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उत्तर प्रदेश

माचिस की आखिरी तीली..........रिवेश प्रताप सिंह

माचिस की आखिरी तीली..........रिवेश प्रताप सिंह
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रात के साढ़े ग्यारह बजे तक कलोनी के चार-पाँच घरों को छोड़कर लगभग पूरी तरह सन्नाटा हो जाता था। कॉलोनी में कुछ ही घर और उनमें कुछ ही कमरे थे जिसमें देर तक लाइट जलती थी। कमरों मे जलती हुई लाइट से लोग यह अंदाज़ कर लेते कि किन घरों में विद्यार्थी परीक्षा की तैयारी कर रहें हैं। उस वक्त मैं बीएसई सेकेन्ड ईयर में था। कालोनी में मैं एक किरायेदार था और वहां मेरा भी एक कमरा किराये पर था। कल केमेस्ट्री का पेपर..शुरु से केमेस्ट्री डराती रही है. सब समझने और रटने के बाद भी डर जाता नहीं था जैसे कोई कहे- 'विषहीन सर्प है काटने से विष नहीं चढ़ता लेकिन मन से भय नहीं जाता'..

अचानक बिजली गुल! खैर बिजली आना-जाना कोई बड़ी बात नहीं थी यह तो रोज का ड्रामा था लेकिन बात यह थी कि खाना बनाते वक्त आज दियासलाई के डिब्बे के सिर्फ एक दियासलाई की तीली बची थी। उसी वक्त सोचा कि नुक्कड़ से लेता आऊँ लेकिन परीक्षा का भय भी न.. बिल्कुल दिमाग अव्यवस्थित कर देता है। मोमबत्ती भी चार हैं लेकिन माचिस में तीली एक.. समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करूँ ? जला दूं! अगर जलाते ही तीली बुझ गई तब क्या करूँगा। बिजली भी कम से कम दो घंटे बाद ही लौटेगी और लौटे भी इसका भी क्या भरोसा ? वैसे मौसम भी बरसात का नहीं था ऐसा नहीं कि नमीं की वजह से तीली न सुलगे...लेकिन भरोसा भी क्या रगड़ते ही बारूद की मुंडी टूट जाये और सिर्फ लकड़ी हाथ में रह जाये। चलो अभी अंधकार है, लेकिन एक तीली की उम्मीद तो है अगर तीली ने धोखा दे दिया तब तो यह उम्मीद भी जाती रहेगी। कम से कम मन में यह विश्वास तो है कि एक तीली है मेरे पास। और सच उसका एक होना ही सबसे बड़ा भय था, दो होती तो भी रिस्क ले लेता। सोचने लगा कि मैं एक तीली के जलने बुझने की आशा पर इतना भयभीत हूँ वह भी केवल एक दो घंटे अंधेरे और प्रकाश को लेकर। गांव पर बाबूजी कितने भयभीत रहते होंगे आखिर में मैं भी तो उनकी जीवन में एक ही दियासलाई की तीली की तरह हूँ.. मेरे भीतर के प्रकाश की आशा में बाबूजी अभी तक अंधेरे में जी रहें हैं अपने लिये तो उन्होंने कुछ किया ही नहीं। ओह्ह! कितना भय में होंगे मेरे जीवन की सफलता और प्रकाश को लेकर। इसी उधेड़बुन में आधे घंटे गुजर गये लेकिन नींद उतनी दूर थी जितना दूर, मुझसे प्रकाश... तभी फाटक के खटखटाने की आवाज़ आयी ..
मैने लेटे-लेटे पूछा "कौन"
"बेटा मनीष"
हाँ
आप कौन ?
"बेटा मैं तुम्हारे बराबर से तुम्हारी क्लासमेट निधी की मम्मी"..

निधि का नाम सुनते ही, मैं दरवाज़ा खोलकर बाहर आ गया
"जी आंटी"
"सोये तो नहीं न थे बेटा ?"
"नहीं आंटी कल कमेस्ट्री का पेपर है न!"

