Home > राज्य > उत्तर प्रदेश > लिप्सटिक वाले सपने: हर रोज़ी का द्वंद्व, सब के होंठ गुलाबी हैं, सब बुर्क़े में क़ैद
लिप्सटिक वाले सपने: हर रोज़ी का द्वंद्व, सब के होंठ गुलाबी हैं, सब बुर्क़े में क़ैद
BY Suryakant Pathak24 July 2017 12:51 PM GMT

X
Suryakant Pathak24 July 2017 12:51 PM GMT
एक ही शब्द कहना हो तो कहा जाना चाहिए कि फ़िल्म अच्छी है। जितने सेक्स के दृश्य ट्रेलर में हैं, बस उतने ही हैं। जबकि मैं ये सोचकर गया था कि ये फ़िल्म भी वैसी ही फ़िल्म होगी जिसमें सेक्स दिखाकर नारी स्वतंत्रता के मायने समझाए जाते हैं। और अगर ऐसा होता तो ये फ़िल्म निहायत ही घटिया कही जाती। वैसा हुआ नहीं।
फ़िल्म की डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और एडिटर बिहार से हैं। इसका ज़िक्र इसलिए ज़रूरी है कि बिहार वालों को आमतौर पर पिछड़ा माना जाता है, और रही सही कसर भोजपुरी गानों से पूरी हो जाती है। इस विषय को चुनना, और उसे इतनी ख़ूबसूरती से, बिना लाग-लपेट के सहजता के साथ दिखाना कि फ़िल्म जैसे कि बह रही हो, बिहार के दिमाग़ का ये पहलू भी दिखाता है।
कहानी है चार महिलाओं की जो एक ही जगह रहती हैं, थीम है सपने। सपनों में सेक्स की चाहत भी हो सकती है, अपने लिए पैसे कमाना भी, बुर्क़े के अंदर से माइली सायरस बनना भी, सिगरेट-बीयर पीना भी। इन चारों महिलाओं के साथ छः मर्द हैं। उनकी अपनी उपयोगिता है। अच्छी बात ये है कि डायरेक्टर फ़र्ज़ी नारीवाद के ओवर-यूज़्ड नारे- 'सारे मर्द कुत्ते होते हैं'- से प्रभावित नहीं दिखती।
मर्दों को जहाँ अच्छा होना था, वहाँ वो अच्छा भी है; जहाँ एक बाप को अपनी परम्पराओं का बेनेफिट ऑफ़ डाउट मिलना था, वहाँ वो भी मिला है; जहाँ वो अपने ईगो और बंद दिमाग़ के कारण स्त्री को काम करता नहीं देख सकता, हलाँकि वो बेरोज़गार है, उसका नक़ाब भी उतारा गया है; जहाँ वो सिगरेट और बीयर पीकर लड़कियों को लेड जेप्लिन की बात करके मोहता है, और मतलब साधकर निकल जाता है, वो भी दिखा है; जहाँ वो गाली देकर अपनी प्रेमिका को अपने मर्द होने के कारण दुत्कारने के बाद वापस उसमें लटकता है, तो उसके टूटते वजूद का चित्रण भी है; और वो मर्द भी है जो सेक्स चैट करते वक़्त तो रोज़ी को ब्रा का हुक खोलने कहता है, लेकिन रोज़ी की उम्र देखकर ये कहकर भाग जाता है कि वो रोज़ी हो भी नहीं सकती।
नारीवाद समानता की बात है। सपने लड़कियों के भी होते हैं। उन्हें साधने के लिए लड़कियाँ हर जगह 'चोरी' करती पाई जाती है। उन्हें समाज उस चोरी के लिए मजबूर करता है। समाज का दायरा इतना विशाल होकर भी, इतना कसा हुआ और घुटन वाला है कि बेरोजगार मर्द, जो दूसरी औरत से मिलता है, वो अपनी पत्नी के काम करने को सहन नहीं कर पाता और मुँह दबाकर अपने लिंग से उसपर हमला बोलते हुए कहता है कि अब बोल के दिखा। रोज़ी कुछ नहीं बोल पाती क्योंकि उसके ऊपर चढ़ा हुआ समाज उसके दोनों हाथों को पकड़ लेता है, मुँह को बंद कर देता है और उसके बीमार जननांग पर अपनी मर्दानगी के स्तंभन का प्रहार करता है।
