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राजनीति में संक्रमण काल चल रहा, नैतिक मूल्यों को धता बताकर लोकतांत्रिक व्यवस्था को तहस नहस किया जा रहा
BY Suryakant Pathak25 Jun 2017 6:26 AM GMT

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Suryakant Pathak25 Jun 2017 6:26 AM GMT
लोकतंत्र रक्षक सेनानी (आपातकाल बंदी) एवं पूर्व कैबिनेट मंत्री राजेंद्र चौधरी ने वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों के बारे में कहा है कि 25 जून 1975 को लागू आपातकाल लोकतंत्र की सबसे बड़ी त्रासदी थी। इसकी याद आज भी सिहरन पैदा करती है। लोकतंत्र की उस दुर्घटना के विरोध में जनता उठी तो दूसरी आजादी की रक्षा हो सकी। आज फिर देश के सामने संक्रमणकाल की स्थिति है। बिना घोषणा के भी आपात स्थिति पैदा किए जाने की संभावनाएं विद्यमान है।
इन दिनों वैचारिक प्रतिबद्धता पर भारी संकट का दौर है। किसानों के विरूद्ध गहरी साजिश का बड़ा कारण कारपोरेट पूंजीवाद को ताकत देना है। यह स्थिति नीतियों की प्राथमिकता को प्रभावित करती है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बिना सामाजिक न्याय के कैसे संभव हो सकेगा? यह सब भी आपातकाल का दबे कदम आने का संकेत है। इस अघोषित आपातकाल में लगभग वही लक्षण रहते है जो 1975 में घोषित आपातकाल में थे। भारतीय राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की मान्यताओं और नैतिक मूल्यों को धता बताकर लोकतांत्रिक व्यवस्था को तहस नहस करने का इरादा ही कई संकटों को आमंत्रित कर सकता है।
सरकारों द्वारा मनमानी और प्रदŸा अधिकारों को दर किनार कर नागरिकों के संवैधानिक मौलिक अधिकारों का दमन घोषित अथवा अघोषित दोनों स्थितियों में खतरे की वजह बन सकता है। सांप्रदायिकता और जातियों के बीच वैमनस्य लोकतंत्र को कमजोर करता हैं। सामाजिक गैरबराबरी और आर्थिक विषमता के कारण तनावपूर्ण स्थिति का बने रहना स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों की अवहेलना है।
छात्रों-नौजवानों की बेकारी दूर करने का कोई समाधान नहीं किया जाता है। वहीं अगर वे अपने अनिश्चित भविष्य के विरूद्ध आवाज उठाते हैं तो उनका दमन किया जाता है। ठीक इसी तरह किसानों के साथ भी कम अत्याचार नहीं हो रहे हैं। जिस समाज व्यवस्था में नौजवानों और किसानों की आवाज बंद की जाती हो और वे लोग आत्महत्या जैसी खतरनाक स्थिति तक पहुंचते हों, वहां लोकतंत्र बेमानी हो जाती है। जहां लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर करने की साजिश हो, वहां आपातकाल नहीं है तो क्या है? लोकतंत्र, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता हमारे संविधान की मूल प्रस्तावना के हिस्से हैं, इनके विपरीत आचरण एवं व्यवहार आपातकाल की परिधि में ही माने जाएंगे।
आपातकाल की परिस्थितियों और आज के सरोकारों को जोड़कर यह देखना वाजिब होगा कि फिर कोई राजसŸाा की लिप्सा में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, मानवाधिकार की महŸाा को आहत न कर सके। आपातकाल के बाद की पीढ़ी उन अनुभवों से फिर नहीं गुजरे उसे सचेत करने की आवश्यकता इसलिए भी है कि राजनीति में अवसरवाद और व्यक्तिवाद की शक्तियां फिर उभर रही है। देश में डर का माहौल है। एक बड़ा वर्ग आतंक में जी रहा है। रागद्वेष के आधार पर विपक्ष के प्रति व्यवहार लोकतंत्र की व्यवस्था पर आघात है।
समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री अखिलेश यादव मानते हैं कि सामाजिक-आर्थिक गैरबराबरी और विषमता के चक्र में लोकतंत्र फलफूल नहीं सकता है। डा0 लोहिया की सप्तक्रान्ति, समानता, राष्ट्र और लोकतंत्र उन्नयन की कुंजी मानी जा सकती है। चंद घरानों की समृद्धि देश की समृद्धि नहीं कही जा सकती है। राजनीति की इस संक्रमण कालीन स्थिति में समाजवादी विचारधारा ही एक मात्र विकल्प है।
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