राज्यसभा से इस्तीफा, क्या है मायावती का असली दांव
BY Suryakant Pathak18 July 2017 12:55 PM GMT

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Suryakant Pathak18 July 2017 12:55 PM GMT
मंगलवार को जिस समय मानसून सत्र के दौरान राज्यसभा में चर्चा शुरू हुई उस समय शायद ही किसी को इस बात को अंदाजा रहा होगा कि राजनीति की एक नई पटकथा इस सदन में लिखी जाएगी। सहारनपुर सहित देश के कई हिस्सों में दलितों के उत्पीड़न के मुद्दे को उठाते हुए बसपा सुप्रीमो मायावती के तेवर शुरू से ही तल्ख थे, लेकिन यह तल्खी इस कदर होगी कि वह शाम होते होते इस्तीफा दे देंगी, इसका इल्म शायद ही किसी को रहा हो।
राज्यसभा में चर्चा के दौरान मायावती ने आरोप लगाया कि उन्हें बोलने से रोका जा रहा है, उन्होंने यह भी जोड़ा की देशभर में दलितों पर जुल्म हो रहा है और यहां उनकी आवाज दबाई जा रही है, अगर ऐसा होगा तो वह इस्तीफा दे देंगी और उन्होंने यह किया भी। लेकिन इसके लिए उन्होंने शाम तक का वक्त लिया, राजनीति के तमाम नफा नुकसानों पर सोच विचार कर उन्होंने अपना इस्तीफा राज्यसभा के सभापति उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी को भेजा।
यह क्षणिक आवेश या समाज की दुर्दशा से उपजी पीड़ा का आक्रोश भर नहीं, मायावती का वो बड़ा दांव है जो उन्होंने दलितों के बीच अपनी खोई जमीन वापस पाने के लिए चला है। आइए इस इस्तीफ के पीछे के कारणों पर भी एक निगाह डाल लेते हैं।
ज्यादा दिन नहीं हुए जब दलित राजनीति के सबसे बड़े गढ़ उत्तर प्रदेश में बसपा सुप्रीमो मायावती को राजनीतिक जीवन का सबसे बड़ा झटका लगा था, फरवरी मार्च में हुए विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी 80 सीटों से सिमटकर मात्र 19 सीटों वाली पार्टी बनकर रह गई थीं।
यह उस झटके से भी बड़ा था जब लोकसभा चुनावों में उन्हें देशभर में एक भी सीट नहीं मिली थी। लेकिन तब मायावती के पास सब्र करने की एक बड़ी वजह ये थी कि कोई सीट न पाने के बावजूद भी उनकी बसपा वोटों के हिसाब से देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई थी। लेकिन विधानसभा चुनावों में लगे झटके ने उन्हें झकझोर कर रख दिया।
उन्हें अपने हाथ से पार्टी के सबसे बड़े वोट बैंक दलितों के खिसकने का डर सताने लगा था। जो शायद काफी हद तक उनसे छिटक भी गए थे, जिनके भाजपा के पाले में जाने का दावा किया जा रहा था। इसके अलावा भीम आर्मी जैसे छोटे संगठन भी बसपा के लिए चुनौती बन गए थे जिन्हें काफी कम समय में बहुत ज्यादा लोकप्रियता मिली। खासकर दलित युवाओं ने जिस कदर भीम आर्मी को हाथों हाथ लिया उसने भी मायावती की नींद उड़ाई हुई थी।
लोकसभा चुनावों में मिली हार ने मायावती को इसी मुगालते में रखा की मोदी की लहर में जहां पूरा देश बह रहा था वहां दलित भी उससे खुद को अलग नहीं रख पाए। उन्हें उम्मीद थी कि मोदी लहर में खोया उनका वोट बैंक विधानसभा चुनावों में दोबारा उनकी ओर लौट आएगा। लेकिन यहां भी वह मुगालते में रहीं और पीएम मोदी के चेहरे पर दलितों ने यूपी में भी बसपा के हाथी को छोड़ भाजपा के कमल को थाम लिया। यह मायावती के लिए किसी बड़े झटके से कम नहीं था। इसके बाद जैसे वह सोई तंद्रा से जागी और दलितों को दोबारा जोड़ने की कवायद में लग गईं।
उन्हें तलाश थी तो ऐसे बड़े मुद्दे की जो दोबारा उन्हें अपने कोर वोटबैंक के नजदीक ला सके। सहारनपुर के शब्बीर कांड के रूप में उन्हें यह मौका मिला, जिसे उन्होंने हाथों हाथ लिया। जहां ठाकुरों और दलितों के झगड़े में कई दलितों के घर फूंक दिए गए और उन्हें पुलिस प्रशासन का भी निशाना बना। हालांकि इसके पीछे सहारनपुर की भीम आर्मी भी थी जिसकी वजह से प्रशासन और दलितों में ठन गई थी।
संसद में भी मायावती ने इस मुद्दे को पुरजोर तरीके से उठाया तो पीड़ित दलितों से मिलने के लिए वह सहारनपुर भी पहुंच गईं। लेकिन दलितों का दिल जीतने के लिए शायद सिर्फ इतना ही काफी नहीं था। इसके लिए और बड़े दांव की जरूरत थी, जो आज उन्होंने राज्यसभा में चल दिया। इस्तीफे के जरिए वह खुद को दलित अस्मिता के नाम पर शहीद घोषित करने में पीछे नहीं रहेंगी।
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