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हिंदीभाषी महासंघ वडोदरा द्वारा आयोजित महा रामलीला- चौथा दिन : कैकेई–मंथरा से राम वनगमन तक, संवादों में उभरी त्याग, मर्यादा और करुणा की चरम अभिव्यक्ति

हिंदीभाषी महासंघ वडोदरा द्वारा आयोजित महा रामलीला- चौथा दिन : कैकेई–मंथरा से राम वनगमन तक, संवादों में उभरी त्याग, मर्यादा और करुणा की चरम अभिव्यक्ति
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रिपोर्ट : विजय तिवारी

महा रामलीला मंचन

तारीख : 18 दिसंबर से 24 दिसंबर

समय : शाम 07 बजे से रात 11 बजे तक

कार्यक्रम स्थल : सर सयाजीराव नगर गृह (D’Mart के पीछे), गाय सर्कल के पास, अकोटा

आयोजक मंडल पदाधिकारी : चेयरमैन - अरविंद तिवारी, अध्यक्ष - दिलीप नेपाली, कार्यकारी अध्यक्ष - राकेश जैन,

वाइज चेयरमैन - राजेश पाठक, देवेंद्र उपाध्याय, मुकेश बडोला,

महामंत्री - दुर्गेश तिवारी,

निर्माता - अखिलेश मिश्रा, सह निर्माता - तनुजा तिवारी

मुख्य कलाकार :

दशरथ- राकेश शर्मा,

कौशल्या - रिम्पी मिश्रा,

कैकेई - श्वेता घैसास,

सुमित्रा - धारा प्रजापति, श्रीराम - जल गांधी,

सीता - महक कटियार,

लक्ष्मण - प्रियांक मिश्रा,

उर्मिला वैदेही परमार

गुरु वशिष्ठ नीलेश उपाध्याय

वडोदरा।

हिंदीभाषी महासंघ वडोदरा के तत्वावधान में आयोजित महा रामलीला के चौथे दिन रामायण के सबसे करुण, निर्णायक और आत्मिक रूप से गहरे प्रसंगों का अत्यंत सशक्त मंचन किया गया। संवादों की गहराई, भावों की सच्चाई और मंचीय संयम ने इस दिन को केवल नाट्य प्रस्तुति नहीं, बल्कि धर्म, मर्यादा और आदर्श विश्वास की जीवंत व्याख्या बना दिया।

कैकेई–मंथरा संवाद : विचार से विनाश तक की यात्रा

मंथरा के शब्दों ने कैकेई के अंतर्मन में असंतोष और अधिकारबोध को जन्म दिया।

मंथरा का यह संवाद दर्शकों को भीतर तक झकझोर देता है—

“जिस राज्य की उत्तराधिकारी तुम हो सकती हो, वहां केवल दर्शक बनकर रहना क्या स्वीकार है?”

इन शब्दों के साथ कैकेई के चेहरे पर उभरता परिवर्तन यह दर्शाता है कि जब विवेक पर मोह हावी होता है, तो पतन निश्चित हो जाता है।

कोपभवन : क्रोध और प्रतिज्ञा का कठोर निर्णय

कोपभवन में कैकेई का दृढ़ स्वर गूंजता है—

“राजा दशरथ! आपने मुझे दो वरदान देने का वचन दिया था, आज उन्हें पूरा करने का समय है।”

यह दृश्य सत्ता, वचन और व्यक्तिगत आकांक्षा के टकराव का सशक्त प्रतीक बन गया। पूरा पंडाल इस क्षण स्तब्ध दिखाई दिया।

कैकेई–दशरथ संवाद : वचन बनाम वात्सल्य

दशरथ का करुण स्वर—

“मांगे गए वरदान में यह भी हो सकता था कि मेरा प्राण ही मांग लेती।”

यह संवाद पिता के हृदय की पीड़ा, विवशता और वचनबद्धता को दर्शाता है। दशरथ का टूटता स्वर दर्शकों के हृदय तक उतर गया।

राम–दशरथ संवाद : आज्ञापालन ही परम धर्म

राम का शांत और दृढ़ वचन—

“पिता जी, यह वनवास मेरे लिए दंड नहीं, आपका आदेश है। पुत्र के लिए इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है?”

यह संवाद मर्यादा, त्याग और आज्ञापालन का ऐसा आदर्श प्रस्तुत करता है, जिसने पूरे पंडाल को मौन श्रद्धा में बांध दिया।

राम–कौशल्या संवाद : धैर्य और विश्वास की मर्यादा

माता की चिंता पर राम का आश्वासन—

“मां, आप अकेली नहीं होंगी। भरत आपकी सेवा ऐसे करेंगे, जैसे मैं करता।”

यह संवाद मातृत्व, विश्वास और भ्रातृ प्रेम की कोमल झलक प्रस्तुत करता है।

राम–लक्ष्मण संवाद : सेवाभाव की चरम सीमा

लक्ष्मण का भावुक स्वर गूंजता है—

“भैया, जब आप वन में जाएंगे, तो मैं महल में कैसे रह सकता हूं? आपकी सेवा ही मेरा धर्म है।”

यह संवाद निःस्वार्थ प्रेम, समर्पण और सेवाभाव की अमर छवि बन गया। सहमति मिलने पर लक्ष्मण का चरणों में नतमस्तक होना दर्शकों की आंखें नम कर गया।

सुमित्रा–लक्ष्मण संवाद : मातृत्व का अद्भुत आदर्श

सुमित्रा का आशीर्वचन—

“वन तुम्हारे लिए कठिन नहीं, तुम्हारा कर्तव्य है। राम ही तुम्हारे पिता हैं, सीता ही तुम्हारी माता।”

यह संवाद त्याग, वीरता और मातृत्व के सर्वोच्च आदर्श को दर्शाता है।

राम–सीता संवाद : सहधर्मिणी का साहस

सीता का अडिग स्वर—

“जहां मेरे स्वामी, वहीं मेरा संसार। वन हो या राजमहल, मेरा धर्म आपके साथ है।”

यह संवाद नारी शक्ति, दांपत्य धर्म और समर्पण की भावपूर्ण अभिव्यक्ति बन गया।

राजतिलक से वनगमन : उल्लास से विषाद तक

राज्याभिषेक की तैयारी के बीच दूत का संदेश—

“राजमाता कैकेई के वरदान से राम को चौदह वर्षों का वनवास और भरत को राज्य प्राप्त होगा।”

क्षणभर में अयोध्या का उल्लास गहन शोक में बदल जाता है। मंच पर छाया सन्नाटा इस परिवर्तन को जीवंत कर देता है।

राम वनगमन : त्याग का सजीव आदर्श

प्रभु श्रीराम का करुण स्वर—

“मां, पिता और प्रजा—मेरे लिए सब समान हैं। वनगमन ही मेरा पथ है।”

प्रजा का विलाप, मार्ग रोकते नागरिक और शांत राम—यह दृश्य त्याग, मर्यादा और आदर्श विश्वास की पराकाष्ठा बन गया।

चौथे दिन का सार

महा रामलीला का चौथा दिन यह सिद्ध करता है कि

धर्म उपदेश में नहीं, आचरण में जीवित रहता है।

संवादों की गहराई, अभिनय की सच्चाई और भावनात्मक संतुलन ने इस दिन को रामलीला का सबसे हृदयस्पर्शी अध्याय बना दिया।

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