हिंदीभाषी महासंघ वडोदरा द्वारा आयोजित महा रामलीला छठवां दिन : भाव, भक्ति, नीति और वीरता से सजी रामकथा का विराट एवं निर्णायक मंचन

रिपोर्ट : विजय तिवारी
वडोदरा।
हिंदीभाषी महासंघ वडोदरा के तत्वावधान में आयोजित महा रामलीला के छठवें दिन रामकथा ने नाट्य, भाव और वैचारिक गहराई के साथ ऐसा विराट स्वरूप ग्रहण किया, जिसने दर्शकों को केवल दृश्यात्मक आनंद तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्हें आत्मिक अनुभूति और चिंतन से भी जोड़ा। यह दिन कथा की दृष्टि से अत्यंत निर्णायक रहा, जहां करुणा, भक्ति, नीति, पराक्रम और धर्म–अधर्म का संघर्ष एक के बाद एक सशक्त प्रसंगों में मंच पर उतरा। सजीव मंच-सज्जा, संतुलित प्रकाश-योजना, प्रभावी पार्श्व-संगीत और संवादों की सटीक लय ने पूरे मंचन को प्रभाव और प्रवाह दोनों प्रदान किए।
सीता हरण : करुणा, मर्यादा और अधर्म का षड्यंत्र
मंचन का शुभारंभ सीता हरण के अत्यंत मार्मिक प्रसंग से हुआ। पंचवटी का शांत परिवेश, कुटिया का सादापन, स्वर्णमृग की मोहक चेष्टा, लक्ष्मण रेखा और साधु-वेश में रावण की कुटिल योजना—इन सभी तत्वों ने कथा को करुणा के चरम तक पहुंचाया।
लक्ष्मण रेखा का दृश्य विशेष रूप से विचारोत्तेजक रहा। मंचन में यह भाव स्पष्ट हुआ कि माता सीता ने रेखा किसी मोह या अविवेकवश नहीं, बल्कि धर्म और करुणा के संस्कारों से प्रेरित होकर पार की भिक्षुक को निराश लौटाना उनके स्वभाव के विपरीत था। अतिथि-सत्कार और करुणा का यही क्षण अधर्म द्वारा छल का माध्यम बना और यहीं से कथा ने निर्णायक मोड़ लिया।
जटायु बलिदान : धर्मरक्षा का अमर उदाहरण
इसके पश्चात जटायु बलिदान का दृश्य मंचित हुआ। वृद्धावस्था के बावजूद आकाश में रावण से संघर्ष, धर्मरक्षा के लिए प्राणोत्सर्ग की चरम सीमा को दर्शाता है। घायल जटायु द्वारा सत्य का उद्घाटन और प्रभु राम द्वारा पुत्रवत स्नेह के साथ अंतिम संस्कार—यह प्रसंग करुणा, कृतज्ञता और धर्मनिष्ठा का अमिट उदाहरण बन गया। दर्शक इस दृश्य में भावविभोर दिखाई दिए।
शबरी–राम मिलन : निष्काम भक्ति की पराकाष्ठा
वनमार्ग में शबरी–राम मिलन के साथ वातावरण भक्तिमय हो उठा। वर्षों की प्रतीक्षा, आत्मसमर्पण और प्रेमपूर्वक अर्पित फल—यह दृश्य निष्काम भक्ति की पराकाष्ठा बनकर सामने आया। नवधा भक्ति का उपदेश संवादों के माध्यम से दर्शकों के हृदय में उतरता प्रतीत हुआ, यह संदेश देता हुआ कि भक्ति का मोल भाव से तय होता है, बाहरी पहचान से नहीं।
राम–सुग्रीव मित्रता : विश्वास और दायित्व का संकल्प
हनुमान के प्रवेश के साथ मंच पर गति और ऊर्जा का संचार हुआ। अग्नि-साक्षी वचनों के साथ राम–सुग्रीव मित्रता का प्रसंग प्रस्तुत किया गया, जहां दोनों ने एक-दूसरे के दुःख को अपना मानकर साथ निभाने का संकल्प लिया। यह दृश्य मित्रता की मर्यादा, विश्वास और सहयोग का सशक्त प्रतीक बनकर उभरा।
बाली की शक्ति और वध : नीति व राजधर्म का संतुलन
बाली वध का प्रसंग गंभीर वैचारिक गहराई के साथ मंचित हुआ। मंचन में यह तथ्य उभरा कि बाली के पास ऐसा वरदान था, जिससे युद्ध करने वाले की आधी शक्ति उसमें समा जाती थी, जिससे वह लगभग अजेय हो जाता था।
किन्तु यह भी स्पष्ट किया गया कि बाली का वध किसी व्यक्तिगत वैर का परिणाम नहीं, बल्कि राजधर्म और सामाजिक मर्यादा की रक्षा हेतु आवश्यक था। छोटे भाई की पत्नी को बलपूर्वक अपने पास रखना नीति और धर्म दोनों के विरुद्ध था। प्रभु राम का तर्क यह दर्शाता है कि जब शक्ति मर्यादा लांघने लगे, तब न्यायपूर्ण दंड अनिवार्य हो जाता है। बाली का पश्चाताप और राम का संतुलित उत्तर दर्शकों को गहरे चिंतन की ओर ले गया।
