मुसलमानों की 'चुप्पी' के सवाल पर इरफ़ान को मिला जवाब... आप भी पढिये
बांग्लादेश में चरमपंथी हमले के बाद बॉलीवुड अभिनेता इरफान खान ने फेसबुक पर सवाल उठाया था कि मुसलमान चुप क्यों हैं? इरफान के इस सवाल पर दुनिया भर से लोग अपने जवाब दे रहे हैं।
बीबीसी एक रिपोर्ट के मुताबिक उन जवाबों के ऐवज में कुछ लोगों ने सवाल भी किए हैं। उनमें से एक है- जब बर्मा और इस्राइल में मुसलमानों पर जुल्म होता है, तो सभी बौद्धों और यहूदियों को आतंकी क्यों नहीं कहा जाता?
पत्रकार वसीम अकरम त्यागी ने लिखा, "मुसलमान एक अजीब कशमकश से गुजर रहा है, वह चरमपंथी घटनाओं का सबसे ज्यादा शिकार है, सबसे ज्यादा जानें भी मुसलमानों की गई हैं...और आतंकी होने का ठप्पा भी मुसलमानों पर लगा दिया गया है. जब कहीं हमला होता है तो सबसे पहले पूरी दुनिया मुसलमानो की तरफ देखती है कि वे आगे आकर इसकी निंदा करें, आतंकवाद से इस्लाम से कोई रिश्ता नहीं है ऐसे बयान दें."
उन्होंने लिखा, "दो चार दिन पहले इस्तांबुल में 44 मारे गए, कल इराक में मारे दिए गए, मगर क्या वजह है कि चर्चा सिर्फ बंग्लादेश को लेकर होती है. चर्चा ब्रसेल्स, फ्रांस को लेकर होती है, क्या फ़लस्तीन को लेकर किसी अभिनेता ने सवाल किया कि यहूदी चुप क्यों हैं ? क्या इराक़ को लेकर किसी ने कहा कि इसाई चुप क्यों हैं? मुसलमान खुद कशमकश में हैं कि करें तो क्या करें ? वह इन घटनाओं में सबसे अधिक जानें गंवाने वाला वर्ग है और उसी पर ज़िम्मा है कि वह सबसे पहले आकर उस आतंकवाद की निंदा करे जिसे इस्लाम पहले ही खारिज कर चुका है."
नज़रुल हक़ ने लिखा, "जिस इस्लाम में वुज़ु में पानी बहाने से रोका गया है, उसमें बेग़ुनाहों का ख़ून बनाने की इजाज़त किसने दी? ये लोग मुसलमान नहीं हो सकते?"
नवी अंसारी ने लिखा, "जिन्होंने क़ुरान शरीफ़ की आयतें न सुनाने पर बेग़ुनाहों का क़त्ल कर दिया, उनसे पूछा जाए कि क़ुरान की कौन सी आयत में लिखा है कि बेग़ुनाहों का क़त्ल किया जाए?"
वसीम अख़्तर ने तर्क दिया, "अगर कोई इंसान बुरा करता है, तो इंसान बुरा है, ना कि उसका धर्म. जो लोग आतंकवाद कर रहे हैं वो मुसलमान नहीं है. इस्लाम किसी के साथ बुरा करने की शिक्षा नहीं देता."
फ़ारूख़ शेख ने लिखा, "मस्जिद में जाओ भाई, सुनाई पड़ेगा कि मुसलमान चुप नहीं हैं. वो आलोचना कर रहे हैं. बस टीवी पर सुनाई नहीं दे रहा है."
नफ़ीस अख़्तर ने पूछा, "जब बर्मा और सीरिया में बेग़ुनाह मुसलमान मारे जाते हैं तब ये सवाल क्यों नहीं उठता?"
तौसीफ़ शेख ने तर्क दिया, "आतंकवाद से किसी का लेना देना नहीं होता. क्या हिटलर मुसलमान थे, जिन्होंने लाखों लोग मार दिए. नाज़ी क्या मुसलमान थे. उल्फ़ा, एमसीसी या बोडो क्या मुस्लिम है? क्या पहला विश्वयुद्ध मुसलमानों ने किया था? हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम क्या मुसलमानों ने गिराए थे?"
अब्दुल मजीद ने पूछा, "मुट्ठीभर लोग अगर गलत काम करें तो पूरे इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ना कहां का इंसाफ़ है. देश को धर्मनिरपेक्षता, एकता और विभिन्नता की ज़रूरत है. अपने फ़ायदे के लिए धार्मिक भावनाएं भड़काना गंदी सोच है."
