सय्यद सालार मसूद गाज़ी का यौमे पैदाइश 21 रजब पर विशेष
BY Anonymous15 March 2018 10:33 AM GMT

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Anonymous15 March 2018 10:33 AM GMT
सय्यद सालार मसूद गाज़ी का यौमे पैदाइश 21 रजब या 12 शाबान 405 हिजरी यानी 22 जनवरी या 15 फरवरी 1015 ईस्वी और यौमे शहादत 14 रजब 423 हिजरी मुताबिक 10 जून 1034 ईसवी जेठ माह है।कुछ जगह यह 14 जून 1033 ईसवी और 424 हिजरी भी दर्ज है लेकिन उनकी याद में लगने वाले मेले और उर्स बगैरा होली की तारीख से जोड़ कर मनाने का रिवाज है।उनके मुख्तसर हालाते ज़िंदगी पेशे खिदमत हैं:-
सय्यद सालार मसऊद गाजी मियां रहमतुल्लाह अलैह (Syed Salar Masaud Gazi Miya Rahamtullah Allaih) जनसामान्य में बाले मियां के नाम से जाने जाते हैं।ऐतिहासिक प्रमाणिक प्रमाणों के मुताबिक हजरत सैयद मसऊद गाजी मियां रहमतुल्लाह अलैह का नस्बनामा अपने वालिद की तरफ से बारहवीं पुश्त में हजरत मुहम्मद बिन हनफिया बिन हज़रत अली से मिल जाता है।गाजी मियां के वालिद का नाम गाजी सैयद साहू सालार है जो सुल्तान महमूद गजनवीं की फौज में एक काबिल कमांडर थे।
सुल्तान ने साहू सालार के फौजी कारनामों को देख कर अपनी बहन सितर-ए-माअला का निकाह आप से कर दिया। जिस वक्त सैयद साहू सालार अजमेर में एक किले को घेरे हुए थे, उसी वक्त गाजी मियां की पैदाइश हुई। इनकी वालिदा बताती थीं कि दौरान-ए-हमल जिस चीज की भी खाने की जरूरत पेश आती थी मुझे वो फौरन मिल जाया करती थी। आप का असली नाम अमीर मसऊद था। गाजी मियां चार साल चार माह के हुए तो बिस्मिल्लाह ख्वानी हुई। हजरत इब्राहीम (Hazrat Ibrahim) जैसा आपको उस्ताद मिला।आपने नौ साल की उम्र तक फिक्ह व तसव्वुफ की तालीम के साथ ही साथ फौजी तालिम भी हासिल की। सुल्तान गजनवी ने भांजें को देखने के लिए गजनी बुलाया। आप अपनी वालिदा के साथ अजमेर के रास्ते गजनी पहुंचे। इस दौरान कई करामतें ज़ाहिर हुईं।
गाजी मियां करीब तीन साल तक विभिन्न जंगों में अपने मामू के साथ शरीक रहे। आप बहुत मिलनसार थे। हर एक से कलमातें तौहीद व सुलूक तौहीद फरमाते थे। जिसकी वजह से सब को मुहब्बत इलाही का शौक होता था। बाद नमाज़ ए इशा जब तन्हाई में होते तो वुजू करते और इबादत-ए-इलाही में मश्गूल हो जाते। आप पर ऐसा गलबा तारी होता कि किसी को पहचान ना पाते। लगातार रात भर जागना और खुदा की इबादत का शौक आप के रग-रग में बस चुका था। आप ऐसे सूफी संतों की संगत में अपना जीवन व्यतीत करते थे, जिनका संसार के लौकिक विधा की अपेक्षा अलैकिक विधा पर अधिक अधिकार था। इसके अतिरिक्त आप युद्ध कला विशेषकर तीरंदाजी में भी पूण अधिकार रखते थे।
जब आप गजनी से वापस हिन्दूस्तान आये तो आपने राजा महिपाल से जंग में फतह के बाद तख्त पर बैठने से इंकार कर दिया। सारी जिम्मेदारी अपने साथियों को सौंप कर मानवता का पैगाम देने के लिए निकल पड़े।आप मेरठ अमरोहा संभल थांवला बगैरा कई जगह पड़ाव और इलाके या राजाओं को फतह करते हुए 423 हिजरी माह शाबान बमुताबिक 1031 ईस्वी को बहराइच के जुनूबी व मशीरिक सरहद से दाखिल हुए। यहां पर आग की पूजा करने वाले लोग रहते थे। ऊंच-नीच, जाति-पात का बोल बाला था। आपने इन रिवाजों का विरोध किया जो यहां के राजाओं को पसंद नहीं आया।
