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उत्तर प्रदेश

सपा दूसरी पारी की तैयारी में, बसपा अंदरखाने चित



तीन माह पहले बसपा की तूती बोलने का आलम यह था कि वह सपा से टिकट पा चुके नेता को भी अपने पाले में मोड़ने की औकात रखती थी। बसपा के इशारे पर मुजफ्फरनगर के मीरापुर सीट से पूर्व विधायक शहनवाज राणा सपा का मिला टिकट रातोंरात लौटा देते हैं। उन्हें बसपा अपने पाले में कर टिकट का ऑफर देती है। राणा 2012 के इलेक्शन से पहले बसपा के टिकट पर मीरापुर सीट से विधायक रहे। बीच में सपा में चले गए थे। दलित  के साथ मुस्लिम वोटों के गठजोड़ के तहत मायावती ने सौ से ज्यादा मुस्लिम प्रत्याशी उतारने का फैसला किया। जिससे मुस्लिम वोटों की बड़ी ठेकेदार मानी जा रही सपा के होश उड़ गए। इसी  प्रकार बसपा के साथ सतीश मिश्रा और ब्रजेश पाठक जैसे सवर्ण नेताओं के  होने से पार्टी सवर्ण मतों में भी पहले की तरह घुसपैठ करती दिखी। इस प्रकार बसपा के साथ दलित, मुस्लिम, सवर्ण और अति पिछड़ा। यानी यूपी का चुनाव जीतने के लिए सभी जातियों का कुछ न कुछ वोट पाले में खड़ा मिला। मगर स्वामी मौर्या के जाने से कुछ अति पिछड़ा मतों में बिखराव तय है।  क्योंकि बीजेपी ने अति पिछड़ा वोट लपकने के लिए इस बार केशव मौर्या को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर खड़ा कर दिया। वे एक भी दिन खामोश नहीं बैठे हैं। हर जिले में जाकर जातीय समीकरण फिट करने में जुटे हैं।

जिस सोशल इंजीनियरिंग से बसपा ने यूपी जीता था वही समीकरण हो रहा ध्वस्त

2007 के चुनाव में जिस सोशल इंजीनियरिंग के दम पर बसपा ने चुनाव जीता था वही सोशल इंजीनियरिंग ध्वस्त होता दिख रहा। सपा या बसपा जैसे यूपी के दो प्रमुख दलों की पूरी राजनीति ही जातीय समीकरण पर टिकी है। यूपी में माना जाता है कि अगर आपको किसी जाति का वोट पाना है तो उस जाति का एक बड़ा चेहरा पार्टी में रखिए। जाटव सहित सभी अनुसूचित जातियों की बसपा भले ही इकलौती ठेकेदार हैं मगर एक जाति के दम पर आप यूपी में विजयपताका नहीं फहरा सकते। यही बात जब वकील दिमाग सतीश मिश्रा ने मायावती के दिमाग मे फिट की तो उन्होंने दलित संग अति पिछड़ा व सवर्ण लाबिंग करने की ठानी। बसपा का यह सोशल इंजीनियरिंग मिशन  सफल रहने से पार्टी को जीत हुई थी। उस समय बसपा की ताकत से यूपी में अति पिछड़ी जातियां  प्रभावित रहीं। मौर्या, तेली, कुशवाहा, काछी, कुर्मी आदि जातियां  बसपा के वोटबैंक के तौर पर जुड़ीं रहीं। इसकी प्रमुख वजह रहीं कि बसपा में मौर्या चेहरा के रूप में स्वामी प्रसाद या बाबूलाल कुशवाहा की मौजूदगी भी रही। मगर अब दोनों नेता बसपा छोड़ चुके हैं। इधर पार्टी में शुरुआत से जुड़े रहे पासी वोटों के ठेकेदार आरके चौधरी भी अलग हो गए हैं। जाहिर सी बात है कि इससे भले ही बसपा पूरी तरह से न टूटे मगर चुनावी गणित जरूर खराब होगी। सोशल इंजीनियरिंग पर भी असर पड़ेगा।

