काका हाथरसी के व्यंग्य बाण
BY Suryakant Pathak18 Sep 2016 6:24 AM GMT

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Suryakant Pathak18 Sep 2016 6:24 AM GMT
मशहूर हास्य कवि और व्यंग्यकार काका हाथरसी का आज जन्मदिन है। 18 सितंबर, 1906 में हाथरस में जन्मे काका हाथरसी हिंदी जगत के दिग्गज हास्य कवि थे। काका हाथरसी की कविता जगत में अपनी अलग ही शैली थी। आज भी अनेक लेखक और व्यंग्य कवि काका की रचनाओं की शैली अपनाकर लाखों श्रोताओं और पाठकों का मनोरंजन कर रहे हैं। साल 1995 में वे 18 सितंबर को ही इस दुनिया से चले गए थे।
काका हाथरसी आज भी अपनी रचनाओं के जरिए लोगों के दिलों में जिंदा है, शायद यही वजह है कि उनकी पुण्यतिथि पर सोशल मीडिया उनकी रचनाओं सराबोर है। आईए, आपको भी रू-ब-रू कराते हैं काका हाथरसी की समाज पर कटाक्ष करती कुछ मशहूर वंयग्य-रचनाओं से -
सारे जहाँ से अच्छा...
सारे जहाँ से अच्छा है इंडिया हमारा
हम भेड़-बकरी इसके यह ग्वारिया हमारा
सत्ता की खुमारी में, आज़ादी सो रही है
हड़ताल क्यों है इसकी पड़ताल हो रही है
लेकर के कर्ज़ खाओ यह फर्ज़ है तुम्हारा
सारे जहाँ से अच्छा .......
चोरों व घूसखोरों पर नोट बरसते हैं
ईमान के मुसाफिर राशन को तरशते हैं
वोटर से वोट लेकर वे कर गए किनारा
सारे जहाँ से अच्छा .......
हिन्दी के भक्त हैं हम, जनता को यह जताते
लेकिन सुपुत्र अपना कांवेंट में पढ़ाते
बन जाएगा कलक्टर देगा हमें सहारा
सारे जहाँ से अच्छा .......
अनुशासनहीनता
बिना टिकिट के ट्रेन में चले पुत्र बलवीर
जहाँ 'मूड' आया वहीं, खींच लई ज़ंजीर
खींच लई ज़ंजीर, बने गुंडों के नक्कू
पकड़ें टी.टी., गार्ड, उन्हें दिखलाते चक्कू
गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार बढ़ा दिन-दूना
प्रजातंत्र की स्वतंत्रता का देख नमूना
भ्रष्टाचार
राशन की दुकान पर, देख भयंकर भीर
'क्यू' में धक्का मारकर, पहुँच गये बलवीर
पहुँच गये बलवीर, ले लिया नंबर पहिला
खड़े रह गये निर्बल, बूढ़े, बच्चे, महिला
कहँ 'काका' कवि, करके बंद धरम का काँटा
लाला बोले - भागो, खत्म हो गया आटा
घूस माहात्म्य
कभी घूस खाई नहीं, किया न भ्रष्टाचार
ऐसे भोंदू जीव को बार-बार धिक्कार
बार-बार धिक्कार, व्यर्थ है वह व्यापारी
माल तोलते समय न जिसने डंडी मारी
कहँ 'काका', क्या नाम पायेगा ऐसा बंदा
जिसने किसी संस्था का, न पचाया चंदा
मोटी पत्नी
ढाई मन से कम नहीं, तौल सके तो तौल
किसी-किसी के भाग्य में, लिखी ठौस फ़ुटबौल
लिखी ठौस फ़ुटबौल, न करती घर का धंधा
आठ बज गये किंतु पलंग पर पड़ा पुलंदा
कहँ ' काका ' कविराय , खाय वह ठूँसमठूँसा
यदि ऊपर गिर पड़े, बना दे पति का भूसा
पिल्ला
पिल्ला बैठा कार में, मानुष ढोवें बोझ
भेद न इसका मिल सका, बहुत लगाई खोज
बहुत लगाई खोज, रोज़ साबुन से न्हाता
देवी जी के हाथ, दूध से रोटी खाता
कहँ 'काका' कवि, माँगत हूँ वर चिल्ला-चिल्ला
पुनर्जन्म में प्रभो! बनाना हमको पिल्ला
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