यूपी में बंटी हुई है मुस्लिम सियासत, कौन करेगा रहनुमाई
उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोटों की सियासत एक बार फिर दोराहे पर खड़ी है। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने मुस्लिम उम्मीदवारों के बगैर ही शानदार कामयाबी हासिल कर एक नया सियासी संकेत दिया था।
मौलाना मुलायम के नाम से पहचान रखने वाले सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव की पार्टी में भी मुस्लिम मुद्दों पर अब पहले की तरह जोर नहीं दिख रहा। मुस्लिम वोटों के लिए बसपा की कोशिशों में भी पहले वाला दम नहीं दिख रहा।
ऐसे में यूपी में मुस्लिम मतदाताओं के मुद्दे और उनकी पहचान को लेकर एक नया संकट पैदा होता दिख रहा है। इसकी पहली वजह तो यही है कि पिछले कुछ चुनावों में मुस्लिम वोटरों का रुझान स्पष्ट नहीं रहा।
जाहिर है डिवोटेड वोटर के तौर पर इसकी विश्वसनीयता आज सवालों के घेरे में है। शायद इसीलिए यह सवाल उठने लगा है कि क्या असम की तरह यूपी में भी मुस्लिम वोटों का स्पष्ट विभाजन एक सियासी मुहिम बन सकता है। असम का चुनाव परिणाम इस नए सियासी संदेश के साथ यूपी में चर्चा का विषय बना है।
देश में सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाले असम में भाजपा की कामयाबी एक नई कहानी है। उसकी जीत का गणित साफ है-कांग्रेस और यूडीएफ के बीच मुस्लिम वोटों का बंटवारा। इससे भाजपा की जीत की राह आसान हो गई।
असम में भाजपा के खिलाफ कांग्रेस व बदरुद्दीन अजमल की अगुवाई वाले एआईयूडीएफ के बीच समझौता की कोशिशें परवान नहीं चढ़ सकी थीं। नतीजतन, मुस्लिम वोट विभाजित हो गए।
भाजपा कुछ इसी तरह की रणनीति उत्तर प्रदेश में भी आजमा सकती है। लोकसभा चुनाव में भी इसका प्रयोग हो चुका है। उस समय भी मुस्लिम वोटों का बंटवारा हुआ था। इसका सीधा लाभ भाजपा को मिला। प्रदेश में भाजपा और उसके सहयोगी दल के 73 सांसद चुने गए।
वैसे यूपी में मुस्लिम वोटों पर मुख्य तौर पर सपा-बसपा और कांग्रेस का दावा रहता है, पर अब असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम, जनता दल यू समेत कई छोटी पार्टियों की नजर भी इस पर है।
पीस पार्टी ने तो पिछले विधानसभा चुनाव में इन वोटों को एकजुट करने का दांव भी चला था, लेकिन वह नाकाम रही। सियासी समर नजदीक देख सबसे पहले सपा ने मुसलमानों की ओर आरक्षण का दांव फेंका है।
वहीं, बड़ी तादाद में मुस्लिम चेहरों को चुनाव मैदान में उतार कर बसपा भी दांव चल रही है। पिछले कुछ समय से रणनीति के तहत बसपा ने भाजपा को हमले का मुख्य निशाना बनाया है। कांग्रेस की नजर भी अल्पसंख्यक वोटों पर है।
ओवैसी प्रदेश के कई दौरे कर चुके हैं। रमजान में रोजा इफ्तार कार्यक्रमों के जरिये वह अपनी सक्रियता और बढ़ाएंगे। जद यू अध्यक्ष नीतीश कुमार ने भी यूपी में अपना आधार बनाने के लिए भागदौड़ शुरू कर दी है। साफ लग रहा है कि मुस्लिम वोटों के लिए राजनीतिक दलों के बीच खूब मारामारी होगी। जाहिर है ये हालात वोटों के बिखराव की ओर ही इशारा करते हैं।