बेटा दरअसल कल निधि का भी पेपर है और अचानक लाइट चली गई..देखा तो माचिस की डिब्बी खाली.. बेटा बहुत संकोच लग रहा था लेकिन निधि ने जोर देकर भेजा है। बोली कि... मम्मी! मनीष जग रहा होगा और उसके पास माचिस जरूर होगी।

मैंने यह सोचा भी नहीं कि इतनी सी तुच्छ चीज पर भी ईश्वर मेरी इतनी परीक्षा लेगा..
किस निष्ठुरता से कह दूं कि माचिस नहीं है। न कहने का सीधा मतलब की मैं देना नहीं चाहता क्योंकि इसके बाद यदि मेरे कमरे में प्रकाश होगा तो आंटी और निधि दोनों मुझे झूठा और संकुचित समझेंगी.. अगर मैं इस डर से अंधेरे में रहूँ तो इससे बेहतर कि निधि के कमरे में उजाला हो जाये। सवाल यह है कि एक तीली दूं भी तो कैसे ? अगर मैं यह कहता हूँ कि मेरे पास सिर्फ एक तीली है तो वह ले नहीं जायेंगी। वैसे जो सबसे महत्वपूर्ण था वो यह कि, निधि मेरे लिये सामान्य लड़की नहीं थी उसने आज पहली बार मुझसे एक तीली से उजाला मांगा तो कैसे मना कर दूं भला!

"क्या हुआ बेटा माचिस नहीं है क्या ?"

"है आंटी! लेकिन केवल दो ही तीली बची है।
चलिए! एक आपको दे देता हूँ एक खुद के लिए।
बुरा न मानियेगा आंटी"

नहीं बेटा, तब रहने दो। मान लो कि एक तीली न जले तब ?

"अरे! जलेगी कैसे नहीं आंटी। वैसे इतनी गर्मी है कि हाथ से तीली न छोड़िए तो हाथ जल जाता है। आप एक तीली ले जाइये और सावधानी से जला दीजिये.... मैं तो इस बात पर शर्मिंदा हूँ कि आंटी मेरे घर पहली बार कुछ मांगने भी आयीं तो मैं कितना लाचार हूँ..."

"नहीं बेटा, मुझे जरूरत भी तो केवल मोमबत्ती जलाने की है उसके बाद तो जलाते रहेंगे उसी से।"

आंटी को एक तीली देते वक्त मुझे इतनी आत्मग्लानि थी लेकिन मैं कर भी क्या सकता था। पांच मिनट के भीतर निधि के कमरे में मद्धिम प्रकाश दिखने लगा और मैं अंधेरे की दुनिया में सैर करता कभी केमेस्ट्री से डरता कभी निधि के विषय में सोचता और इन्हीं सब ख्यालातों में कब नींद में चला गया मुझे खबर भी न हुई!

रात में दो तीन घंटे मोमबत्ती के प्रकाश में और पढ़ लेता तो केमेस्ट्री का पेपर ऐसा ही होता या इससे कुछ अच्छा-बुरा यह बात मेरे समझ के बाहर थी तभी पीछे से एक पतली सी आवाज़ नें मुझे चौंका दिया

"मनीष"...
पीछे निधि थी
उनके कहा- "शुक्रिया मनीष कल आपने माचिस दे दिया नहीं दो क्वेश्चन रिवीजन न कर पाने से पेपर बिल्कुल खराब हो जाता."

सच कहूं, तो मै मुझे निधि का आभार बिल्कुल भी भारी लग रहा था भले ही उस एक तीली से घंटों रोशनी हुई हो लेकिन देने और पाने से वह एक पैसे की तीली ही तो थी.. कुछ भी था लेकिन धन्यवाद का वज़न तीली से अधिक था फिर भी मैं मुसकुराकर रह गया भले उस वक्त मैं अपना खुद का चेहरा न देख पाया लेकिन अवश्य ही उसमें थोड़ी सी शर्मिंदगी भी छुपी रही होगी...

वैसे माचिस के तीली ने और कुछ किया हो या न लेकिन इतना तो जरूर किया कि बीएससी अन्तिम वर्ष में निधि और मेरे बीच जो एक संकोच का अंधेरा था उसको छांट दिया... निधि अब एक अच्छी दोस्त बन चुकी थी..हो सकता है कि मैं अब कुछ अधिक उम्मीद करने लगा था लेकिन उसकी नजर में मैं एक दोस्त ही था.... अधिकांश शाम वाली चाय और कुछ फिजिक्स-केमेस्ट्री पर चर्चा आम हो गई थी... आंटी जब कभी रात के भोजन के लिए बोलतीं तो मैं साफ मना करता लेकिन निधि के कहने या उसके कहने के अंदाज़ से मना नहीं कर पाता...निधि से बात करना न जाने क्यूं मुझे अच्छा लगता था भले बातें केवल पढ़ाई के इर्दगिर्द घूमती रहती थी।

बीएससी के बाद एमएससी फिजिक्स में जब ऐडमिशन हुआ तो उसी वर्ष मुझे इलाहाबाद जाना पड़ा। पुराना शहर छोड़ना उतना कठिन नहीं था जितना उस एक दियासलाई वाले ताल्लुकात से हटना और दूर जाना। लेकिन यह सब एक भावावेश ही था लेकिन पढ़ाई उससे कहीं बहुत ज्यादे जरूरी...