इसी दौरान आपके वालिद का इंतकाल 25 शव्वाल 423 हिजरी को हुआ। आप पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। फिर भी आपने सब्र का दामन थामें रखा। एक दिन ख्वाब देखा की सैयद साहू सालार का लश्कर दरिया-ए-गंगा के किनारे ठहरा है शादी की तैयारी की जा रही है। हजरत सितर-ए-माअला हाथ में फूलों का हार लिए खड़ी दिखती है पुकार उठती है तेरी शादी करवाने को दिल बेकरार है। फूलों का हार गले में डालकर सीने से लगा लेती है। ख्वाब से बेदार हुए उलेमा से ख्वाब की ताबीर पूछी। उलेमा ने ताबीर बतायी कि जो भी ऐसा ख्वाब देखता है जल्द शहादत पाता है। गाजी मियां जब बहराइच में तशरीफ फरमा थे तब वहां के इक्कीस राजाओं ने मिलकर आपसे बहराइच खाली करने को कहा। गाजी मियां ने कहा कि मैं यहां पर हुकूमत करने नहीं आया हूं। उसके बावजूद राजा नहीं माने। राजाओं ने मिलकर हमला कर दिया आपने बहादुरी से जंग लड़ी। सुहेल देव से मुकाबला हुआ। बहादुरी से मुकाबला करते हुए असर मग्रिब के दर्मियान इस्लामी तारीख 14 रजब 424 हिजरी मुताबिक 10 जून 1034 ईसवीं के जेठ माह कम उम्र में आपकी रूह मुबारक ने जिस्मे खाकी को छोड़ कर बज़रिया ए शहादत अब्दी जिदंगी हासिल की।
परवरदिगारे आलम ने ताक़यामत अपनी कह्हारी, जब्बारी व वहदानियत के ऐलान के लिए आप को चुन लिया। आप हमेशा इंसानों को एक नजर से देखते थे। सभी से भलाई करते। दुनिया के जाने के बाद भी आपका फैज़ जारी है। जहां पर मजहब, ऊंच-नीच, जात-पात की दीवार गिर जाती है। तभी एक शायर कहता है:-
"किये ही जाऊंगा मैं अर्ज़े मतलब,मिलेगा जब तलक ना दिल का मकसद।"
न शाम मतलब की सुबह होगी, ना ये फसाना तमाम होगा।
बारात के मुताल्लिक वाक़या:- हज़रत सय्यद सालार मसूद ग़ाज़ी (रह.) जब प्रतापगढ़,, बाराबंकी होते हुए बहराइच तशरीफ़ ला रहे थे की रूदौली(बाराबंकी) में एक घर के सामने पानी पीने के लिए अपना घोडा रोका और घर के बाहर बैठी एक औरत (ज़ोहरा बीबी) से पानी माँगा तो उन्होंने जवाब दिया की दिखता नही की मै "नाबीना" हूँ।इस पर हज़रत सय्यद सालार मसूद ग़ाज़ी (रह.) ने फरमाया तुम उठो तो अपनी जगह से और जैसे ही ज़ोहरा बीबी उठ कर खड़ी हुई की उनकी आँखों की रौशनी लौट आई और जब वोह पानी ले कर घर में से लौटी ग़ाज़ी बाबा वहां से जा चुके थे।
ज़ोहरा बीबी की मन्नत थी की आँखों में रौशनी आने पर जिसे वो सबसे पहले देखेंगी उनसे ही शादी करेंगी लिहाज़ा घुड़सवार कौन है का पता चलने पर वो हज़रत सय्यद सालार मसूद ग़ाज़ी (रह.) की तलाश में बहराइच आ गयीं लेकिन तब तक हज़रत सय्यद सालार मसूद ग़ाज़ी (रह.) शहीद हो चुके थे।इसके बाद जोहरा बीबी यहीं रुक कर मज़ार की देखभाल करने लगीं।उनके घर वालों के बुलाने पर भी वो वापस नही गईं फिर उनके वालिद और भाइयों ने दहेज़ बगैरा का सामान दरगाह शरीफ पंहुचा दिया और तभी से हज़रत सय्यद सालार मसूद ग़ाज़ी (रह.) की दरगाह में बरातों के आने का सिलसिला शुरू हो गया।