राजनीति शास्त्री भी कहते हैं कि यूपी में मुस्लिम वोटों के बंटने की संभावना के बावजूद मौजूदा हालात में भाजपा लाभ की स्थिति में नहीं दिख रही। भाजपा यहां तभी गेनर हो सकती है जब लोगों की भावनाओं को भड़काने में कामयाब हो जाए। सुब्रह्मण्यम स्वामी मंदिर निर्माण शुरू करने की बात कर रहे हैं, यदि ऐसा कुछ हुआ तो ध्रुवीकरण की संभावना बन सकती है।
पूर्वांचल की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक शिक्षण संस्था शिबली नेशनल कॉलेज, आजमगढ़ के प्रधानाचार्य और राजनीति शास्त्री डॉ. गयास असद खान कहते हैं कि यूपी में मुस्लिम वोट हमेशा से बंटता रहा है और इस बार भी बंटेगा। फिर भी भाजपा की राह आसान नहीं है।
भाजपा तभी वोटों का ध्रुवीकरण कर पाएगी जब दंगे हों, अयोध्या में मंदिर निर्माण की कोशिशें हों या अन्य वजहों से माहौल को फिरकापरस्त बना दिया जाए। आजमगढ़ में इसकी कुछ कोशिशें हुई हैं।
वे कहते हैं कि यूपी और असम के राजनीतिक हालात अलग हैं। वहां बदरुद्दीन अजमल का किंग मेकर बनने का ख्वाब देखना और हेमंत शर्मा विस्वास का नौ कांग्रेस विधायकों के साथ भाजपा में जाना बड़ी घटनाएं रहीं। इन्हीं से भाजपा का माहौल बना।
जहां तक यूपी का सवाल है, यहां मुस्लिम लीडरशिप ऐसी नहीं है कि मुस्लिम वोटों को एक रख सके। यहां ज्यादा से ज्यादा मुस्लिम वोट हासिल करने के लिए सपा-बसपा आमने-सामने रहेंगी।
2012 में तो सपा विकल्प दिख रही थी, इसलिए अधिकतर मुस्लिम वोट उसकी तरफ चले गए थे। इस बार हालात में कुछ तब्दीली हो सकती है। सपा को राज्यसभा की सात सीटों में किसी मुस्लिम को प्रत्याशी न बनाने का नुकसान हो सकता है।
चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ के उर्दू विभाग के अध्यक्ष डॉ. असलम जमशेदपुरी असम के चुनावी नतीजों को चौंकाने वाला मानते हैं, लेकिन कहते हैं कि इसका यूपी की सियासत पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
डॉ. असलम कहते हैं कि असम में मुस्लिम वोटों की तादाद काफी ज्यादा है। वहां बदरुद्दीन अजमल मुसलमानों की सबसे बड़ी जमात के अध्यक्ष हैं। पिछले कुछ सालों से उनके आधार में कमी आई है।
असम में कांग्रेस और यूडीएफ के बीच वोट बंटने से भाजपा को फायदा हुआ, लेकिन यूपी के विधानसभा चुनाव पर इसका असर नहीं पड़ेगा। यूपी में मुसलमानों के वोटों का बड़ा हिस्सा सपा और बसपा को जाएगा। आम आदमी पार्टी, एआईएमआईएम को कहीं-कहीं छिटपुट वोट मिल सकते हैं।
ओवैसी का करिश्मा दूर की कौड़ी लगता है। 2012 में पीस पार्टी से कुछ उम्मीदें जगी थीं, लेकिन टूट-फूट से उसकी साख खराब हो गई। डॉ. असलम कहते हैं कि यूपी में कोई करिश्माई मुस्लिम नेता नहीं है।
