मुखौटो का इतिहास : बी एन सिंह
BY Suryakant Pathak27 July 2017 1:10 PM GMT

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Suryakant Pathak27 July 2017 1:10 PM GMT
मुखौटा भी गजब का चीज होता है. लगातार उसका प्रयोग मनुस्य को एक अलग ही पहचान बना देता ,जो वो नहीं होता है वही बन जाता है लोग उस मुखौटे को ही असली समझने लगते है. कालनेमि भी मुखौटा लगाया था , मुर्ख , अज्ञानी उसे पूजने का भी उपक्रम करने लगते है.और कभी कभी वह समाज में पहचान भी बना लेता है.आपने रामलीला देखि होगी, उसमे रावण, राम इत्यादि का मुखौटा लगाकर लोग पथ करते है.और ये जरूरी नहीं की मुखौटा लगाने वाले का जीवन में वही आचरण होता हो जो राम और रावण का रहा हो , कभी दुर्जन भी राम का मुखौटा लगाकर राम बन जाता है , कभी सज्जन भी रावण का मुखौटा लगाकर रावण बन जाता है इसे ही नट की भूमिका कहते है , नाटककार पीछे रहता है , नट सामने , नट की भूमिका ही सामने दिखाई देती है जैसे आर एस एस नाटककार और उसके नट बी ज पी, बजरंग दाल , viswa hindu parishad ,स्वदेशी मंच , किसान मोर्चा, इत्यादि सामने है और आर एस एस पीछे अदृश्य बनकर डोरे अपने हाथ में रखता है,जैसे वो चाहता है वैसे ही नटों की भूमिका तय करता है, जो इतिहास जनता है उसको भ्रम नहीं होता है लेकिन १९९० के बाद की पीढ़ी को इतिहास से कुछ लेना देना नहीं , उसे सिर्फ नौकरी और छोकरी के अलावा सोचने की क्षमता ही नहीं विकसित की गयी है उसका aim भौतिक सुख साधन , डॉक्टर , इंजीनियर , मैनेजर इत्यादि बनना ही है और नटों को ये लोग उनके मुखौटे के आधार पर ही जानते है,इन मुखौटों के बारे में एम. एस गोलवरकर जी क्या कहा है:
आर एस एस एक स्वयं सेवक से क्या आशा करता है ?
'' १६ मार्च १९५४ वर्धा में संघ के शीर्ष नेतृत्व को सम्भोधित करते हुए गोलवरकर जी कहा की '' यदि हमने कहा की हम संगठन के अंग हैं तो हम उसका अनुशासन मानते है ,तो फिर सेलेक्टिवनेस ( पसंद ) का जीवन में कोई स्थान न हो , जो कहा वही करना , कबड्डी कहा तो कबड्डी, बैठक कहा तो बैठक , जैसे अपने कुछ मित्रों से कहा की राजनीती में जाकर काम करो ,इसका ये मतलब नहीं की उनको इसके लिए बड़ी रूचि है वे राजनितिक कार्य के लिए इस प्रकार नहीं तड़पते जैसे जल बिनु मछली , अगर उनको राजनीति से वापस आने को कहा जाय तो भी उन्हें उसमे कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए , '' अपने विवेक की कोई अवस्यकता नहीं '' जो काम सौंपा गया उसकी योग्यता प्राप्त करेंगे , ऐसे ही निश्चय करके वे लोग चलते है''
इसका मतलब क्या हुआ विवेक को पहले संघ के पास गिरवी रख दो, तर्क और प्रतिरोध की वह कोई जगह नहीं
दूसरा वक्तृत्व भी गोलवरकर जी का कृपया देखें .
'' हमें यह भी मालूम है की अपने कुछ स्वयं सेवक राजनीति में काम करते है , वह उनको उस कार्य के जरूरत के अनुरूप जलसे , जुलुस इत्यादि करने पडते है नारे भी लगाने होते हैं , इन सब बातों का हमारे काम में कोई मतलब या स्थान नहीं है परन्तु नाटक के पात्र के सामान जो भूमिका ली उसका योग्यता से निर्वाह तो करना ही चाहिए , इस नट की भूमिका से आगे बढ़कर काम करते करते कभी कभी लोगों के मन में उसका अभिनिवेश उत्पन्न हो जाता है यहाँ तक फिर से संघ के कार्य में आने के लिए अपात्र सिद्ध हो जाते है , यह तो ठीक नहीं है .अतः हमें अपने संयमपूर्वक कार्य की दृढ़ता का भली भांति ध्यान रखना होगा जरूरत हुआ तो आकाश तक भी उछाल कूद कर सकते है परन्तु दक्ष दिया तो दक्ष में ही रहना होगा ''
यहाँ हम देखते है की गोलवरकर जी संघ के राजनैतिक जेबी संघटनो को एक नट या अभिनेता की संज्ञा देते हैं जो आर एस एस की थाप पर नृत्य करे यह गोलवरकर जी मार्च १९६० की डिज़ाइन है जो उन्होंने जनसंघ के गठन के ९ साल बाद दिए थे आपको यह जानने की उत्कंठा जरूर होगी की मोदी जी भारत की लोकतान्त्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष राजनीति कर रहे है ? या संघ के नट की भूमिका मात्र में हैं जो भारत को एक धार्मिक हिन्दू राज्य में बदलने के लिए कृतसंकल्प है सत्यता यही है की संघ अपने स्वयं सेवको को रीढ़ विहीन मानता है, गोलवरकर जी का कथन तो यही सावित करता है आप क्या समझते है अपनी राय देने की कृपा करे . विवेक का उपयोग जरूर करे ,अगर आपका भी विवेक संघ के पास गिरवी हो तो आप की राय की कोई जरूरत नहीं क्यूंकि संघ का AIM , एजेंडा कभी विकाश विकाश नहीं रहा वो तो हिन्दू रास्त्र की सिर्फ बात करता है उसका एजेंडा अयोध्या में राम मंदिर बनाना , ३७० हटाना, और कॉमन सिविल कोड लागु करना ही उसका मुख्य एजेंडा है, संघ को भारतीय संभिदान पे कभी भी भरोषा नहीं रहा ,तिरंगा अपने किसी कार्यक्रम में नहीं फहराया और तो और hypocrisy देखिये की ये मदरसों में तिरंगा फहराने की बात करते है लेकिन संघ के किसी कार्यक्रम में तिरंगा कभी नहीं फहराते ? पता कर लीजिये संघ के किसी भी कार्यक्रम में राष्ट्रगान या तिरंगा नहीं फहराया जाता है.fascism और हिप्पोक्रेसी इसे ही कहता है
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