पूर्वांचल में बिछने लगी सियासी बिसात
लखनऊ. यूपी में 2017 के विधानसभा चुनाव को करीब आता देख पूर्वांचल में नेताओं की चहलकदमी अचानक बढ़ गई है। मजदूर दिवस पर प्रधानमंत्री बलिया पधारे तो अगले ही दिन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने भी पूर्वांचल में विकास योजनाओं की झड़ी लगा दी। खूब तालियां बजीं पर विस्थापित किसानों को राहत मिलती नजर नहीं आ रही। पूर्वांचल के रास्ते प्रदेश की सत्ता देख रहीं पार्टियों को यहां के असल मुद्दे दिखाई नहीं दे रहे। संगठन दुरुस्त करने में जुटी कांग्रेस के रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने सबसे पहले पूर्वांचल में टीम भेजकर सर्वे शुरू किया। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 12 मई को यूपी में सियासी जंग का आगाज करने के लिए पूर्वी यूपी के वाराणसी को ही चुना।
बेरोजगारों की फौज
यूपी में सबसे ज्यादा जनसंख्या घनत्व वाले पूर्वांचल ने आजादी के बाद भले प्रदेश को सबसे ज्यादा 11 मुख्यमंत्री दिए हों पर बेरोजगारों की संख्या में भी यह इलाका सबसे आगे है। प्रति व्यक्ति बिजली उपभोग और कारखाना मजदूरों की न्यूनतम संख्या (देखें चार्ट) पूर्वांचल को दूसरे क्षेत्रों से कमजोर ही साबित करती है। अपनी खास सिल्क साडिय़ों के लिए मशहूर मऊ जिले को कभी ‘पूर्वांचल का मैनचेस्टर’ कहकर पुकारा जाता था। मऊ से आजमगढ़ की ओर चलने पर बदहाली की दास्तान भी दिखाई देती है। परदहा इलाके में 85 एकड़ में फैली प्रदेश की सबसे बड़ी कताई मिल बंद पड़ी है। यहां के बने धागों की देश-विदेश में मांग थी। 5,000 परिवारों का पेट पालने वाली यह मिल जब 10 साल पहले बंद हुई तो हजारों बेरोजगार हो गए। यहीं से दो किलोमीटर पर बंद पड़ी स्वदेशी कॉटन मिल का परिसर भी अब खंडहर हो चुका है। बलिया के रसड़ा क्षेत्र के माधवपुर गांव में मौजूद चीनी मिल को सरकार ने जनवरी, 2013 में बंद कर दिया। 500 से अधिक कर्मचारी एक झटके में बेरोजगार हो गए। जिला उद्योग कार्यालयों से जुटाए गए आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो भयावह हालात नजर आते हैं। प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में पिछले 10 साल के दौरान औद्योगिक क्षेत्रों में चल रही 60 छोटी-बड़ी इकाइयां बंद हो गईं। इसी दौरान गोरखपुर में 80, बलिया में 25, भदोही में 75 और मिर्जापुर में 65, चंदौली में 60 छोटे-बड़े उद्योगों ने दम तोड़ दिया। वाराणसी के एक उद्यमी आर.के. गुप्ता बताते हैं, ‘सभी सरकारें तात्कालिक सियासी फायदे के लिए पूर्वांचल में नए उद्योगों की घोषणा कर रही हैं जबकि इनसे काफी कम खर्चे में बंद पड़े उद्योग दोबारा जी सकते हैं। बाजार की व्यवस्था न होने से नए उद्योगों का भविष्य भी सुरक्षित नहीं है।’
दरकने लगा है सपा का किला