शहर छोड़ते वक्त अन्तिम बार गया निधि के घर गया लेकिन उस वक्त भी वो उतनी खुश थी जितनी रोज। मेरे करियर के संभावनाओं को पूछती, इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के कैंपस वहाँ के माहौल को पूछती बात के दौरान मुझे एक बार भी नहीं लगा कि मेरा जाना उसके लिए कहीं भी कुछ रिक्त कर रहा है मैं उसके मम्मी-पापा को चरणस्पर्श करके पुनः अपने कमरे पर आ गया... मैं जरूर थोड़ा व्यथित था दरअसल निधि से कुछ और अपेक्षा रखकर गया था, खैर!

कमरे के सभी सामान पहले ही पैक थे अब मेरा बस कमरे से निकलना और कमरे को बस माचिस के खाली डिब्बे की तरह छोड़ना था। मैं अपना सामान निकालने के लिये मुड़ा की देखा मेरे पीछे नीधि...

मैंने चौंक कर देखा और कुछ पूछता तभी--
नीधि ने भरे गले से कहा बस इतना कहा कि "अपना ख्याल रखना मनीष" और रोते हुए मेरे कमरे से बाहर चली गई.. अभी मैं कुछ बोलता, रोकता कहता कि वह दूर निकल चुकी थी.. मैं फिर मैं उसी जगह लौट आया जहाँ सिर्फ एक तीली हो और उसको जलाने से बेहतर अपने पास रखना बेहतर समझा..

इलाहाबाद की नई जगह और नयी जिम्मेदारियों में मैं भूला तो कुछ भी नहीं लेकिन इतना जरूर था कि यहाँ वहाँ के बीच एक बेहतरीन स्मृतियों का सुखद एहसास था.. और कुछ पाने की न तो चाहत थी और न ही गंवाने की...

परास्नातक अन्तिम वर्ष था। फरवरी की हल्की सी ठंड और तेज धूप में मैं हॉस्टल के कमरे से बाहर धूप सेंक रहा था तभी डाकिये ने आवाज़ दी..."मनीष बाबू" मैंने उसकी ओर देखा और उसने मुझे एक लिफाफा थमा दिया। यह लिफाफा प्रतियोगी परीक्षाओं के लिफाफे से बहुत भारी और आकर्षक भी था लेकिन केवल उसका बाहरी भाग.. अन्दर का भाग मेरे लिए उतना सुखद नहीं था.. इसलिए नहीं कि उसमें निधि के विवाह की खबर छपी थी या इसलिए भी नहीं कि उसमें मेरा नाम नहीं था बल्कि सिर्फ इसलिए कि मेरे दिल में एक गलतफहमी बची थी कि निधि के हृदय में कुछ मेरा भी जलता है भले एक माचिस की तीली कितना ही क्यों न हो...

विवाह के दिन मैं शाम तक पहुंचा। नाश्ते-पानी के बाद आंटी ने मुझे बुलाया और कहा बेटा मनीष- निधि तुमसे मिलना चाहती है। यह संयोग था या निधि की योजना, लेकिन निधि से मेरी एकांत मुलाकात थी। निधि विवाह के जोड़ें में बहुत सुन्दर लग रही थी।
"कैसी लग रही हूँ मनीष' निधि ने चहकते हुए पूछा-
मैं चौंका...
बिल्कुल पहचान में ही नहीं आ रही ...
"बैठो मनीष...और पढ़ाई कैसी चल रही है ?"
"बढ़िया" मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया
"मनीष मैं तुमकों बहुत याद करती हूँ"
हलांकि मै नहीं कह पाया कि "मैं भी"
तब तक निधि ने मुझे के छोटा सा पैकेट निकालकर मेरी जेब में रख दिया और कहा कि "इसे यहाँ से जाने के बाद खोलना...
पूरे विवाह कार्यक्रम में मैं वैसा ही खुश दिख रहा था जैसे सब लेकिन अन्दर ही अन्दर कुछ टूट रहा था.. टूटने की आवाज़ बाहर तक न जाये इसका ध्यान था मुझे लेकिन निधि से छुपाना मुश्किल था ...

