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उत्तर प्रदेश

मेरठ में अंदरूनी कलह ने डुबोई सपा की लुटिया

मेरठ में अंदरूनी कलह ने डुबोई सपा की लुटिया
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मेरठ : निकाय चुनाव में सपा शुरुआत से ही हर मोर्चे पर पिछड़ती नजर आई। बूथ मैनेजमेंट से लेकर प्रचार तक में सपा अन्य दलों के पीछे ही रही। भाजपा प्रत्याशी के लिए तो खुद सीएम योगी आदित्यनाथ उतरे, जबकि बसपा ने टोलियां बनाकर व कैडर के जरिए पार्टी को मजबूत करने की कोशिश की।
मेयर के लिए एससी महिला के लिए सीट आरक्षित हो जाने के बाद सपा में टिकट को लेकर लंबा मंथन हुआ। निर्विवाद छवि वाले एससीएसटी प्रकोष्ठ के विपिन मनोठिया अपनी पत्नी दीपू मनोठिया को टिकट दिलाने में कामयाब रहे। लेकिन चुनाव में वह अलग-थलग पड़े रहे। विधायक रफीक अंसारी, महानगर अध्यक्ष अब्दुल अलीम अलवी व पूर्व महानगर अध्यक्ष आदिल चौधरी ही उनके चुनाव प्रचार में मुख्य तौर पर दिखे।
वहीं टिकट वितरण को लेकर संगठन में आपसी उठापटक भी खूब चर्चा में रही। चहेतों, रिश्तेदारों को टिकट बांटने व तीन बार जिस क्षेत्र से वह पार्षद रहे वहीं से किसी को पार्टी के सिंबल पर चुनाव न लड़ाने को लेकर विधायक रफीक अंसारी घिरते दिखे। जिले में महज सरधना पर ही सपा जीती। सरधना पालिका की चेयरमैन बनीं शकीला बेगम के पति निजाम अंसारी खुद चेयरमैन रह चुके हैं। ऐसे में पार्टी से ज्यादा उनकी पैठ क्षेत्र में ज्यादा गहरी बताई जाती है। हर्रा से पार्टी ने किसी प्रत्याशी को नहीं उतारा। अदूरदर्शी निर्णयों के कारण अंजाम भी पार्टी के लिए बेहद दर्दनाक रहा। रफीक अंसारी के रिश्तेदार मो. राशिद अंसारी वार्ड 79 से चुनाव जीते। कुल सपा के चार प्रत्याशी पार्षद बन सके। वर्ष 2012 में सपा चुनाव चिह्न पर चुनाव नहीं लड़ी थी। इससे पहले 2007 में सपा चुनाव चिह्न पर उतरी थी, जब पार्टी के दस पार्षद जीते थे। पार्टी प्रत्याशी दीपू मनोठिया पचास हजार वोट भी हासिल नहीं कर सकीं। उन्हें महज 47153 मत मिले। खास बात है कि महानगर अध्यक्ष अब्दुल अलीम अलवी अपने भाई फईम अलवी को भी जीत नहीं दिला सके।
पार्टी की करारी शिकस्त के लिए अंदरूनी कलह को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। निकाय चुनाव की कमान पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव व राज्यसभा सांसद सुरेंद्र नागर के साथ ही पूर्व कैबिनेट मंत्री शाहिद मंजूर को सौंपी गई। नागर तो बैठक करने मेरठ आए भी लेकिन मंजूर, दीपू के प्रचार में दिखे ही नहीं। जबकि सपा सरकार में दर्जनभर से भी ज्यादा दर्जा प्राप्त मंत्रियों की फौज चुनाव में कहां गुम रही इस पर सवाल उठ रहे हैं।
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