिंग हुई थी, फिर भी किसी आरोपी को गोली नहीं लगी, जिससे अभियोजन की कहानी संदिग्ध प्रतीत होती है।
इसके अलावा, बरामद किए गए विस्फोटक पदार्थ को अदालत की अनुमति के बिना नष्ट कर दिया गया, जिससे साक्ष्यों की विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिह्न लगा।
अदालत की टिप्पणी
हाईकोर्ट ने यह भी कहा कि सत्र अदालत द्वारा प्रस्तुत सबूत इतने ठोस नहीं थे कि उनके आधार पर फांसी जैसी सजा दी जा सके।
अदालत ने माना कि आरोपियों के पास अवैध हथियार मिले थे, जिसके लिए उन्हें दस वर्ष की सजा और जुर्माना दिया जाना उचित है।
कानूनी सहायता और प्रतिक्रिया
इस मामले में आरोपियों को कानूनी सहायता जमीयत उलमा महाराष्ट्र लीगल एड कमेटी द्वारा उपलब्ध कराई गई थी।
कानूनी प्रतिनिधियों ने अदालत में यह तर्क दिया कि यूएपीए (UAPA) और विस्फोटक पदार्थ अधिनियम के तहत की गई कार्रवाई के लिए आवश्यक अनुमति वैध नहीं थी, जिससे मुकदमे की प्रक्रिया पर भी सवाल खड़े हुए।
जमीयत से जुड़े पदाधिकारियों ने इस निर्णय का स्वागत करते हुए कहा कि यह फैसला न्यायिक प्रक्रिया में विश्वास का प्रतीक है। उनका कहना था कि आरोपियों ने लगभग 18 वर्ष जेल में बिताए, और अब अदालत के इस आदेश से उन्हें राहत मिली है।
घटना की पृष्ठभूमि
यह मामला 31 दिसंबर 2007 की रात का है, जब रामपुर में स्थित सीआरपीएफ ग्रुप सेंटर पर आतंकियों ने हमला किया था।
इस हमले में 8 जवान और एक नागरिक की मृत्यु हुई थी। इसके बाद जांच एजेंसियों ने कुल आठ संदिग्धों को गिरफ्तार किया था।
साल 2019 में निचली अदालत ने इनमें से चार आरोपियों को फांसी, एक को उम्रकैद, और तीन को साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया था।
आगे की कानूनी प्रक्रिया
सरकारी पक्ष अब इस आदेश की प्रति का अध्ययन कर रहा है। सूत्रों के अनुसार, राज्य सरकार उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) में विशेष अपील दाखिल करने पर विचार कर सकती है।
वहीं, कानूनी जानकारों का मानना है कि यह फैसला भविष्य में आतंकवाद-निरोधक मामलों की जांच प्रणाली और न्यायिक प्रक्रिया की पारदर्शिता को लेकर एक अहम मिसाल साबित हो सकता है।

 
         
        











