सपा के सहारे वजूद बचाने की जुगत में दगे कारतूस
BY Suryakant Pathak7 Nov 2016 8:57 AM GMT
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Suryakant Pathak7 Nov 2016 8:57 AM GMT
महागठबंधन को परवान चढ़ाने के लिए बढ़चढ़ कर दावे जरूर किये गए लेकिन सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी व राष्ट्रीय लोकदल के अलावा गठबंधन का शोर मचाने वाले अन्य राजनीतिक दलों का सूबे में जमीनी वजूद कहीं नजर नहीं आता है।
ऐसे में प्रस्तावित गठबंधन साइकिल की गति बढ़ाने के बजाय बोझ बनता अधिक दिख रहा है। सपा के रजत जयंती समारोह में मंच पर मौजूद महागठबंधन के तलबगार दलों में से अधिकतर अपने राज्यों में भले ही सियासी ताकत रखते हो परंतु उत्तर प्रदेश में उनका दखल न के बराबर है।
समाजवादी पार्टी के मंच से गठबंधन के ढोल बजाने वालों में सपा के अलावा प्रदेश में रालोद सबसे बड़ा दल माना जा सकता है। गठजोड़ की आड़ में पाला बदलने के माहिर अजित सिंह केवल पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाटों में अपना असर रखते है।
रालोद कभी 3.70 फीसद वोट से ज्यादा नहीं बटोर सका। 2002 में भाजपा और 2012 में कांग्रेस के साथ गठजोड़ करके लड़े रालोद को मुजफ्फरनगर दंगे के बाद अपने जाट वोटों को संजोये रखना भी मुश्किल हो रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में तो अजित सिंह और उनके पुत्र जयंत चौधरी भी अपनी सीट नहीं बचा पाए थे। जाट मुस्लिम समीकरण ध्वस्त होने के बाद रालोद से गठजोड़ को चुनावी लाभ के बजाय नुकसान का सौदा
जनता दल यूनाईटेड का उप्र में प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा है। वर्ष 2002 व 2007 में भाजपा से गठबंधन में चुनाव लड़ चुके जदयू नेतृत्व ने वर्ष 2012 में अकेले लड़ कर अपनी ताकत आजमायी। तत्कालीन अध्यक्ष शरद यादव पूरे दमखम से प्रचार करने के बाद मात्र 219 सीटों पर ही अपने उम्मीदवार उतार सके जिनमें से कोई भी जमानत तक नहीं बचा सका। जद यू केवल 0.36 प्रतिशत वोट बटोर सका था।
सपा में भी गठबंधन को लेकर एक राय नहीं है। एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि दगे कारतूसों के साथ चुनाव लडऩे का जोखिम अधिक रहेगा क्योंकि बहुमत की सरकार चलाने व सर्वाधिक विकास होने का दावों की हवा वजूदहीन दलों से गठबंधन करने से निकल जाएगी और सीटों के बंटवारे में अपनों की कटौती करनी पड़ेगी, सो अलग।
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