निधि के विदाई के पहले ही मेरा ट्रेन से रिजर्वेशन था इसलिए विदाई से पहले ही मैं निकल लिया। उस वक्त निधि से मिलना कठिन था और न ही मेरी इच्छा..

ट्रेन में अपनी सीट पर बैठते ही जो सबसे जरूरी था वो था निधि का दिया हुआ लिफाफा खोलना...
लिफाफा खोला तो सबसे ऊपर एक खत हाथ लगा... जरूरी था खत को पढ़ना क्योंकि खत में निधि की भावनाएं थीं.. कांपते हाथों से खत खोला..

प्रिय मनीष

यह सच है कि हमारे तुम्हारे बीच ऐसा कुछ भी नहीं कि तुम्हें पत्र भेजना पड़े....यदि मैं तुम्हें उपहार नहीं भेजती तो शायद यह खत भी नहीं..
मनीष तुम झूठे हो....झूठे इसलिए कि तुमने उस रात मेरी मम्मी से झूठ बोला था कि तुम्हारे पास केवल दो माचिस की तीलियाँ है... सच कहूँ तो मैं तीन घंटे तक तुम्हारे कमरे की खिड़कियों में प्रकाश ढूंढती रही लेकिन तुम्हारे कमरे में मुझे प्रकाश नहीं दिखा। मनीष क्या यह सच नहीं तुम्हारे पास एक अन्तिम तीली थी जो मुझे सौंप दिया...शायद इसलिए कि तुम मुझे कुछ खास समझते थे।

मनीष सच कहूँ तो मैं भी उस दिन मम्मी से झूठ बोली थी कि माचिस खत्म हो गयी है.. दरअसल मेरे पास भी एक माचिस की तीली बची थी लेकिन उसके पीछे एक बड़ा भय था वह यह कि यदि यह न जली तो मैं क्या करूंगी और वही भय मेरे हाथ को मुझसे माचिस की तीली जलाने नहीं दे रहा था. मैंने माचिस सिर्फ एक विकल्प के रूप में मंगायी थी लेकिन मुझे क्या पता था कि तुम्हारे पास भी सिर्फ एक तीली है जो तुम मुझे सौंप दोगे।
मनीष उस रात मैं स्वार्थी निकली। तुमनें मुझे अपने हिस्से का उजाला मुझे दे दिया और मुझे उस उजाले ने एक ऐसा दीपक दिया जो मेरे भीतर अब तक जल रहा है। सच तुम मेरे भीतर दीपक की तरह जलते हो मनीष।

मनीष मुझे मालूम है कि तुम अपने घर के इकलौते दीपक हो और तुम्हारा पूरा परिवार को उस प्रकाश के लिये आँखें लगाये जग रहा है। आज मेरे प्रेम से भी अधिक जरूरी तुम्हारा भविष्य है। मैं बिल्कुल भी नहीं चाहती थी कि मेरी वजह से तुम्हारे भविष्य पर कोई छाया भी आये।
तुम्हारी सफलता ही मेरे प्रेम की मंजिल है मनीष।

मनीष मैंने जो तुम्हें माचिस की डिब्बी वापस की है उसमें एक तीली बची है। वह वही तीली है जो उस रात तुमने मुझे दी थी। मनीष उसे सम्हालकर रखना जैसे मैंने तुम्हें अपने लिये नहीं स्पर्श किया और कभी जीवन में अंधकार महसूस हो तो माचिस की डिब्बी खोलकर देख लेना। उस अन्तिम तीली की तरह मैं तुम्हारे लिये आशा की किरण बनूंगी...
मनीष मुझे विश्वास है कि मैं तुमसे कितनी भी दूर रहूँ लेकिन जब मैं तुम्हारी तरफ झांककर देखूंगी तो तुम चमकते दिखोगे...ऐसा नहीं जैसा तुमने उस रात अपने कमरे में अंधेरा कर लिया था।
मनीष... मेरे प्रेम को दीपक की तरह अपने सामने जलाकर रखना..

तुम्हारी निधि

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रिवेश प्रताप सिंह
गोरखपुर
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