ये दायरा इतना बदबूदार है कि लड़की कॉलेज के बाथरूम तक का रास्ता बुर्क़े में तय करती है और वहाँ उसे गुच्ची, गबाना आदि की दरकार पड़ती है एक सर्कल में घुसने के लिए। एक्सेप्टेंस के लिए बुर्क़े सिलने वाली नायिका लिप्सटिक से लेकर बूट तक बड़े मॉल से बुर्क़े के अंदर से चुराती है, और अपने ही घर में अपने बाप से, माँ से नाचने पर भी डाँट खाती है। रोज़ी चरित्रहीन नहीं है, वो छली जाती है। वो चोर है, जैसे कि कोई भी हो सकता है, लेकिन उसको सज़ा किसी और बात पर, किसी और वजह से मिलती है।
ये दायरा इतना कुंठित है कि फोन पर रोज़ी की आवाज़ सुनकर मर्द ये जरूर कहता है कि उसकी आवाज़ में ये है, वो है, लेकिन जब उसकी उम्र का पता चलता है तो वो उसे तबाह करके दम लेता है। 'तुमने क्या पहना है' जैसे वाक्य जो हर सेक्स चैट की शुरुआती पाँच लाइनों में ही आ जाते हैं, उसका उपयोग अलंकृता ने बेजोड़ तरीक़े से किया है। आवाज़ से एक छवि सोचने वाले मर्द की कल्पना जब बिखरती है तो वो उन रातों के बारे में नहीं सोचता जब वो अपने जीन्स का ज़िप खोलने की ख़्वाहिश रोज़ी से करता है। वो अकेला ही आहत होकर, स्वार्थ से भरा हुआ, उसकी ज़िंदगी तबाह करता है जिसने उसकी कई रातें रंगीन की थी।
ये वही दायरा है जिसमें प्रेमी युगल सपने तो साथ देखता है लेकिन उनमें से एक बीच में हिम्मत हार जाता है और लड़की को सिर्फ इसलिए जलील करता है, गाली देता है क्योंकि वो हारी हुई उसके पास उसे मनाने आती है। उसे घस्ती, रंडी बोलना लड़की के चरित्र पर कम और बोलने वाले के चरित्र पर ज्यादा सवाल उठाती है। दो मर्दों के बीच फँसी ये रोज़ी उस सड़क पर खड़ी हो जाती है जहाँ बाकी की तीन रोज़ियाँ हैं। इनके सपनों को छल से गिरा दिया जाता है। इन्हें जो गुलदस्ता भेजता है वो सुगठित शरीर वाला किराएदार नहीं, बल्कि फूल बेचने वाला दुकानदार है।
कैमरा का काम अच्छा है। चाहे वो भोपाल की गलियों को दिखाना हो, शाम में मस्जिद के मीनारों का सिलुएट या फिर अंधेरे में घुसते भोपाल का बड़ा कैनवस, कैमरा फ़िल्म को ख़ूबसूरत बनाता है, और एक आयाम जोड़ता है कहानी कहने की शैली में। वैसे ही साउंड है। चाहे वो सिलाई मशीन की किटकिटाती रूकती-चलती आवाज़ हो जो शायद किसी रोज़ी की ज़िंदगी की झिक-झिक से मेल खाती है, या फिर भोपाल शहर के कैरेक्टर को उभारती लाउडस्पीकर से निकलती अजान। संगीत चाहे पारम्परिक शादी वाला हो, या फिर पार्टी का ढिनचक गाना, दोनों ही जगह उम्दा है। अगर तुलना करनी हो तो पारम्परिक संगीत मुझे बेहतर लगा क्योंकि वो सन्नाटे में भी इस्तेमाल हुआ है और भोपाल को बेहतर रूप से सामने लाता है।