शेख शाहनवाज़ ने कहा, "भारतीय मुस्लिम धर्मगुरुओं ने तो इनके ख़िलाफ़ फ़तवा जारी किया था, लेकिन ये शैतान इन सबको कहां मानते हैं. भारत में मुसलमान मज़ाक बन गए हैं. हम कुछ भी करें या कहें हमें सीधे आतंकवाद से जोड़ दिया जाता है. तो कोई क्या कहे?"
रविवार को बग़दाद में हुए आत्मघाती हमलों में 125 से ज़्यादा लोग मारे गए.
मुनीब ख़ान ने लिखा, "जो लोग इस्लाम के ख़िलाफ़ बोलते हैं वो कभी मस्जिद या मदरसा नहीं गए. कभी क़ुरान को नहीं पढ़ा और कभी मुसलमानों के साथ नहीं रहे. मीडिया में सुनकर और गूगल पर सर्च करके अपने आप को इस्लाम का विशेषज्ञ समझने लगे हैं."
सुहैल अहमद ने लिखा, "जब इस्लाम में बेग़ुनाह का ख़ून बहाना ग़ुनाह है तो फिर ये लोग मुसलमान कैसे हो सकते हैं?"
अब्दुल कादेर ज़हीर ने लिखा, "जिन्होंने ये हत्याएं की हैं वो क़ुरान की आयतें नहीं जानते हैं. क़ुरान में कहा गया है कि अगर मुसलमान किसी बेग़ुनाह इंसान (सिर्फ़ मुसलमान नहीं कहा अल्लाह ने) की हत्या करता है तो वो पूरी इंसानियत की हत्या करता है."
इकराम वारिस ने कहा, "हमें इस बात पर भी चर्चा करनी चाहिए कि इस्लामिक स्टेट को हथियार कौन देता है. ये गोला बारूद देने वाले मुसलमान नहीं हैं."
दिल्ली की समाजसेविका शबाना ख़ान ने लिखा, "फ़िल्म एक्टर को इतनी चिंता है तो थोड़ा आगे आकर मुसलमानो के बीच काम करें. खाली बातें करने से बात नहीं बनेगी. ज़मीन पर काम करने की ज़रूरत है, जैसे हम और आप करते हैं. हम लोग घर, घर जाकर लोगों में जागरूकता फैलाने की कोशिश कर रहे हैं. मुझे लगता है इरफान भाई को हमारे काम में हाथ बटाना चाहिए."
बीबीसी एक रिपोर्ट के मुताबिक उन जवाबों के ऐवज में कुछ लोगों ने सवाल भी किए हैं। उनमें से एक है- जब बर्मा और इस्राइल में मुसलमानों पर जुल्म होता है, तो सभी बौद्धों और यहूदियों को आतंकी क्यों नहीं कहा जाता?
पत्रकार वसीम अकरम त्यागी ने लिखा, "मुसलमान एक अजीब कशमकश से गुजर रहा है, वह चरमपंथी घटनाओं का सबसे ज्यादा शिकार है, सबसे ज्यादा जानें भी मुसलमानों की गई हैं...और आतंकी होने का ठप्पा भी मुसलमानों पर लगा दिया गया है. जब कहीं हमला होता है तो सबसे पहले पूरी दुनिया मुसलमानो की तरफ देखती है कि वे आगे आकर इसकी निंदा करें, आतंकवाद से इस्लाम से कोई रिश्ता नहीं है ऐसे बयान दें."
उन्होंने लिखा, "दो चार दिन पहले इस्तांबुल में 44 मारे गए, कल इराक में मारे दिए गए, मगर क्या वजह है कि चर्चा सिर्फ बंग्लादेश को लेकर होती है. चर्चा ब्रसेल्स, फ्रांस को लेकर होती है, क्या फ़लस्तीन को लेकर किसी अभिनेता ने सवाल किया कि यहूदी चुप क्यों हैं ? क्या इराक़ को लेकर किसी ने कहा कि इसाई चुप क्यों हैं? मुसलमान खुद कशमकश में हैं कि करें तो क्या करें ? वह इन घटनाओं में सबसे अधिक जानें गंवाने वाला वर्ग है और उसी पर ज़िम्मा है कि वह सबसे पहले आकर उस आतंकवाद की निंदा करे जिसे इस्लाम पहले ही खारिज कर चुका है."
नज़रुल हक़ ने लिखा, "जिस इस्लाम में वुज़ु में पानी बहाने से रोका गया है, उसमें बेग़ुनाहों का ख़ून बनाने की इजाज़त किसने दी? ये लोग मुसलमान नहीं हो सकते?"