चार साल पहले 6 मार्च को 14वीं विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तो पूर्वांचल ने समाजवादी पार्टी (सपा) की झोली भर दी थी। उसने जितनी सीटें जीतकर बहुमत हासिल किया, उसकी करीब आधी सीटें पूर्वी जिलों से थीं। इस साल 6 मार्च को विधानसभा चुनाव नतीजों की चौथी सालगिरह थी और इसी दिन स्थानीय प्राधिकारी क्षेत्र से विधान परिषद सदस्यों (एमएलसी) के चुनाव का नतीजा घोषित हो रहा था। 2012 के विधानसभा चुनाव में पूर्वांचल की 60 फीसदी से ज्यादा सीटें जीतने वाली सपा के लिए इस क्षेत्र के नतीजों ने खुश होने का मौका नहीं दिया। सरकारी ताकत झोंकने के बाद भी सपा गोरखपुर, गाजीपुर, वाराणसी, रायबरेली और जौनपुर समेत डेढ़ दर्जन से ज्यादा जिलों को समाहित करने वाली, विधान परिषद की पांच सीटों पर बुरी तरह से हार गई। उसके लिए कान खड़े करने वाली बात यह है कि पूर्वांचल के जिन जिलों में उसका दबदबा था, वहां उसकी बुरी तरह हार हुई। छह विधानसभा सीटों वाला गाजीपुर जिला सपा का दुर्ग समझा जाता है। कैलाश यादव के निधन से पहले इस जिले से सपा सरकार में कुल चार मंत्री थे। पांचवें विधायक सुभाष पासी सपा के अनुसूचित जाति जनजाति प्रकोष्ठ के अध्यक्ष हैं। इसके बावजूद एमएलसी चुनाव में सपा को मुंह की खानी पड़ी।
गाजीपुर के एडवोकेट नागेंद्र नाथ राय बताते हैं, ‘भले ही इन चुनावों में जनता की भागीदारी नहीं थी, बावजूद इसके ये नतीजे सपा को मतदाताओं के बदलते रुख का संकेत दे रहे हैं।” पूर्वांचल से मंत्रियों की लंबी-चौड़ी फौज का जनता के मुद्दों से सरोकार न रखना सपा को भारी पड़ रहा है। पूर्वी जिलों में वह भयंकर गुटबाजी का शिकार तो है ही, कई जिलों में संगठन को प्रदेश के कैबिनेट मंत्रियों ने हाइजैक कर लिया है। गोंडा, बस्ती, गाजीपुर, बलिया, गोरखपुर, अंबेडकरनगर जैसे कई जिलों में सपा का संगठन अंदरूनी कलह के चलते चरमरा रहा है। पिछले महीने वाराणसी में सपा कार्यकर्ता नागा यादव पर दर्ज मुकदमे को लेकर जिला अध्यक्ष सतीश फौजी और राज्यमंत्री सुरेंद्र पटेल के बीच जिस तरह खींचतान हुई, उसने पार्टी में बढ़ रही दरार को और चौड़ा कर दिया।
बेरोजगारों की फौज
यूपी में सबसे ज्यादा जनसंख्या घनत्व वाले पूर्वांचल ने आजादी के बाद भले प्रदेश को सबसे ज्यादा 11 मुख्यमंत्री दिए हों पर बेरोजगारों की संख्या में भी यह इलाका सबसे आगे है। प्रति व्यक्ति बिजली उपभोग और कारखाना मजदूरों की न्यूनतम संख्या (देखें चार्ट) पूर्वांचल को दूसरे क्षेत्रों से कमजोर ही साबित करती है। अपनी खास सिल्क साडिय़ों के लिए मशहूर मऊ जिले को कभी ‘पूर्वांचल का मैनचेस्टर’ कहकर पुकारा जाता था। मऊ से आजमगढ़ की ओर चलने पर बदहाली की दास्तान भी दिखाई देती है। परदहा इलाके में 85 एकड़ में फैली प्रदेश की सबसे बड़ी कताई मिल बंद पड़ी है। यहां के बने धागों की देश-विदेश में मांग थी। 5,000 परिवारों का पेट पालने वाली यह मिल जब 10 साल पहले बंद हुई तो हजारों बेरोजगार हो गए। यहीं से दो किलोमीटर पर बंद पड़ी स्वदेशी कॉटन मिल का परिसर भी अब खंडहर हो चुका है। बलिया के रसड़ा क्षेत्र के माधवपुर गांव में मौजूद चीनी मिल को सरकार ने जनवरी, 2013 में बंद कर दिया। 