आजम खां, नसीमुद्दीन सिद्दीकी या सैयद अहमद बुखारी की मुसलमानों में ऐसी अपील नहीं है कि वे वोटों पर असर डाल सकें। उलेमा काउंसिल भी यहां लगभग बेअसर रही। विकल्प तो जनता खुद तैयार कर लेती है।
मौलाना मुलायम के नाम से पहचान रखने वाले सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव की पार्टी में भी मुस्लिम मुद्दों पर अब पहले की तरह जोर नहीं दिख रहा। मुस्लिम वोटों के लिए बसपा की कोशिशों में भी पहले वाला दम नहीं दिख रहा।
ऐसे में यूपी में मुस्लिम मतदाताओं के मुद्दे और उनकी पहचान को लेकर एक नया संकट पैदा होता दिख रहा है। इसकी पहली वजह तो यही है कि पिछले कुछ चुनावों में मुस्लिम वोटरों का रुझान स्पष्ट नहीं रहा।
जाहिर है डिवोटेड वोटर के तौर पर इसकी विश्वसनीयता आज सवालों के घेरे में है। शायद इसीलिए यह सवाल उठने लगा है कि क्या असम की तरह यूपी में भी मुस्लिम वोटों का स्पष्ट विभाजन एक सियासी मुहिम बन सकता है। असम का चुनाव परिणाम इस नए सियासी संदेश के साथ यूपी में चर्चा का विषय बना है।
देश में सर्वाधिक मुस्लिम आबादी वाले असम में भाजपा की कामयाबी एक नई कहानी है। उसकी जीत का गणित साफ है-कांग्रेस और यूडीएफ के बीच मुस्लिम वोटों का बंटवारा। इससे भाजपा की जीत की राह आसान हो गई।
असम में भाजपा के खिलाफ कांग्रेस व बदरुद्दीन अजमल की अगुवाई वाले एआईयूडीएफ के बीच समझौता की कोशिशें परवान नहीं चढ़ सकी थीं। नतीजतन, मुस्लिम वोट विभाजित हो गए।
भाजपा कुछ इसी तरह की रणनीति उत्तर प्रदेश में भी आजमा सकती है। लोकसभा चुनाव में भी इसका प्रयोग हो चुका है। उस समय भी मुस्लिम वोटों का बंटवारा हुआ था। इसका सीधा लाभ भाजपा को मिला। प्रदेश में भाजपा और उसके सहयोगी दल के 73 सांसद चुने गए।
वैसे यूपी में मुस्लिम वोटों पर मुख्य तौर पर सपा-बसपा और कांग्रेस का दावा रहता है, पर अब असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम, जनता दल यू समेत कई छोटी पार्टियों की नजर भी इस पर है।
पीस पार्टी ने तो पिछले विधानसभा चुनाव में इन वोटों को एकजुट करने का दांव भी चला था, लेकिन वह नाकाम रही। सियासी समर नजदीक देख सबसे पहले सपा ने मुसलमानों की ओर आरक्षण का दांव फेंका है।
वहीं, बड़ी तादाद में मुस्लिम चेहरों को चुनाव मैदान में उतार कर बसपा भी दांव चल रही है। पिछले कुछ समय से रणनीति के तहत बसपा ने भाजपा को हमले का मुख्य निशाना बनाया है। कांग्रेस की नजर भी अल्पसंख्यक वोटों पर है।
ओवैसी प्रदेश के कई दौरे कर चुके हैं। रमजान में रोजा इफ्तार कार्यक्रमों के जरिये वह अपनी सक्रियता और बढ़ाएंगे। जद यू अध्यक्ष नीतीश कुमार ने भी यूपी में अपना आधार बनाने के लिए भागदौड़ शुरू कर दी है। साफ लग रहा है कि मुस्लिम वोटों के लिए राजनीतिक दलों के बीच खूब मारामारी होगी। जाहिर है ये हालात वोटों के बिखराव की ओर ही इशारा करते हैं।
