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दो साल बाद सियासी सुलह- महाराष्ट्र में अजित–शरद पवार की साझा रणनीति, पिंपरी-चिंचवड से बदलेगा खेल

दो साल बाद सियासी सुलह-  महाराष्ट्र में अजित–शरद पवार की साझा रणनीति, पिंपरी-चिंचवड से बदलेगा खेल
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रिपोर्ट : विजय तिवारी

राजनीतिक संकेत

महाराष्ट्र की राजनीति में लंबे समय से चला आ रहा मतभेद अब थमता दिख रहा है। पिंपरी-चिंचवड नगर निगम चुनाव के लिए Ajit Pawar और Sharad Pawar के धड़ों का एक साथ आना केवल स्थानीय तालमेल नहीं, बल्कि व्यापक सियासी संदेश है—जहां संगठन और वोट बैंक को प्राथमिकता दी गई है।

चुनावी तालमेल

नगर निगम चुनाव में ‘घड़ी’ और ‘तुरहा’—दोनों चुनाव चिन्ह—साथ मैदान में उतरेंगे। अजित पवार ने रैली में स्पष्ट किया कि यह गठबंधन पिंपरी-चिंचवड के शहरी विकास और पार्टी की जमीनी मजबूती के लिए है। शरद पवार समर्थक धड़ा भी इस तालमेल को कार्यकर्ताओं के मनोबल के लिए निर्णायक मान रहा है।

विभाजन की पृष्ठभूमि

Nationalist Congress Party की स्थापना 1999 में हुई और दो दशकों तक पार्टी राज्य की प्रमुख ताकत बनी रही। 2023 में नेतृत्व और रणनीति को लेकर मतभेद गहराए। अजित पवार सत्तारूढ़ गठबंधन के साथ विकास की बात करते रहे, जबकि शरद पवार विपक्ष की भूमिका पर अडिग रहे—यहीं से पार्टी दो हिस्सों में बंटी।

दो धड़े, दो रास्ते

विभाजन के बाद अजित पवार गुट को ‘घड़ी’ चुनाव चिन्ह मिला और वह NDA के साथ चला गया। शरद पवार के नेतृत्व वाला NCP (SP) ‘तुरहा’ चिन्ह के साथ स्वतंत्र रूप से आगे बढ़ा। सार्वजनिक बयानबाज़ी और सियासी खींचतान ने दूरी को और बढ़ाया।

2024 के बाद बदली दिशा

लोकसभा चुनावों के अनुभव के बाद अजित पवार ने माना कि पारिवारिक और संगठनात्मक दूरी से राजनीतिक नुकसान हुआ। इसके बाद संवाद बढ़ा और अब नगर निगम चुनाव के जरिए पहली बार व्यावहारिक तालमेल सामने आया—इसे पिछले दो वर्षों के तनाव का सियासी विराम माना जा रहा है।

स्थानीय असर

विशेषज्ञों के अनुसार, Pimpri-Chinchwad में यह गठबंधन वोटिंग पैटर्न को प्रभावित कर सकता है। दोनों गुटों के पारंपरिक समर्थकों के एकजुट होने से मुकाबला कड़ा होगा और अन्य दलों की रणनीति पर दबाव बढ़ेगा।

आगे की तस्वीर

संगठनात्मक एकजुटता में बढ़ोतरी

सीट-समझौते में लचीलापन

राज्य स्तर पर भविष्य के गठबंधनों के संकेत

पिंपरी-चिंचवड से शुरू हुआ यह साझा कदम महाराष्ट्र की राजनीति में नए संतुलन की ओर इशारा करता है—जहां मतभेदों पर चुनावी यथार्थ भारी पड़ता दिख रहा है।

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