"घर से बहुत दूर है मंदिर/मस्जिद यारो....."
BY Suryakant Pathak2 Sep 2017 8:16 AM GMT

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Suryakant Pathak2 Sep 2017 8:16 AM GMT
वैसे तो मुम्बई के ऑटोरिक्शा चालको और टैक्सी ड्राईवरो की आम जान मानस में अच्छी छवि नहीं है क्योकि आए दिन वे अपने बर्ताव से लोगो को परेशान करते रहते है पर कभी कभी कुछ ऐसी बाते हो जाती है जिससे लगता है क़ि वे भी भले मानस है। शायद पेशे की मजबूरियो या दुश्वारियों के वजह से उनका सही पक्ष दब के रह जाता है।
आज शाम ऑटोरिक्शा से आ रहा था। अंतिम पड़ाव मेरा था पर मेरे पड़ाव के आने से पहले वाले पड़ाव पर सारे मुसाफिर उतर गए। अब सिर्फ मै और ड्राईवर ही थे। कुछ दूर आगे बढ़ने पर दो नंही छात्राएं दिखाई दी तो ऑटो वाले ने ऑटो उनके पास रोक दी। नन्हे कंधे पर बस्ते का बोझ और ऊपर से पैदल चलने के वजह से उनके चेहरे पर थकान थी। ऑटो वाले ने उन्हें बैठने का इशारा किया। दोनों लड़कियो ने बड़ी मासूमियत से जबाब दिया कि उनके पास पैसे नहीं है। ऑटो वाला ने मुस्कुरा कर कहा कि पैसे की चिंता मत करो।
दोनों लडकिया ऑटो में बैठ गयी। दोनों के मुरझाये चेहरे खिल गए। उन्हें जो ख़ुशी उन्हें मिली थी शायद एक साथ सौ चॉकलेट देने से भी वो नहीं मिलती।
ड्राईवर ने एक झटके में सौकडो सालो का पूण्य बटोर लिया था। मुझे बरबस ही निदा फाजली साहब का एक शेर याद आ गया-
घर से बहुत दूर है मस्जिद/मंदिर यारो, चलो किसी रोते हुवे बच्चे को हँसाया जाय।
हम ज्यादातर समय मंदिर मस्जिद के ही बहस में उलझे रहते है। काश थोडा समय निकाल कर अगर नन्हे होठो पे मुस्कान लायी जाए तो दुनिया कितनी हसीन हो जायेगी।
एक सलाम उस रिक्शेवाले को भी।
धनंजय तिवारी
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