मेरे स्वरा प्रेम का कारण केवल उनका सौंदर्य नहीं है....

ईमानदारी से कहूँ तो भारतीय सिनेमा के वर्तमान दौर में कोई व्यक्ति मुझे सर्वाधिक प्रिय है तो वह रात्रि स्मरणीय सुश्री स्वरा भाष्कर जी हैं। अहह... देखने की तो छोड़िये, उनके स्मरण मात्र से ही आत्मा तृप्त हो जाती है। क्या अद्भुत सौंदर्य है! आह!
वैसे मेरे स्वरा प्रेम का कारण केवल उनका सौंदर्य नहीं है, अपितु उनकी दानवीरता है। जिस प्रकार महारथी कर्ण ने अपना सर्वश्व दान कर दिया था, उसी प्रकार सुश्री स्वरा ने अपना सर्वस्व दिखा दिया है। परमेश्वर का दिया हुआ उनके पास जो कुछ भी था, उन्होंने पूरी ईमानदारी से वह सब कुछ आम जनता की नजरों के सामने जस का तस रख दिया। उन्हें जनता की तृप्ति से ही तृप्ति मिलती है...वे सच्चे अर्थों में जन-सेविका हैं।
वे भारतीय बुद्धिजीविता की प्राण हैं। वे आधुनिक वामपंथ की रीढ़ हैं। वे सत्ता विरोधी आंदोलन की तंत्रिका तंत्र हैं। वे आधुनिक नारीवाद की आंख हैं। अजी शरीर में एक भी अंग ऐसा नहीं है, जो वे न हों...
कुछ लोग कहते हैं कि भारत में वामपंथ मर रहा है, मैं ऐसा नहीं मानता। जब तक स्वरा हैं, वामपंथ मर नहीं सकता। असल में स्वरा ही वाम हैं, और उनकी ओर बढ़ने वाला पंथ वामपंथ। हर वह व्यक्ति जो स्वरा को देखना चाहता है, उन्हें छूना चाहता है, उन्हें महसूस करना चाहता है, वह वामपंथी है। और आप जानते हैं कि स्वरा को महसूस करने की चाह रखने वालों की संख्या कितनी अधिक है। अजी दूसरों को छोड़िये, फागुन में तो हम भी...
एक दिन गोरखपुर वाले बुजुर्ग साहित्यकार आशीष त्रिपाठी कह रहे थे, "सर्वेश बाबू! जब स्वरा बोलती हैं तो मन करता है कि उनके चरणों में अपना हृदय निकाल कर रख दें" वैसे स्वरा जी के लिए लोकेश कौशिक भी कुछ कह रहे थे, पर मैं वह लिख नहीं सकता। असल में लोकेश कौशिक भारत की उस तरुणाई का प्रतिनिधित्व करते हैं जो फागुन में बावरी हो जाती है।
अभी कुछ ही दिन हुए जब पत्रकार रुबिका लियाकत ने स्वरा जी को जलील कर दिया था। असल में तब दुर्भाग्य से स्वरा जी पूरे कपड़ों में थीं। उनका नारीवाद पाँच मीटर की साड़ी में बंध गया था। यदि वे उन्मुक्त होतीं, वस्त्रों के बंधन से मुक्त होतीं, तो रुबिका जैसी लड़कियों को तो दाँत काट के मार देतीं।
सच पूछिए तो उस दिन अधिकांश लोगों को स्वरा पसन्द नहीं आईं थीं। उनकी महंगी साड़ी, उनके और देखने वालों के बीच दीवार बन रही थी। वस्तुतः स्वरा देह और वस्त्रों की माया से मुक्त किसी एंजल की भांति हैं। उनके प्रशंसक उनसे सीधा साक्षात्कार करना चाहते हैं।
मैं स्वरा के बोलने का भी प्रशंसक हूँ। असल में स्वरा जब बोलती हैं तो केवल उनका मुंह ही नहीं बोलता... उनका रोम रोम बोलता है। उनके कानों के झुमके बोलते हैं, उनके कंगन बोलते हैं, उनकी आँखें बोलती हैं। इसीलिए उनका बोलना इतना प्रभावी होता है कि जेएनयू के विद्वान भी उन्हें अपना प्रवक्ता बनाते हैं।
कुछ दिन पूर्व उनकी एक फ़िल्म आयी थी, अनारकली ऑफ आरा। उसमें वे स्वरा बनी थीं। तब मेरे कुछ भोजपुरिया मित्रों ने फ़िल्म की बड़ी प्रशंसा की थी। वे सारे मित्र वामपंथी थे। फ़िल्म देखने के बाद मुझे समझ में आया कि एक स्वरा ही हैं जिनके मामले में राष्ट्रवादी और राष्ट्रद्रोही( राष्ट्रवादी का शाब्दिक विलोम मेरे हिसाब से यही होना चाहिए) दोनों एक साथ हैं। दोनों उन्हें जी भर के देख लेना चाहते हैं। जाने क्यों मुझे अब यह लगने लगा है कि एक स्वरा ही हैं जो राष्ट्र को एक सूत्र में बांध सकती हैं। हाँ, राष्ट्र को बांधने के लिए वह सूत्र वे कहाँ से निकालेंगी, यह हम नहीं जानते।
मैं स्वरा जी पर लिखने लगूँ तो एक पूरी किताब हो जाएगी, पर फागुन की भी अपनी सीमाएं हैं। सो इतना ही।
सर्वेश तिवारी वामपंथी
गोपालगंज, बिहार।