संवादों की बात करें तो कई जगह आपको वो बहुत ही सहज तरीक़े से वो बात कह जाएँगे कि आपको पता भी नहीं लगेगा कि क्या पॉलिटिक्स है समाज की। लड़का अपनी होने वाली पत्नी को अपने घर लाता है और कहता है कि यहीं इतना इंतज़ाम कर दूँगा कि घर से बाहर पैर रखने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी। उस समय डायरेक्टर ने नायिका के चेहरे को जितनी संजीदगी से दिखाया है कि वो ना कहते हुए भी ये कहती है कि ऐसी सोच पर उसे उबकाई आ रही है। इसी तरह 'तुम हो कौन' कहकर लेड जेप्लिन की बात करता लड़का उस लड़की को छोड़ने में एक पल नहीं लगाता जो मुसीबत में आई हो। और इसी क्षण में डायरेक्टर ये दिखाना नहीं भूलती कि यहाँ मर्द तो छोड़ ही गया, उसकी तथाकथित सेहिलियों के पास भी सहानुभूति नहीं है। यहाँ सिर्फ एक दृश्य से किसी लड़की को गिराने वाला कोई लड़का भी हो सकता है, और कोई लड़की भी, ये दिखाया गया है।
एक ख़ास बात ये है कि सूत्रधार का प्रयोग बहुत ही बेहतरीन तरीक़े से हुआ है। रत्ना पाठक की आवाज़ में 'लिप्सटिक वाले सपने' नामक अश्लील किताब की कहानी से शुरू होती फ़िल्म, वहीं ख़त्म होती है। उस रोज़ी का भी हाल वही है जो बाहर की तमाम रोज़ियों का है। सब ठगे गए हैं। उस किताब के पात्र के नाम से ये सारी कहानियाँ चलती हैं जो कि यूँ तो अलग हैं, लेकिन फिर भी लगती एक जैसी हैं। लगता है कि पात्रों के कपड़े बदले हैं, जीवन बिल्कुल वही है।
फ़िल्म की एडिटिंग में आप रंग, आवाज़ और दृश्यों की सिलाई ऐसे देखते हैं जैसे एक बेहतरीन तरीक़े से सिली हुई पोशाक हो। कई फ़िल्में सिर्फ घटिया एडिटिंग की वजह से बेहतर कहानी के बावजूद घटिया दिखती हैं। चार कहानियों को सीमलेसली सिल देना, एडिटर के बारे में बहुत कुछ कहता है। आपको कहीं नहीं महसूस होगा कि कहानी का ये हिस्सा तो रह गया, ये हिस्सा ज्यादा है, ये यहाँ नहीं, वहाँ होता। सबकुछ चार जगह पर होने के बावजूद एक रोज़ी की कहानी की तरह घूमता है, और वहीं पहुँचता है, जहाँ हर रोज़ी पहुँचती है।
रोज़ी हर वो औरत या लड़की है जो सपने देखती है, और जिसे पता है कि सपना देखना भी उसके हिस्से में नहीं है। उसके हिस्से के सपने भी कोई मर्द ही देखेगा। सपना सिर्फ किसी के साथ सोना, बच्चे जनना, सिगरेट और शराब ही नहीं है। सपना प्रेम करना है; सपना अपनी आजादी, अपनी क़ाबिलियत के हिसाब से तलाशना है; सपना उड़ने की आशा रखना है; सपना अंदर के ग़ुबार को बाहर निकालना है; और सपना सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करते हुए अपनी स्वछंदता खोजना है।
