माँसाहार और साइंस की दलीलों के नाम : अजीत भारती
BY Suryakant Pathak2 Sep 2017 8:01 AM GMT

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Suryakant Pathak2 Sep 2017 8:01 AM GMT
माँस इसीलिए नहीं खाना चाहिए क्योंकि बेचारों में जान होती है। पौधों में भी तो जान होती है? नहीं पौधों में सेण्ट्रल नर्वस सिस्टम नहीं होता! अच्छा, मतलब दिमाग नहीं है, न्यूरॉन नहीं हैं तो आप एकदम श्योर हैं कि पौधों को 'महसूस' नहीं होता इसीलिए खाओ। पर माँस मत खाओ, फीलिंग होती है उनमें।
तुम संवेदनशील हो सकते हो, तुम्हें माँस देखना अच्छा न लगता हो, तुम्हें सच में फ़र्क़ पड़ता हो कि कोई मेरे आहार के लिए क्यों मरे, तुम्हें अच्छा ही न लगता हो माँस खाना... कई कारण हो सकते हैं कि तुम शाकाहारी हों। लेकिन ये तुम्हें माँसाहारियों के प्रति स्वतः मोरल हाय ग्राउंड नहीं दे देता। ये कोई तर्क ही नहीं है कि तुम उनसे बेहतर हो। जिसको जो अच्छा लग रहा है, खाए। इससे ना तो कोई कानून टूटता है, ना ही प्रकृति का कोई नियम जिसमें जीव को जीव मारकर नहीं खाता है।
खुद को मूर्ख मत बनाओ। जो खाना है खाओ या मत खाओ। ऐसी दलीलें ना दो कि 'दर्द' होता है इसीलिए नहीं खाते। तुम इसलिए नहीं खाते क्योंकि तुम्हें नहीं खाना और उसके लिए दलील देने की ज़रूरत नहीं है।
ज़िंदा रहने के लिए तुम्हें खाना है और इसलिए तुम दलील दोगे कि पौधों को फ़ील नहीं होता जबकि सबको पता है कि पौधों में जीवन होता है। विज्ञान को अपने हिसाब से मत मोड़ो। केनाईन दाँत लिए घूमते हो, माँस पच रहा है देह में मतलब सीधा है कि प्रकृति ने तुम्हें वैसा बनाया है। गाय का दूध तुम्हारे लिए नहीं होता, वो उसके बच्चे के लिए होता है।
जानवर का दूध निकाल लो उसमें उनको फ़ील नहीं होता। तो फिर जाओ अपनी माँ का दूध निकाल कर किसी को बेच आओ! मतलब आदमी की माँ का दूध बच्चे के लिए, लेकिन गाय का दूध 'इतना ज्यादा होता है कि बच्चा पी नहीं सकता'। मेरे घर में गाएँ हैं और जब भी बच्चा खुल जाता है तो सारा दूध पी लेता है। मतलब कि वो एक बार ना सही दिन भर थोड़ा थोड़ा करके पी ही जाएगा।
शेरनियों के भी दूध होते हैं, उसे दूह लो जाकर। चीड़ के रख देगी और एक भी बार नहीं सोचेगी कि तुम्हारे फीलिंग्स हैं या नहीं।
तुम्हारी फीलिंग जो है वो कन्वीनिएंस की है। पौधे ज़हरीले नहीं तो खा जाओ, वो रोते नहीं तो खा जाओ, वो आवाज नहीं करते तो खा जाओ... ये जायज़ है क्योंकि वो खाने के लिए ही बने हैं। लेकिन माँस! अरे बाप रे बाप! मुर्ग़ा तो रोता है भाई! बकरे का तो दिमाग होता है, वो कहता है, "भगवान के लिए मुझे छोड़ दो, मेरे पास सीएनएस यानि सेंट्रल नर्वस सिस्टम है, मैं फ़ील कर रहा हूँ!" लेकिन गौ माता कहती हैं, "अरे हमारा क्या है, हमारे बच्चे तो फिर भी पल जाएँगे, आप अपने बच्चे को शाकाहार कराईए, दूध को हॉर्लिक्स में मिलाकर उसकी शक्ति बढाईए। हमारा लल्ला तो घास खा ही लेगा। बाँ, बाँ, बाँऽऽऽऽ"
ढेर सारे विचार जो हैं दुनिया में वो फर्जी है। साइंस का सहारा सिर्फ अपने तर्क को साबित करने और सामने वाले के 'ना जानने की स्थिति' को भुनाना भर है।
कुल मिलाकर यह कि आहार श्रृंखला है, तुम्हारे जीने के लिए किसी को मरना तय है। तुम मुर्ग़ा मत खाओ तो कोई और खाएगा। कल को साँप को बोलना कि भाई चूहा मत खाओ। चार पैसा भी नहीं जानते ब्रह्मांड का और तय लिया है कि हमने सेमिकंडक्टर बना लिया तो हम सबसे ज्ञानी हैं और हमने जो समझ लिया वो परम सत्य है। अरे साँप तो घास नहीं खाता, शेर तो माँस ही खाएगा, गाय तो ज्यादा दूध देती है, घास तो बहुत उगता है, सब्ज़ी तो हम खाने के लिए ही उगाते हैं, साईंस ऐसा कहता है...
मेरा कोई तर्क नहीं है। मैं ये जानता हूँ कि मैं निरा मूर्ख हूँ और मेरे पास कोई लॉजिक नहीं है। मुझे मुर्ग़ा कहाँ कटा, कैसे कटा, कितना खून निकला, खून के रासायनिक तत्वों में क्या प्रतिक्रिया हुई, उससे मेरे शरीर को क्या नुक़सान होगा, वो कितने दिन में पचेगा इत्यादि से वैसे ही फ़र्क़ नहीं पड़ता जैसे कि ये आँटा कहाँ से आया, वो गेहूँ कैसे सूखा, गेहूँ का पौधा कितना रोया, उसमें कितनी खाद पड़ी, वो मिल में पिसते वक़्त कैसे कराह रहा था...
ना भई ना, हम मूर्ख, गँवार आदमी हैं। हमें प्लेट में मुर्ग़ा दे दो और रोटी (चावल भी चलेगा)। हम एक बार भी ना मुर्ग़ा के बारे में सोचेंगे, ना गेहूँ के बारे में।
अजीत भारती
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