आस्ताने आलिया पर बादशाहों की हाजिरी:-रिवायत के मुताबिक बहराइच स्थित हजरत सैयद सालार मसूद गाजी मियां के मजार शरीफ पर मुहम्मद शाह तुगलक, प्रसिद्ध पर्यटक इब्नेबतूता (Ibnebatuta) और तुगलक वंश के एक सम्राट फिरोज शाह तुगलक (Firoz Shah Tughlak) ने हाजिरी दी। तबकात-ए-अकबरी (Tabkaat-e-akabari) में लिखा है कि शहंशाह अकबर कहता था कि एक दिन अकबराबाद से सैयद मसूद गाजी मियां के मजार पर गया। सल्तनत व मुगलकालीन बादशाहों ने समय-समय पर हाजिरी दी। मजार शरीफ की चैहद्दी व गुम्बद का निर्माण तुगलक वंश के सम्राट फिरोज शाह तुगलक ने कराया था। इमारत नसरूद्दीन महमूद फिरोज शाह तुगलक (Nasruddin Mahmood Firoz Shah Tughalaq) ने बनवायी। रिवायत है कि वालिदा फिरोजशाह तुगलक ने हजरत गाजी मियां के झंडे को देखकर लोगों से इसके बाबत दरयाफ्त किया। गाजी मियां के बाबत जिसको जो भी मालूम था बताया। आप ने भी दुआं मांगी कि अगर मेरा लड़का जंग से कामयाब बा मुराद वापस आएगा तो मैं भी गाजी मियां की मजार पर हाजिरी दूंगी। खुदा ने दुआं कुबूल फरमायी। जब सुल्तान जंग से वापिस लौटा तो शिकस्त से एकदम फत्ह हो जाने के चमत्कार को कह सुनाया और कहा कि खुदा ही बेहतर जानता है यह क्यूं कर हुआ। जबकि मुझकों मुकम्मल शिकस्त का एहसास हो चला था। अलगरज फिरोजशाह तुगलक मय अपनी मां के साथ बहराइच जियारत के लिए आया। इल्तुतमिश (Iltutmish) का लड़का नसरूद्दीन महमूद बादशाह बनने से पहले 1249 ईसवीं में बहराइच का गर्वनर नियुक्त हुआ। उसने रौजा-ए-अतहर में तब्दीलियां की। कुछ नई तामीर करवायी।
हज़रत गाजी मियां की कई करामतें मशहूर है:-साढ़े नौ सौ बरस से रखा हुआ कुरआन और पैरहन शरीफ जिस पर अभी तक खून के दाग जाहिर है। देखने वालों को राहे मुस्तकीम पर चलाते है। बुर्स के दाग और कोढि़यों को मेला व मौका-ए-उर्स पर अच्छा होते देखा जा सकता है। मेला हिंदी महीने माद्य में चांद की तीसरी तारीख को होता है। हिंदू मुस्लिम सभी को बराबर फायदा मिलता है। इसके अलावा बहुत सारी करामतें मशहूर है। जिसको लिखने के लिए बड़े दफ्तर की जरूरत है। सबसे बड़ी यहीं करामत है कि यहां पर हर मजहब के मानने वाले लाखों की तादाद में आते है।
बादशाह औरंगजेब रहमतुल्लाह अलैह ने लगा दी थी पाबंदी:- मुगल काल में बादशाह औरंगजेब रहमतुल्लाह अलैह के दौर में कुछ रिवाज गैर इस्लामी शुरू हो गए। जो इस्लाम के सिद्धांत के खिलाफ थे। जिसको देखकर बादशाह को बुरा लगा। आपने मजार शरीफ के चारों तरफ फौज लगावा दी ताकि लोग अंदर न जाने पाएं। लोग चहारदीवारी की मिट्टी या ईंट उठाकर ले जाने लगे। दूसरे साल तक करीब 13 जगहों पर हिन्दुस्तान के मुख्तलिफ हिस्सों में मैदाने गाजी या मजारे गाजी कायम कर लिया गया। जिनमें गोरखपुर भी शामिल है। यह देखकर बादशाह ने पहरा उठवा लिया ताकि यह बिदत और ना बढ़ने पाए।... रिपोर्ट वारिस पाशा जनता की आवाज से बिलारी मुरादाबाद
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