ये फ़िल्म बिना बात के हर प्रतीक को तोड़ने की बात नहीं करती। ये बुर्क़ा फेंकने की बात नहीं करती। ये व्यभिचार की बात नहीं करती। ये 'हर परम्परा बंधन है' का नारा बुलंद नहीं करती। ये नारीवाद के कुछ ख़ास बिंदुओं पर बात करती है जिसमें से एक है आर्थिक स्वतंत्रता, यानि फाइनेन्सियल फ़्रीडम। नारी समानता की जड़ में अर्थ का अभाव है। अगर उसके पास पैसे हो जाएँ तो वो खुद ही बंधनों को तोड़ने लगेगी, बातों का जवाब तर्क से दे पाएगी।
अभी तो उसे दुत्कार कर दुकान पर बुर्क़ा सिलने बैठा दिया जाता है, कॉलेज छुड़ाकर। अभी तो वो ये भी नहीं जानती कि जो जीने-मरने की क़समें खा रहा है वो उसके साथ भी है या नहीं। अभी तो वो सही और गलत का चुनाव करने में सक्षम ही नहीं क्योंकि आधुनिकता का छलावा ओढ़े मर्द उसे चौराहे पर छोड़कर 'तुम कौन हो?' पूछते हुए निकल जाता है। अभी उसे अपने बेटे-भतीजे किसी बाहरी आदमी के कहने पर उसे उसके ही घर से निकाल फेंकते हैं।
हर अदाकार और अदाकारा ने अपना हिस्सा बख़ूबी निभाया है। ये कहानी आपको अपने आसपास की लगेगी अगर आप सोच खुली रखें। अपने पूर्वाग्रहों को त्याग कर देखिए। अपना नारीवाद बिना घुसाए, इसे देखिए। आपको लगेगा कि लड़कियों को भी जीने का हक़ है, और उनके सपने उन्हें ही देखने दिया जाय, उसके बैठने के लिए कुर्सी खींचना ज़रूरी नहीं है। प्रेम में करो, विवशता में नहीं। प्रेम में ही वो तुमसे अपनी मँगनी की रात कमरे में सेक्स करती है, वो चरित्रहीन नहीं हो रही, वो प्रेम कर रही है।
मुझे पता है कि इस फ़िल्म पर नकारात्मक नज़रिया रखने वालों के पास सेक्स छोड़कर और कोई दलील नहीं होगी कि यहाँ सेक्स, सिगरेट और शराब को प्रमोट किया जा रहा है। जबकि ये सब लोग जानते हैं कि बिना सेक्स के ये पैदा नहीं हुए हैं। सेक्स हम सबकी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा है। डायरेक्टर ने कहीं भी सेक्स को उन्मुक्तता या लिबरेशन का मार्ग नहीं बताया है। सेक्स वहीं दिखा है जहाँ ज़रूरत है दिखाने की।
ये कहानी एक सहज तरीक़े से कही गई है। इसमें ना तो ओवर द टॉप कुछ है, ना ही कोई दर्शन की बात है कि आप कह दें कितना डीप है यार! ये फ़िल्म उन मुद्दों को छूती है जिस पर बात होनी चाहिए। ये किसी लड़की के भोपाल से बाहर निकल कर एक बेहतर ज़िंदगी की ख्वाइश की बात करती है। ये कहानी किसी विधवा के सेक्सुअल आकांक्षाओं की बात करती है कि वो इसी परिवेश में प्रेम तलाश रही होती है। ये कहानी किसी कॉलेज जाती लड़की के द्वंद्व को दर्शाती है कि उसे माँ-बाप की तहज़ीबदार बिटिया भी होना है, और माइली सायरस का गीत गुनगुनाती टीनएजर भी। ये कहानी उस औरत की जद्दोजहद भी है जो बेरोज़गार लेकिन ऐंठ से भरे पति के नीचे होती है भले ही वो चालीस हज़ार महीना कमाकर घर चलाने के क़ाबिल हो।
ये कहानी सारी लड़कियों की कहानी है जिसका नाम है रोज़ी। सब के होंठ गुलाबी हैं, सब बुर्क़े में क़ैद है। सबको बाहर पंख फैलाने है। सबका अपना आकाश है। सबके पंखों का रंग अलग है।
#LUMB #LipstickUnderMyBurkha
अजीत भारती
Next Story