नवी अंसारी ने लिखा, "जिन्होंने क़ुरान शरीफ़ की आयतें न सुनाने पर बेग़ुनाहों का क़त्ल कर दिया, उनसे पूछा जाए कि क़ुरान की कौन सी आयत में लिखा है कि बेग़ुनाहों का क़त्ल किया जाए?"
वसीम अख़्तर ने तर्क दिया, "अगर कोई इंसान बुरा करता है, तो इंसान बुरा है, ना कि उसका धर्म. जो लोग आतंकवाद कर रहे हैं वो मुसलमान नहीं है. इस्लाम किसी के साथ बुरा करने की शिक्षा नहीं देता."
फ़ारूख़ शेख ने लिखा, "मस्जिद में जाओ भाई, सुनाई पड़ेगा कि मुसलमान चुप नहीं हैं. वो आलोचना कर रहे हैं. बस टीवी पर सुनाई नहीं दे रहा है."
नफ़ीस अख़्तर ने पूछा, "जब बर्मा और सीरिया में बेग़ुनाह मुसलमान मारे जाते हैं तब ये सवाल क्यों नहीं उठता?"
तौसीफ़ शेख ने तर्क दिया, "आतंकवाद से किसी का लेना देना नहीं होता. क्या हिटलर मुसलमान थे, जिन्होंने लाखों लोग मार दिए. नाज़ी क्या मुसलमान थे. उल्फ़ा, एमसीसी या बोडो क्या मुस्लिम है? क्या पहला विश्वयुद्ध मुसलमानों ने किया था? हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम क्या मुसलमानों ने गिराए थे?"
अब्दुल मजीद ने पूछा, "मुट्ठीभर लोग अगर गलत काम करें तो पूरे इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ना कहां का इंसाफ़ है. देश को धर्मनिरपेक्षता, एकता और विभिन्नता की ज़रूरत है. अपने फ़ायदे के लिए धार्मिक भावनाएं भड़काना गंदी सोच है."
शेख शाहनवाज़ ने कहा, "भारतीय मुस्लिम धर्मगुरुओं ने तो इनके ख़िलाफ़ फ़तवा जारी किया था, लेकिन ये शैतान इन सबको कहां मानते हैं. भारत में मुसलमान मज़ाक बन गए हैं. हम कुछ भी करें या कहें हमें सीधे आतंकवाद से जोड़ दिया जाता है. तो कोई क्या कहे?"
रविवार को बग़दाद में हुए आत्मघाती हमलों में 125 से ज़्यादा लोग मारे गए.
मुनीब ख़ान ने लिखा, "जो लोग इस्लाम के ख़िलाफ़ बोलते हैं वो कभी मस्जिद या मदरसा नहीं गए. कभी क़ुरान को नहीं पढ़ा और कभी मुसलमानों के साथ नहीं रहे. मीडिया में सुनकर और गूगल पर सर्च करके अपने आप को इस्लाम का विशेषज्ञ समझने लगे हैं."
सुहैल अहमद ने लिखा, "जब इस्लाम में बेग़ुनाह का ख़ून बहाना ग़ुनाह है तो फिर ये लोग मुसलमान कैसे हो सकते हैं?"
अब्दुल कादेर ज़हीर ने लिखा, "जिन्होंने ये हत्याएं की हैं वो क़ुरान की आयतें नहीं जानते हैं. क़ुरान में कहा गया है कि अगर मुसलमान किसी बेग़ुनाह इंसान (सिर्फ़ मुसलमान नहीं कहा अल्लाह ने) की हत्या करता है तो वो पूरी इंसानियत की हत्या करता है."
इकराम वारिस ने कहा, "हमें इस बात पर भी चर्चा करनी चाहिए कि इस्लामिक स्टेट को हथियार कौन देता है. ये गोला बारूद देने वाले मुसलमान नहीं हैं."
दिल्ली की समाजसेविका शबाना ख़ान ने लिखा, "फ़िल्म एक्टर को इतनी चिंता है तो थोड़ा आगे आकर मुसलमानो के बीच काम करें. खाली बातें करने से बात नहीं बनेगी. ज़मीन पर काम करने की ज़रूरत है, जैसे हम और आप करते हैं. हम लोग घर, घर जाकर लोगों में जागरूकता फैलाने की कोशिश कर रहे हैं. मुझे लगता है इरफान भाई को हमारे काम में हाथ बटाना चाहिए."
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