सुग्रीव राज्याभिषेक और सीता-खोज अभियान
सुग्रीव के राज्याभिषेक में उत्सव और उत्तरदायित्व का सुंदर संगम दिखाई दिया। इसके उपरांत सीता-खोज हेतु वानर-दल का प्रस्थान, दिशाओं का विभाजन और लयबद्ध समूहगत गतिविधियां—कथा को तीव्र गति और उद्देश्यपूर्ण दिशा प्रदान करती रहीं। यह दृश्य संगठन, अनुशासन और सामूहिक प्रयास की शक्ति का प्रतीक बना।
रावण–अंगद संवाद : नीति, पराक्रम और मर्यादा का उद्घोष
रावण की राजसभा में अंगद का प्रवेश मंचन का अत्यंत प्रभावशाली और वैचारिक रूप से सशक्त क्षण रहा। दूत होकर भी अंगद के व्यक्तित्व में ऐसा तेज और आत्मविश्वास था, जिसने पूरी सभा को चुनौती दे दी। प्रभु राम का संदेश सुनाने के बाद अंगद ने अपना एक चरण भूमि में दृढ़ता से गाड़ दिया और कहा कि यदि लंका का कोई भी वीर उस चरण को हिला दे, तो वे संदेश वापस ले जाएंगे।
सभा में उपस्थित बलशाली दानव और असुरों ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी, किंतु अंगद का चरण रंचमात्र भी नहीं हिला। पराजय की निस्तब्धता फैलते ही रावण स्वयं सिंहासन से उठा। उसकी अपार शक्ति स्पष्ट थी—वह चाहता तो अंगद का चरण उखाड़ सकता था। जैसे ही वह निकट पहुंचा, अंगद ने चतुराई से अपना चरण भूमि से हटा लिया और मुस्कान के साथ कहा—
“पैर ही पकड़ना है तो मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम के पकड़ो, संभव है वे आज भी तुम्हें क्षमा कर दें। हम तो उनके तुच्छ सेवक और दूत मात्र हैं।”
यह संवाद केवल पराक्रम का नहीं, बल्कि नीति और मर्यादा की श्रेष्ठता का उद्घोष था। इस प्रसंग ने नीति बनाम अहंकार के संघर्ष को अत्यंत प्रभावी ढंग से उभारा।
हनुमान की लंका यात्रा : विश्वास और मर्यादा का संदेश
हनुमान का समुद्र-लांघन, लंका में प्रवेश और अशोक वाटिका में माता सीता से भेंट—यह क्रम भावनात्मक और भक्तिपूर्ण रहा। स्वयं को रामदूत के रूप में परिचित कराना और प्रभु राम की कुशलता का संदेश देना भक्ति और विश्वास की गहराई को दर्शाता है।
माता सीता द्वारा दी गई चूड़ामणि केवल आभूषण नहीं, बल्कि धैर्य, आशा और अटूट विश्वास की अमर निशानी बनकर मंच पर उभरी, जिसने आगे के युद्ध की दिशा निश्चित की।
ब्रह्म फांस और आत्मसंयम
लंका में उत्पात के बाद हनुमान का ब्रह्म फांस में बंधना अत्यंत अर्थपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया। अपार बल और सिद्धियों के बावजूद मर्यादा का पालन यह दर्शाता है कि सच्ची शक्ति आत्मसंयम में निहित होती है। बंधक बनकर रावण की सभा में जाना, उसके अहंकार के दर्प-भंग की भूमिका तैयार करता है।
लंका दहन का दृश्य भव्यता और प्रतीकात्मकता का शिखर रहा। पूंछ में लगी अग्नि का स्वर्णनगरी में फैलना यह उद्घोष करता है कि अधर्म चाहे कितना भी वैभवशाली क्यों न हो, उसका अंत निश्चित है। अग्नि-प्रभाव, प्रकाश-सज्जा और संगीत के प्रभावी समन्वय ने इस दृश्य को रोमांचक और अर्थपूर्ण बना दिया।
छठवें दिन का यह विराट मंचन रामकथा के निर्णायक पड़ाव के रूप में सामने आया, जिसने दर्शकों के मन में यह संदेश दृढ़ किया कि धर्म, नीति, मर्यादा और आत्मसंयम के पथ पर चलकर ही सच्ची विजय संभव है—यही रामकथा का शाश्वत और कालजयी संदेश है।