पहले हारती दिख रही सपा अब फिर परिदृश्य में वापस

जब से 2012 में यूपी में सपा सरकार बनी तो बदहाल कानून व्यवस्था का भूत अखिलेश सरकार को सताता रहा। चार साल के राज में छह सौ से ज्यादा दंगे का सरकार के दामन पर लगा काला दाग। बदायूं में सगी बहनों  के साथ गैंगरेप।  तो हर चार से छह महीने में वर्दीवालों की हत्या। पिछले साल दादरी में अखलाक की हत्या। साथछ ही साथ रह-रहकर आजम खान के विवादित बोल, उनकी पार्टी से नाराजगी। चाचा शिवपाल-रामगोपाल की तनातनी। मुलायम कुनबे की आपसी खटपट। हाल में मथुरा हिंसा। जिसमें दो पुलिस अफसरों की मौत। इसे देख पिछले कुछ समय से माना जाने लगा कि सपा अब वापसी नहीं कर पाएगी। मगर अखिलेश यादव ने पार्टी में चाचाओं की भूमिका को और संकुचित करते हुए पूरी ग्रिप अब अपने हाथ में ले ली है। हाल में अंसारी ब्रदर्स की पार्टी में एंट्री पर जिस तरह से उन्होंने चाचा शिवपाल यादव के फैसले को नेताजी यानी मुलायम सिंह यादव से पलटवा दिया। उससे संदेश जा रहा कि अब पार्टी में अंकलराज खत्म हो गया है। अखिलेश विकास कार्यक्रमों का आक्रामकता से प्रचार करने में लगे हैं। ऐसे में राजनीतिक विश्लेषक मानकर चल रहे हैं कि सपा को पहले जितना कमजोर माना जा रहा था अब फिर से मजबूत है।



क्या लोकसभा चुनाव जैसा वोट प्रतिशत भाजपा को मिलेगा

बात 2012 के विधानसभा चुनाव। सपा उस समय 29.13 फीसद वोट के साथ सर्वाधिक 224 सीट मिली। जबकि बसपा को 25.91 प्रतिशत वोट से 80 सीटें मिलीं। भाजपा को महज 15 प्रतिशत वोट पर 47 और कांग्रेस ने सिर्फ 11.65 प्रतिशत पाकर 28 सीटें मिलीं। ठीक दो साल बाद जब 2014 में लोकसभा चुनाव हुआ तो मोदी लहर में सारे दल उड़ गए। भाजपा के 15 प्रतिशत वोट में 24 फीसद की बढोतरी हुई। 42.63 वोट प्रतिशत होने से सपा और बसपा के मत प्रतिशत में सात और छह फीसद की गिरावट हुई। वहीं कांग्रेस का वोट प्रतिशत विधानसभा चुनाव के मुकाबले लोकसभा में 7.8 प्रतिशत ही वोट मिले। सपा को सिर्फ पांच और कांग्रेस को दो सीटें मिलीं। जबकि बसपा शून्य रही। भाजपा के खाते मे रिकार्ड 71 सीटें आईं। इस जीत के बाद बिहार  विधानसभा चुनाव ने हार के जख्म दिए। मगर हालिया असम में जीत ने भाजपा को टॉनिक दी है। जिससे भाजपा यूपी में 14 साल से जारी वनवास को खत्म करने की बात कर रही।



भाजपा ने इन जातियों पर गड़ाई नजर

यूपी चुनाव में जीत के लिए भाजपा ने सवर्णों के साथ अति पिछड़ों का कनेक्शन फार्मूले पर अमल करने की तैयारी की है। जिसके तहत पार्टी नेताओं को कुर्मी, मल्लाह, निषाद,  कुम्हार, कोछी,  तेली जैसी अति पिछड़ी जातियों और धानुक, पासी, वाल्मीकी जैसी तमाम अति दलित जातियों में पकड़ बनाने का फरमान जारी किया गया है।
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