राजनीति शास्त्री भी कहते हैं कि यूपी में मुस्लिम वोटों के बंटने की संभावना के बावजूद मौजूदा हालात में भाजपा लाभ की स्थिति में नहीं दिख रही। भाजपा यहां तभी गेनर हो सकती है जब लोगों की भावनाओं को भड़काने में कामयाब हो जाए। सुब्रह्मण्यम स्वामी मंदिर निर्माण शुरू करने की बात कर रहे हैं, यदि ऐसा कुछ हुआ तो ध्रुवीकरण की संभावना बन सकती है।
पूर्वांचल की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक शिक्षण संस्था शिबली नेशनल कॉलेज, आजमगढ़ के प्रधानाचार्य और राजनीति शास्त्री डॉ. गयास असद खान कहते हैं कि यूपी में मुस्लिम वोट हमेशा से बंटता रहा है और इस बार भी बंटेगा। फिर भी भाजपा की राह आसान नहीं है।
भाजपा तभी वोटों का ध्रुवीकरण कर पाएगी जब दंगे हों, अयोध्या में मंदिर निर्माण की कोशिशें हों या अन्य वजहों से माहौल को फिरकापरस्त बना दिया जाए। आजमगढ़ में इसकी कुछ कोशिशें हुई हैं।
वे कहते हैं कि यूपी और असम के राजनीतिक हालात अलग हैं। वहां बदरुद्दीन अजमल का किंग मेकर बनने का ख्वाब देखना और हेमंत शर्मा विस्वास का नौ कांग्रेस विधायकों के साथ भाजपा में जाना बड़ी घटनाएं रहीं। इन्हीं से भाजपा का माहौल बना।
जहां तक यूपी का सवाल है, यहां मुस्लिम लीडरशिप ऐसी नहीं है कि मुस्लिम वोटों को एक रख सके। यहां ज्यादा से ज्यादा मुस्लिम वोट हासिल करने के लिए सपा-बसपा आमने-सामने रहेंगी।
2012 में तो सपा विकल्प दिख रही थी, इसलिए अधिकतर मुस्लिम वोट उसकी तरफ चले गए थे। इस बार हालात में कुछ तब्दीली हो सकती है। सपा को राज्यसभा की सात सीटों में किसी मुस्लिम को प्रत्याशी न बनाने का नुकसान हो सकता है।
चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय मेरठ के उर्दू विभाग के अध्यक्ष डॉ. असलम जमशेदपुरी असम के चुनावी नतीजों को चौंकाने वाला मानते हैं, लेकिन कहते हैं कि इसका यूपी की सियासत पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
डॉ. असलम कहते हैं कि असम में मुस्लिम वोटों की तादाद काफी ज्यादा है। वहां बदरुद्दीन अजमल मुसलमानों की सबसे बड़ी जमात के अध्यक्ष हैं। पिछले कुछ सालों से उनके आधार में कमी आई है।
असम में कांग्रेस और यूडीएफ के बीच वोट बंटने से भाजपा को फायदा हुआ, लेकिन यूपी के विधानसभा चुनाव पर इसका असर नहीं पड़ेगा। यूपी में मुसलमानों के वोटों का बड़ा हिस्सा सपा और बसपा को जाएगा। आम आदमी पार्टी, एआईएमआईएम को कहीं-कहीं छिटपुट वोट मिल सकते हैं।
ओवैसी का करिश्मा दूर की कौड़ी लगता है। 2012 में पीस पार्टी से कुछ उम्मीदें जगी थीं, लेकिन टूट-फूट से उसकी साख खराब हो गई। डॉ. असलम कहते हैं कि यूपी में कोई करिश्माई मुस्लिम नेता नहीं है।
आजम खां, नसीमुद्दीन सिद्दीकी या सैयद अहमद बुखारी की मुसलमानों में ऐसी अपील नहीं है कि वे वोटों पर असर डाल सकें। उलेमा काउंसिल भी यहां लगभग बेअसर रही। विकल्प तो जनता खुद तैयार कर लेती है।
Next Story