500 से अधिक कर्मचारी एक झटके में बेरोजगार हो गए। जिला उद्योग कार्यालयों से जुटाए गए आंकड़ों पर नजर दौड़ाएं तो भयावह हालात नजर आते हैं। प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में पिछले 10 साल के दौरान औद्योगिक क्षेत्रों में चल रही 60 छोटी-बड़ी इकाइयां बंद हो गईं। इसी दौरान गोरखपुर में 80, बलिया में 25, भदोही में 75 और मिर्जापुर में 65, चंदौली में 60 छोटे-बड़े उद्योगों ने दम तोड़ दिया। वाराणसी के एक उद्यमी आर.के. गुप्ता बताते हैं, ‘सभी सरकारें तात्कालिक सियासी फायदे के लिए पूर्वांचल में नए उद्योगों की घोषणा कर रही हैं जबकि इनसे काफी कम खर्चे में बंद पड़े उद्योग दोबारा जी सकते हैं। बाजार की व्यवस्था न होने से नए उद्योगों का भविष्य भी सुरक्षित नहीं है।’
दरकने लगा है सपा का किला
चार साल पहले 6 मार्च को 14वीं विधानसभा चुनाव के नतीजे आए तो पूर्वांचल ने समाजवादी पार्टी (सपा) की झोली भर दी थी। उसने जितनी सीटें जीतकर बहुमत हासिल किया, उसकी करीब आधी सीटें पूर्वी जिलों से थीं। इस साल 6 मार्च को विधानसभा चुनाव नतीजों की चौथी सालगिरह थी और इसी दिन स्थानीय प्राधिकारी क्षेत्र से विधान परिषद सदस्यों (एमएलसी) के चुनाव का नतीजा घोषित हो रहा था। 2012 के विधानसभा चुनाव में पूर्वांचल की 60 फीसदी से ज्यादा सीटें जीतने वाली सपा के लिए इस क्षेत्र के नतीजों ने खुश होने का मौका नहीं दिया। सरकारी ताकत झोंकने के बाद भी सपा गोरखपुर, गाजीपुर, वाराणसी, रायबरेली और जौनपुर समेत डेढ़ दर्जन से ज्यादा जिलों को समाहित करने वाली, विधान परिषद की पांच सीटों पर बुरी तरह से हार गई। उसके लिए कान खड़े करने वाली बात यह है कि पूर्वांचल के जिन जिलों में उसका दबदबा था, वहां उसकी बुरी तरह हार हुई। छह विधानसभा सीटों वाला गाजीपुर जिला सपा का दुर्ग समझा जाता है। कैलाश यादव के निधन से पहले इस जिले से सपा सरकार में कुल चार मंत्री थे। पांचवें विधायक सुभाष पासी सपा के अनुसूचित जाति जनजाति प्रकोष्ठ के अध्यक्ष हैं। इसके बावजूद एमएलसी चुनाव में सपा को मुंह की खानी पड़ी।
गाजीपुर के एडवोकेट नागेंद्र नाथ राय बताते हैं, ‘भले ही इन चुनावों में जनता की भागीदारी नहीं थी, बावजूद इसके ये नतीजे सपा को मतदाताओं के बदलते रुख का संकेत दे रहे हैं।” पूर्वांचल से मंत्रियों की लंबी-चौड़ी फौज का जनता के मुद्दों से सरोकार न रखना सपा को भारी पड़ रहा है। पूर्वी जिलों में वह भयंकर गुटबाजी का शिकार तो है ही, कई जिलों में संगठन को प्रदेश के कैबिनेट मंत्रियों ने हाइजैक कर लिया है। गोंडा, बस्ती, गाजीपुर, बलिया, गोरखपुर, अंबेडकरनगर जैसे कई जिलों में सपा का संगठन अंदरूनी कलह के चलते चरमरा रहा है। पिछले महीने वाराणसी में सपा कार्यकर्ता नागा यादव पर दर्ज मुकदमे को लेकर जिला अध्यक्ष सतीश फौजी और राज्यमंत्री सुरेंद्र पटेल के बीच जिस तरह खींचतान हुई, उसने पार्टी में बढ़ रही दरार को और चौड़ा कर दिया।
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