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उत्तर प्रदेश

माँ गंगा के नाम पर कब तब भरी जायेंगी अपनी तथा अपनों की जेबें – प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव

माँ गंगा के नाम पर कब तब भरी जायेंगी अपनी तथा अपनों की जेबें – प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव
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जिस गंगा ने अपने द्वारा लाई हुई गाद से इस भारत की उपजाऊ और टिकाऊ जमीन का निर्माण किया. जिसने लोगों की प्यास बुझाने के लिए अपना मीठा जल अर्पित किया, जिस गंगा नदी ने अपने मीठे जल से फसलों की सिंचाई कराके जीवनदायिनी अन्न का निर्माण किया. जिसे इस देश के ऋषियों-मुनियों ने माँ का दर्जा दिया. उसी के पुत्रो द्वारा उस माँ को समाप्त करने के निरंतर प्रयास किये जा रहे हैं. जगह-जगह उन्हें अवरुद्ध किया जा रहा है. उनकी जलराशि को रोक कर उनकी अविरल धारा को विच्छिन्न करने का षड्यंत्र किया जा रहा है. कभी विकास और विज्ञान की आड़ लेकर, कभी जनसँख्या विस्फोट के भरण-पोषण का सहारा लेकर निरंतर उनका दोहन किया जा रहा है. जिस संत समाज को माँ गंगा ने अपने अंक में सहारा दिया. उस संत समाज को भी यह बात समझ में नहीं आयी कि गंगा की धारा अविरल और स्वच्छ कैसे रहेगी. वह संत समाज इस मुद्दे पर भी खुद को बिखरा हुआ पाता है. यदि यह समाज सही मायने में एक बार उठ खड़ा हो जाए,तो पूरा देश इनके साथ उठ खड़ा हो जाएगा. पर ऐसा नहीं हो पा रहा है, यह अफ़सोस की बात है. संत समाज में कभी-कभी सुगबुगाहट दिखाई पड़ती है. भारत माता मंदिर के संस्थापक महामंडलेश्वर स्वामी सत्यमित्रानन्द गिरी की जितनी प्रशंसा की जाए, कम है. उन्होंने तीन लाख रूपये की मदद के साथ संतों के पार्थिव शरीर को गंगा में न प्रवाहित करने का जो संकल्प लिया है, वह अनुकरणीय है.

भारत की जीवन रेखा के रूप में प्रतिष्ठित गंगा नदी की स्वच्छ और अविरल धारा के नाम पर देश और विदेश से प्राप्त धन की लूट-खसोट जारी है. गंगा की सफाई के लिए नित्य नए-नूतन शिगूफे छोड़े जा रहे हैं. नई-नई परियोजनाएं बन रही हैं. उसे पूरा करने के लिए कई हजार करोड़ रुपये की व्यवस्था की जा रही है. ठेकेदारों को काम बांट कर उन्हें अनुग्रहीत किया जा रहा है. अपने चहेतों की मशीनों का प्रयोग कराया जा रहा है. अँधा बाँटें रेवड़ी, अपने-अपने को देय, उक्ति को फिर से चरिर्तार्थ किया जा रहा है.

इसी को आधार बना कर न जाने कितने कुनबे बन गये हैं. हर एक कुनबे के मठाधीश हो गये हैं. नेट से प्राप्त जानकारी, जिनका गंगा की अविरल और स्वच्छ धारा से कोई मतलब नहीं है, के आकडे प्रस्तुत करना, मीडिया की सुर्खिया बनना, वाहवाही लूटना, इन मठाधीशों की दिनचर्या हो गयी है. ये सभी मठाधीश किसी न किसी रूप से राजनेताओं या प्रशासनिक निकायों से समबन्धित हैं. सरकारी धन पर हर दिन कहीं न कहीं सेमीनार, कार्यशालाएं आयोजित की जाती हैं, सफाई के नाम पर कुछ पालीथीन या कचरों को साफ करते हुए दिखाया जाता है. समाचार पत्रों के प्रथम पृष्ठ पर ही लम्बी-चौड़ी योजनाओं के साथ उनका सचित्र समाचार छपता है. छपे, जरूर छपे, इससे न मुझे गुरेज है,न किसी और को हो सकता है, पर गंगा की सफाई के नाम पर ठगी की बू उससे न आये. मेरा केवल इतना ही विरोध है.

गंगा सहित भारत की हर नदी की धाराओं में इतनी शक्ति होती है, कि वह अपनी गादों को खुद हटा सके, अपनी सफाई खुद कर सके. यदि आप ध्यान से सोचे या गंगा के किनारे खड़े होकर देखे, तो सच आपकी आत्मा को बार-बार झकझोरने लगेगा. गंगा सहित देश की सभी प्रमुख नदियाँ हर पल अपनी सफाई करती हैं, हर पल उनका जल परिवर्तित होता रहता है. हमारे यहाँ एक प्रसिद्द कहावत है, कि नदी के जिस पानी में आप एक बार स्नान करते हैं, उस जल में दुबारा आप स्नान नहीं कर सकते. इसके पीछे निहित अर्थ और क्रिया पर यदि हम अपनी दृष्टि डालें, तो यह बात बिलकुल साफ़ हो जाती है कि गंगा या अन्य नदियाँ अपनी सफाई खुद करती हैं, फिर सफाई के नाम पर इतने प्रपंच क्यों हो रहे हैं, यह समझ में नहीं आता, अपने लोगों को लाभान्वित ही करना हो तो दूसरे रास्ते से भी किये जा सकते हैं, उसके लिए जिसे हमने माँ का दर्जा दिया है, उसी का उपयोग करने की क्या जरूरत है?

आज कल गंगा, गोमती, जहाँ देखो, बड़ी-बड़ी मशीनें उसकी गादों की सफाई करते दिख जाती हैं. अगर सौन्दर्यीकरण का प्रश्न न हो, तो यह भी करने की जरूरत नहीं है, कम से कम गंगा नदी के लिए तो बिलकुल ही नहीं. इसके लिए केवल इतना ही करना है, बरसात के दिनों में उसकी धाराओं को अवरुद्ध न किया जाए. उसे बहाने दें, नदी में जमी हुई सारी सिल्ट वह खुद ब खुद बहा ले जायेंगी, और पहले जैसी उनकी गहराई भी हो जायेगी, विपुल जलराशि की स्वामिनी फिर से हो जायेंगी. धारा भी अविरल हो जायेगी. आज जो स्वच्छ और अविरल धारा का स्लोगन दिया जाता है, वह भी चरितार्थ हो जाएगा.

पर इसके लिए अदम्य इच्छा शक्ति की जरूरत है. इसके लिए निज स्वार्थों से उठने की जरूरत है. इसके लिए सत्य और निष्ठा के साथ जुटने की जरूरत है. करना सिर्फ इतना है, गंगा या इन जैसी नदियों में जो रासायनिक कचरा गिर रहा है, उसे रोकने की जरूरत है, या उसे निस्तारित करके गिराने की जरूत है.

(नोट : यह मेरा मौलिक लेख है, बिना अनुमति के इसके किसी भी अंश का प्रकाशन आपको कानूनी पचड़ों मे उलझा सकता है, यदि आप इसको प्रकाशित करना चाहते हों, तो जनता की आवाज की अनुमति प्राप्त कर लेखक के नाम के साथ प्रकाशित करें )

प्रो. (डॉ.) योगेन्द्र यादव

विश्लेषक, भाषाविद, वरिष्ठ गांधीवादी-समाजवादी चिंतक व पत्रकार

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