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महाराष्ट्र में पहले से हैं कृषि कानूनों जैसे प्रावधान, डेढ़ दशक से हो रहा अमल

महाराष्ट्र में पहले से हैं कृषि कानूनों जैसे प्रावधान, डेढ़ दशक से हो रहा अमल
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महाराष्ट्र में नए कृषि कानूनों का प्रभाव कम दिखाई देता है, क्योंकि साल 2003 से एपीएमसी मॉडल एक्ट और ठेके पर खेती (कांट्रेक्ट फार्मिंग) जैसे सुधार यहां चल रहे हैं। तीन नए कृषि कानूनों में जो भी प्रावधान किए गए हैं, उन पर तो महाराष्ट्र में पिछले डेढ़ दशक से अमल हो रहा है। यहां बीस सालों से पोल्ट्री कांट्रेक्ट फार्मिंग हो रही है। लेकिन सितंबर 2020 में नए कानून जारी होने पर प्याज निर्यातबंदी, स्टॉक लिमिट लगाए जाने के बाद से महाराष्ट्र के किसानों का नए कानूनों पर विश्वास कम हो गया है। जैसे, आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत प्याज को बाहर रखा गया था। लेकिन कुछ उपनियमों का आधार लेकर प्याज पर अव्यावहारिक स्टॉक लिमिट लगाई गई, जिससे किसान परेशान हो गए थे। स्टॉक लिमिट के कारण मंडी में प्याज की नीलामी ठप हो गई। प्याज के भाव गिर गए, जिससे किसानों को नुकसान झेलना पड़ा था।

महाराष्ट्र ज्यादातर बागवानी उत्पाद वाला राज्य है। उत्तर महाराष्ट्र में प्याज, अनार और अंगूर की खेती की जाती है। तो पश्चिम महाराष्ट्र में गन्ना, टमाटर और सब्जी का चलन है। मुंबई, पुणे जैसे बड़े बाजार फलोत्पादनों को बढ़ावा देते हैं। पोल्ट्री और डेयरी इंडस्ट्री भी यहां पर विकसित है। दूसरी ओर मराठवाड़ा और विदर्भ में ज्यादातर कपास, चना, अरहर (तुअर), सोयाबीन, मक्का जैसी फसल ली जाती हैं। पूरे महाराष्ट्र में फसल संस्कृति पंजाब और हरियाणा की तरह एक या दो फसल पर निर्भर नहीं है। फसल की विविधता ही महाराष्ट्र में खेती का वैशिष्ट्य है।

मराठवाड़ा और विदर्भ में प्रति व्यक्ति भू-स्वामित्व ज्यादा है। इसी वजह से वहां पर सोयाबीन, कपास, चना की खेती अधिक मात्रा में होती है। कपास के लिए एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) और गन्ने के लिए एफआरपी (उचित एवं लाभकारी मूल्य) की व्यवस्था है। अगर, आगे चलकर ऐसा कोई कानून आता है, जिससे उपरोक्त फसलों के आधारभाव की व्यवस्था खतरे में आ जाए, तो महाराष्ट्र में भी बड़े आंदोलन की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।

महाराष्ट्र में गन्ना किसान को-ऑपरेटिव मॉडल से लाभान्वित हैं। दूसरी तरफ कांट्रेक्ट फार्मिंग के कारण पोल्ट्री किसान के जीवन में स्थिरता आई है। यहां पर फार्मर्स प्रोड्यूसर कंपनियां (एफपीसी) अच्छा काम कर रही हैं। एफपीसी का यह मॉडल पुराने को-ऑपरेटिव मॉडल से बेहतर साबित हो रहा है। इसको और बेहतर करने के लिए सुधार की जरूरत है। लेकिन जब तक खेती की वैल्यूचेन में किसान की हिस्सेदारी नहीं बढ़ती, तब तक सुधार का फायदा नहीं होगा।

गेहूं और धान को एमएसपी का संरक्षण मिलता है। उसी तर्ज पर मक्के को भी एमएसपी मिलना चाहिए। यह मांग अब महाराष्ट्र में उठने लगी है। देश में रबी और खरीफ दोनों सीजन मिलाकर 100 लाख हेक्टेयर में मक्के की बुआई होती है। इससे देश में लगभग 250 लाख टन मक्के का उत्पादन होता है। पिछले एक साल से मक्का एमएसपी से कम पर बिक रहा है। प्रति क्विंटल 1,850 रुपये एमएसपी की तुलना में महाराष्ट्र के किसान को 1,250 रुपये भाव खुले बाजार में मिल रहा है। कोरोना काल और बर्ड फ्लू की अफवाहों से पोल्ट्री उद्योग की कमर टूट गई। इस बीच, पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश में बढ़ते आंदोलन ने अब मक्के के एमएसपी को भी हवा दे दी है।

अंतरराष्ट्रीय बाजार में सोयाबीन सात साल के उच्च स्तर पर बिक रहा है। वर्ष 2020-21 में सोयाबीन के लिए 3,880 रु. प्रतिक्विंटल एमएसपी घोषित हुई। लेकिन महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान में सोयाबीन की बिक्री एमएसपी से अधिक 4,300 रुपये प्रति क्विंटल पर हो रही है। सोया खली की निर्यात में काफी मांग है। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में उत्पादन कम होने से पाम तेल के भाव बढ़े। जब-जब वैश्विक बाजार में कृषि उत्पादों को अच्छे दाम मिलते हैं, तब-तब भारत में किसानों के आंदोलन कम दिखाई पड़ते हैं। मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र का मराठवाड़ा, विदर्भ क्षेत्र इसके उदाहरण हैं। उत्तर भारत में बड़ा आंदोलन खड़े होने के बाद भी यहां का किसान शांत हैं, क्योंकि सोयाबीन और कपास को एमएसपी से जादा भाव मिल रहे हैं।

चने की रिकॉर्ड फसल वर्तमान रबी में महाराष्ट्र समेत मध्यप्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक में नया संकट पैदा करेगी। मौजूदा साल के लिए जहां चने के लिए 5,100 रुपये प्रति क्विंटल एमएसपी है, वहीं किसानों को 900 रुपये प्रति क्विंटल का घाटा हो रहा है। ऐसे में एमएसपी के तहत सरकारी खरीद जल्द अमल में नहीं आती है, तो किसानों में असंतोष बढ़ सकता है। मुद्दा यह है कि नए कृषि कानूनों ने अपने हक के लिए एक जमीन तैयार की है। उस जमीन पर जैसे ही किसी कारणवश असंतोष के बीजों की सिंचाई होती है, तो आंदोलन का महावृक्ष खड़ा होने में देर नहीं लगेगी। एमएसपी की गारंटी ही एकमात्र ऐसा नैरेटिव है, जो किसानों में लोकप्रिय होता दिखाई दे रहा है। सरकारी तंत्र, नीति नियंताओं और मीडिया को इसे समझना होगा।


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